टपक रही छत खुद के घर की, और रातों की नींद उड़ी है
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||
दरवाजा लगवाने में ही
सर पर उसके चढ़ी उधारी |
इक कोने में बैठ के उसने
पूरी पूरी रात गुजारी |
मग़र किसी से अपनी पीड़ा, हरगिज नही बताता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||
चूल्हा पिछले कई दिनों में
केवल इक दो बार जला है |
रूखा सूखा खाकर जैसे-
तैसे घर का काम चला है |
बच्चों को कल के बेहतर का, सपना रोज दिखाता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||
खेतों में भी काम चलेगा,
अब जब धान रोपाई का |
पैसा उसे इक्कट्ठा करना
है, तब खेत जोताई का |
इसी तरह जिम्मेदारी का, सारा बोझ उठाता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू ||
------- जतिन फैजाबादी
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||
दरवाजा लगवाने में ही
सर पर उसके चढ़ी उधारी |
इक कोने में बैठ के उसने
पूरी पूरी रात गुजारी |
मग़र किसी से अपनी पीड़ा, हरगिज नही बताता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||
चूल्हा पिछले कई दिनों में
केवल इक दो बार जला है |
रूखा सूखा खाकर जैसे-
तैसे घर का काम चला है |
बच्चों को कल के बेहतर का, सपना रोज दिखाता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||
खेतों में भी काम चलेगा,
अब जब धान रोपाई का |
पैसा उसे इक्कट्ठा करना
है, तब खेत जोताई का |
इसी तरह जिम्मेदारी का, सारा बोझ उठाता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू ||
------- जतिन फैजाबादी
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