रविवार, 14 जुलाई 2019

टपक रही छत खुद के घर की

टपक रही छत खुद के घर की,  और रातों की नींद उड़ी है
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||

दरवाजा लगवाने में ही
सर पर उसके चढ़ी उधारी |
इक कोने में बैठ के उसने
पूरी पूरी रात गुजारी |

मग़र किसी से अपनी पीड़ा, हरगिज नही बताता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||

चूल्हा पिछले कई दिनों में
केवल इक दो बार जला है |
रूखा सूखा खाकर जैसे-
तैसे घर का काम चला है |

बच्चों को कल के बेहतर का, सपना रोज दिखाता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू||

खेतों में भी काम चलेगा,
अब जब धान रोपाई का |
पैसा उसे इक्कट्ठा करना
है, तब खेत जोताई का |

इसी तरह जिम्मेदारी का, सारा बोझ उठाता झगरू |
फिर भी बारिश से खुश होकर मन ही मन मुस्काता झगरू ||

------- जतिन फैजाबादी

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें