मैं नदी का नीर हूँ,रूकते नहीं मेरे चरण।
पर्वतों की मैं उपेक्षा पा के भी बढता रहा,
पत्थरों से ठोकरे खाता रहा, लडता रहा।
देखकर मेरी विजय बुलबुल ने छेडी तान है,
बरगदों की डालियों ने झुक दिया सम्मान है।
हर तरफ से मिल रहा है स्नेह का आमंत्रण।।
पर अभावों की जो दुनियॉं मेरे पीछे जी रही,
मुझको देने को गति धरती के सब दुख सह रही।
कर चुका सकंल्प मैं अब ऋण मुझे उसका चुकाना,
दीनता का हर मरूस्थल है मुझे उपवन बनाना।
चाहता हूँ मैं धरा पर स्वर्ग का हो अवतरण।।
कोई नभचारी नहीं कर पायेगा मेरा अहित,
मैं धरा का सुत हूँ मेरी शक्ति है उसमें निहित।
है यही विश्वास मेरा, ध्येय है मेरा यही,
हम धरावासी गगन को छोड अब पूजे मही।
ये न हो सिद्धान्त केवल हो सभी का आचरण।।
ओर होंगें जिनके मन में कुछ कृपा की चाह है,
न मुझे वर चाहिये न शाप की परवाह है।
मैं डगर अपनी बनाता चल रहा प्रत्येक क्षण,
साक्षी तट के तरू हैं, साक्षी हैं बालू कण।
गीत हूँ, संगीत हूँ युग धर्म युग का जागरण।।

बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर
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