अहमद फराज
ये खेत हमारे ,ये खलिहान हमारे | पूरे हुए एक उम्र के अरमां हमारे |
हम वो जो कड़ी धूंप में जिस्मों को जलाएं
हम वो हैं जो सहराओं को गुलज़ार बनाएं
हम अपना लहू ख़ाक के तोड़ों को पिलायें
इस पर भी घरोंदे रहे वीरान हमारे |
हम रोशनी लाये थे लहू अपना बहाकर
हम फूल उगाते थे पसीने में नहाकर
ले जाता मगर और कोई फसल उठाकर
रहते थे हमेशा तही-दामान हमारे |
अब देश की दौलत नहीं जागीर किसी की
अब हाथ किसी के नहीं तकदीर किसी की
पांवों में किसी के नहीं जंजीर किसी की
भूलेगी ना दुनिया कभी एहसान हमारे |
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