रविवार, 25 अप्रैल 2021

मेरे मन के गीत : 6- भारत भूषण

 



भारत भूषण 

                          एक 

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए


तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या

चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया

बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए

कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए


बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े

पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े

होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए

चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए


बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के

नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के

जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए

ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए


दो 

मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना

मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना


सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं

मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं

ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ

मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं

बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है

है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना


सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया

आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया

छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई

जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया

मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला

जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना


सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ

सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ

मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ

बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ

लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है

उड़ने को पंख नहीं मेरे, सारा पथ दुर्गम अनजाना


काली रूखी गदबदा बदन, कांसे की पायल झमकाती

सिर पर फूलों की डलिया ले, हर रोज़ सुबह मालिन आती

ले गई हज़ारों हार निठुर, पर मुझको अब तक नहीं छुआ

मेरी दो पंखुरियों से ही, क्या डलिया भारी हो जाती

मैं मन को समझाता कहकर, कल को ज़रूर ले जाएगी

कोई पूरबला पाप उगा, शायद यूँ ही हो कुम्हलाना


उस रोज़ इधर दुल्हा-दुल्हन को लिए पालकी आई थी

अनगिनती कलियों-फूलों से, ज्यों अच्छी तरह सजाई थी

मैं रहा सोचता गुमसुम ही, ये भी हैं फूल और मैं भी

सच कहता हूँ उस रात, सिसकियों में ही भोर जगाई थी

तन कहता मैं दुनिया में हूँ, मन को होता विश्वास नहीं

इसमें मेरा अपराध नहीं, यदि मैं भी चाहूँ मुसकाना


पूजा में चढ़ना होता तो, उगता माली की क्यारी में

सुख सेज भाग्य में होती तो, खिलता तेरी फुलवारी में

ऐसे कुछ पुण्य नहीं मेरे, जो हाथ बढ़ा दे ख़ुद कोई

ऐसे भी हैं जिनको जीना ही पड़ता है लाचारी में

कुछ घड़ियाँ और बितानी हैं, इस कठिन उपेक्षा में मुझको

मैं खिला पता किसको होगा, झर जाऊंगा बे-पहचाना |


                     तीन 

तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा

धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी


रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था

मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था

गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए

ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था

जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले

मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी


इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते

हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते

माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है

हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते

दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे

सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी


मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे

चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे

ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती

तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे

अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे

तन को बेचैन विचरना था, मन में कस्तूरी रहनी थी |


                चार 

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई

बांह में है और कोई चाह में है और कोई


साँप के आलिंगनों में

मौन चन्दन तन पड़े हैं

सेज के सपनो भरे कुछ

फूल मुर्दों पर चढ़े हैं


ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई

देह में है और कोई, नेह में है और कोई


स्वप्न के शव पर खड़े हो

मांग भरती हैं प्रथाएं

कंगनों से तोड़ हीरा

खा रहीं कितनी व्यथाएं


ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई

सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई


जो समर्पण ही नहीं हैं

वे समर्पण भी हुए हैं

देह सब जूठी पड़ी है

प्राण फिर भी अनछुए हैं


ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई

हास में है और कोई, प्यास में है और कोई |

                पांच 


जैसे पूजा में आँख भरे झर जाय अश्रु गंगाजल में

ऐसे ही मैं सिसका सिहरा

बिखरा तेरे वक्षस्थल में!


रामायण के पारायण सा होठों को तेरा नाम मिला

उड़ते बादल को घाटी के मंदिर में जा विश्राम मिला

ले गये तुम्हारे स्पर्श मुझे

अस्ताचल से उदयाचल में!


मैं राग हुआ तेरे मनका यह देह हुई वंशी तेरी

जूठी कर दे तो गीत बनूँ वृंदावन हो दुनिया मेरी

फिर कोई मनमोहन दीखा

बादल से भीने आँचल में!


अब रोम रोम में तू ही तू जागे जागूँ सोये सोऊँ

जादू छूटा किस तांत्रिक का मोती उपजें आँसू बोऊँ

ढाई आखर की ज्योति जगी

शब्दों के बीहड़ जंगल में!





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