गुरुवार, 29 नवंबर 2018

गीत --बुतों का युग न आ जाए

       
     
कहीं  प्रतिमा  हज़ारों आदमी  का हक  न खा जाए।
यही डर  सामने है अब, बुतों  का युग  न आ जाए।।

चले   थे   देश   को  उन्नत  बनाने   का  इरादा  कर,
मगर  पाषाण युग  में अब, इसे ले  जा रहे  हो क्या?
नई    जो   सोच   लाए  हो, नई    जो  घोषणाएँ  हैं,
इसी से  लोग  खुश होंगे, यही  समझा रहे हो  क्या?
न जाने वक़्त कब आकर, तुम्हें ही कुछ सिखा जाए।
यही  डर  सामने  है  अब, बुतों का युग न आ जाए।।

हमारे   पेट   रोटी   से   भरेंगे    या    शिलाओं    से,
हमें  तो  नौकरी  दे   दो, तुम्हें  मन्दिर   मुबारक  हो।
हमारी  तुम   सुनो, शायद  तुम्हारी   रामजी  सुन लें,
हमारी  इन  दुआओं  की  पहुँच शायद वहाँ तक हो।
करो  कुछ काम  की बातें, तभी तो कुछ सुना जाए।
यही डर  सामने है अब, बुतों  का युग  न आ जाए।।

शिकायत थी तुम्हें तुष्टिकरण की जिस सियासत से,
उसी  तुष्टिकरण  की  राह  पर  तो  चल रहे हो तुम।
उठाकर   धार्मिक   मुद्दे, दिलों   से   खेल   लेते   हो,
कभी  मन्दिर, कभी  मूरत  बनाकर  छल रहे  हो तुम।
ज़रूरी ये  नहीं बिल्कुल, तुम्हें  कल  फिर चुना जाए।
यही डर  सामने है अब, बुतों  का  युग  न आ जाए।।

सियासत धर्म की हो, जाति की हो, या प्रदेशों की,
कभी   भी   देशहित   के   फ़ैसले  लेने  नहीं  देती।
सभी  दल  एक  जैसे  हैं, सभी  को है पता इसका,
करो  भड़काऊ  बातें, ख़ूब  होगी  वोट  की   खेती।
सदा  उल्लू बने हैं हम, कहो अब क्या किया जाए?
यही डर  सामने है अब, बुतों का  युग न आ जाए।।

--बृज राज किशोर 'राहगीर'
ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड, मेरठ (उ.प्र.)

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