ब्रजपाल सिंह ब्रज
एक
जात पात और ऊँच नीच में जो ना करते बंटवारा |
हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य शूद्र
ये वर्ण विधान बनाया |
नहीं गुणों से श्रेष्ठ मानव,
जन्म से महान बताया |
ये नहीं समझ आया कैसे रहेगा भाईचारा |
हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||
ब्राह्मण बोलेगा,वैश्य तोलेगा,
क्षत्री संग्राम करेंगे |
इन सबकी चाकरी और सेवा
शूद्र तमाम करेंगे |
सब विश्राम करेंगे,फिरेगा शूद्र ही मारा मारा |
हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||
पशु और मलमूत्र भी उनका
शास्त्रों में अछूत नहीं है
किन्तु शूद्र स्वस्थ,ज्ञानी
हो कर भी छूत नहीं है
क्या ये काली करतूत नहीं जो बिन शास्त्रों के मारा |
हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||
दान वीरता की जय जिसकी
गुंजी थी अम्बर में |
सूत पूत कह रोक दिया वो
द्रोपदी के स्वयंवर में |
श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य भी छला गया बेचारा |
हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||
देना था वरदान कर्ण को
दे दिया शाप अनूठा |
गुरु ड्रोन ने एकलव्य का
कटवा लिया अगूंठा |
ये कथन नहीं झूठा,स्वयंवर का होता अलग नजारा |
हजारों बरस गुलाम ना रहता ये स्वदेश हमारा ||
दो
तोड़ सको तो जाती धर्म की डालो तोड़ दीवारों को |
तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||
ना कोई हिन्दू ना कोई मुस्लिम
ना कोई सिख ईसाई है |
शोषित पीड़ित भूखे नंगें
सब आपस में भाई हैं |
ऊँच नीच और छूआछूत के कर दो दूर विकारों को |
तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||
अस्थि रुधिर और मांस एक है
एक सा है चेहरा मोहरा |
बस इतना सा फर्क बावले
कोई काला कोई है गोरा |
चुन चुन कर तुम गले लगा लो ब्राह्मण और कहारों को |
तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||
जागो उठो और मारो, दो
राज बदल और ताज बदल |
चाहें बहे खून की नदियाँ
तुम सडकों पर रहो अटल |
महलों पर कब्ज़ा कर लो और लूटों सब दीनारों को
तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||
संभव नहीं है समाधान
संविधान और शान्ति से |
अपने सब अधिकार मिलेंगे
तुमको केवल क्रान्ति से |
चढ़ा शान पे धार लगा लो जंग लगी तलवारों को
तभी चुनौती दे सकते हो इन ऊँची मीनारों को ||
तीन
ना कविता ना गीत गजल ना कथा सुनाने आया हूँ |
मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ ||
बचपन से जिनके हाथों में खुरपी और कुदाली है
परती धरती जोट जोट डैम तोड़ चुका जो हाली है |
और झूठन पर मनती जिनकी होली और दीवाली है
सत्ता जिन पर बहा रही अब भी आंसू घड़ियाली है |
मैं उन जिन्दा लाशों में अब प्राण फूंकने आया हूँ |
मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ ||
जिनकी नरम हथेली में बस गांठें हैं और छाले हैं
रस्सी पर चढ़कर दिखा रहे जो करतब नए निराले हैं |
जिनके पैरों में जंजीरें हैं और जुबान पर ताले हैं
जो रहें अंधेरी झुग्गी में महलों में करें उजाले हैं |
उनको उनकी ताकत का एहसास कराने आया हूँ |
मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ ||
मेरी कलम भी मौन रही फिर परिवर्तन कैसे आएगा
मैं भी गर सो गया यहां फिर उनको कौन जगायेगा ?
दबी दिलों में चिंगारी जो शोला कौन बनाएगा
कौन मशाल कुदाली वाले हाथों में पकडायेगा ?
सब जाग जाएँ अब जंग होगी मैं ये समझाने आया हूँ |
मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ ||
पढ़े लिखे बेकार सड़क पर घूम रहे हैं नौजवान
और खुदकुशी कर लेते हैं यहां अन्नदाता किसान |
सिर्फ शपथ लेने के आता काम यहां पर संविधान
वोटों की खातिर जात धर्म में बांटा जाता हिन्दुस्तान |
कटा फटा नक्शा स्वदेश परिवेश दिखाने आया हूँ |
मैं दीन दुखी भूखों नंगों की व्यथा सुनाने आया हूँ ||
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