मानव समाज में अन्तेष्टि के अनेक रूप है।ये बहुत कुछ परम्पराओं, सामुदायिक विश्वाशों और आस्थाओं से भी जुड़ा हुआ है। इसलिये पूजा पद्धति और ईश आस्था विश्वाश के साथ साथ मृत देह के अन्तिम संस्कार की प्रचलित परम्परा के सम्मान करने की अपेक्षा की जाती है और ऐसा न करने पर भावनायें आहत होने का डर रहता है।
शव के सम्मान की अन्य से अपेक्षा करने वाले स्वयं अपने परिजन के मृत शरीर का सम्मान नहीं करते हैं।यद्यपि मृत शरीर मिट्टी जैसा माना जाता है और मृत देह को मिट्टी कहा भी जाता है लेकिन मिट्टी को भी कायदे से ठिकाने लगाने की जरूरत होती है, वरना वो जिन्दा लोगों के लिये परेशानी का कारण बन सकती है। लेकिन अभी हम अनतेष्टि क्रिया की अलग अलग समुदाय के प्रचलित रिवाज के सन्दर्भ में ही बात करें। ईसाईयों मुसलमानों सहित दुनिया के ज्यादातर समुदायों में मृतक को भूमि में दफनाने का रिवाज है। मृतक को कब्रिस्तान लेजाने से लेकर दफनाने तक की क्रिया बड़े ध्यानऔर शान्ति से सम्पन्न की जाती है जो सम्मान के योग्य है। हिन्दुओं में अन्तेष्टि के अनेक रिवाज हैं लेकिन अधिकाँशतः अग्निदाह ही किया जाता है। शव को शमशान ले जाने से पूर्व अनेक ऐसी क्रियायें की जाती हैं जो बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती हैं। विस्तार में ना जाकर उदाहरण रूप में शवयात्रा में गाजे बाजे और आतिशबाजी को लिया जा सकता है,मृतक भोज को लिया जा सकता है। ये कोई अच्छी परम्परायें नहीं हैं।। जैन मुनियों और जोगी समाज में मृतक को समाधि की अवस्था में ले जाकर समाधि रूप में ही भूमिगत करने का रिवाज है। पारसी समाज में मृत देह को ऊँचे टीले पर रख आने का रिवाज है। अनेक समुदायों में मृत देह को जल में बहा देने का रिवाज है। इन सब तौर तरीकों के पीछे अनेक कारण और विश्वाश हैं जिन पर सवाल उठाना भावनाओं को चोट पहुँचाने का सबब हो सकता है लेकिन इसके कारण सवाल तो उठने बन्द नहीं हो सकते.हैं। अन्तिम संस्कार के जो भी तरीके हैं वो सब मिट्टी,हवा और पानी को प्रदूषित करने वाले हैं। जैसे जैसे जनसंख्या बढती जाती है प्रदूषण के अन्य कारणों की तरह शव निस्तारण भी बड़ी समस्या बनता जा रहा है। कब्र में मृत शरीर को कीड़े खा जाते हैं, जल में जलजीव खाते हैं, खुले में पक्षी और दूसरे जीव खाते हैं। क्या कोई जीवित रहते अपने प्रियजन का खाया जाना सहन करेगा? नहीं करेगा । फिर मरते ही ऐसा दुराव कैसे हो जाता है कि प्रियजन की देह को कीड़े चट कर जायें और आपको कुछ बुरा ही न लगे? इसके अलावा इससे मिट्टी , जल और वायु में जो प्रदूषण फैलता है वो क्या हानिकारक नहीं है? जहाँ तक शव को अग्निदाह कर निपटाने का तरीका है तो वो किसी भी तरह उचित नहीं है। शव को जलाने से जो असह्य बदबू उत्पन्न होती है उससे बचने के लिये ही घी सामग्री का सहारा लिया जाता है। अतः ये तो स्पष्ट है कि मृत शरीर के निपटारे का कोई निरापद तरीका नहीं है। इस.सम्बन्ध में अनुसन्धान किये जाने की आवश्यकता है और कम से कम हानिकारक तरीके की खोज कर उसे धार्मिक विश्वाशों और परम्पराओं से परे हटकर अपना लेना होगा। मैंने ऐसा भी कहीं पढा है कि कुछ आदिवासी कबीलों में मरणासन्न व्यक्ति को मरने से पूर्व ही काटकर उसे पका कर खा लेने की परम्परा है। इसे पढकर ही आपको कैसी घिन्न आई होगी लेकिन ऐसी घिन्न शव को तन्दूर में भूनने जैसा शवदाह का काम चिता के रूप करते हुये भी तो आनी चाहिये। अपने प्रियजन के शव को कीडों चील कोओं और मगरमच्छों को खिलाते भी आनी चाहिये जो आपको कभी नहीं आती है। जानते हो मरणासन्न परिजन को खा जाने वाले जंगली कबीले के लोग क्या मानते हैं? उनका मानना है कि ऐसा करने से उनका प्रियजन सदैव उनके अन्दर निवास.करेगा वो उनसे कभी.दूर न होगा। अब अगर एक बाप की दस.सन्तान हैं तो सब.चाहेंगी कि पिताश्री उनके पास रहें। वो कोई सुसभ्य शहरी थोड़ी हैं जो माँ बाप को जीते जी अनाथाश्रम में त्याग आते हैं सभ्य नागरिक क्योंकर अपने माँ.बाप को अपने भीतर जगह देंगे? फिर कबीले के अन्य लोगों को भी अपने हर.सदस्य से बड़ा लगाव होता है।अपने सदस्य के लिये पूरा कबीला लड़ने मरने को तैयार रहता है।इसलिये मरणासन्न व्यक्ति में सबका हिस्सा बनता है। एक जश्न होता है और मरणासन्न व्यक्ति की बोटी बोटी काटकर भोज किया जाता है। अब मुझसे इन सब बितों के प्रमाण न माँगने लगना मैं अपने मन से नही कह रहा हूँ मैंने काफी पहले ये सब पढा है। अस्थियाँ घुमाने सिलाने के रीति रिवाज ऐसी ही सदियों पुरानी परम्पराओं के अवशेष रूप हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि हमने अपने पूर्वजों को भुला दिया है। लिखा तो और भी बहुत कुछ जा सकता है लेकिन लिखने का उद्देश्य मात्र इतना है कि हम हर बात को धर्म और भावना से न जोडे अन्तिम संस्कार विधि के लिये भी कुछ नया और बेहतर करने की सोचें।
शव के सम्मान की अन्य से अपेक्षा करने वाले स्वयं अपने परिजन के मृत शरीर का सम्मान नहीं करते हैं।यद्यपि मृत शरीर मिट्टी जैसा माना जाता है और मृत देह को मिट्टी कहा भी जाता है लेकिन मिट्टी को भी कायदे से ठिकाने लगाने की जरूरत होती है, वरना वो जिन्दा लोगों के लिये परेशानी का कारण बन सकती है। लेकिन अभी हम अनतेष्टि क्रिया की अलग अलग समुदाय के प्रचलित रिवाज के सन्दर्भ में ही बात करें। ईसाईयों मुसलमानों सहित दुनिया के ज्यादातर समुदायों में मृतक को भूमि में दफनाने का रिवाज है। मृतक को कब्रिस्तान लेजाने से लेकर दफनाने तक की क्रिया बड़े ध्यानऔर शान्ति से सम्पन्न की जाती है जो सम्मान के योग्य है। हिन्दुओं में अन्तेष्टि के अनेक रिवाज हैं लेकिन अधिकाँशतः अग्निदाह ही किया जाता है। शव को शमशान ले जाने से पूर्व अनेक ऐसी क्रियायें की जाती हैं जो बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती हैं। विस्तार में ना जाकर उदाहरण रूप में शवयात्रा में गाजे बाजे और आतिशबाजी को लिया जा सकता है,मृतक भोज को लिया जा सकता है। ये कोई अच्छी परम्परायें नहीं हैं।। जैन मुनियों और जोगी समाज में मृतक को समाधि की अवस्था में ले जाकर समाधि रूप में ही भूमिगत करने का रिवाज है। पारसी समाज में मृत देह को ऊँचे टीले पर रख आने का रिवाज है। अनेक समुदायों में मृत देह को जल में बहा देने का रिवाज है। इन सब तौर तरीकों के पीछे अनेक कारण और विश्वाश हैं जिन पर सवाल उठाना भावनाओं को चोट पहुँचाने का सबब हो सकता है लेकिन इसके कारण सवाल तो उठने बन्द नहीं हो सकते.हैं। अन्तिम संस्कार के जो भी तरीके हैं वो सब मिट्टी,हवा और पानी को प्रदूषित करने वाले हैं। जैसे जैसे जनसंख्या बढती जाती है प्रदूषण के अन्य कारणों की तरह शव निस्तारण भी बड़ी समस्या बनता जा रहा है। कब्र में मृत शरीर को कीड़े खा जाते हैं, जल में जलजीव खाते हैं, खुले में पक्षी और दूसरे जीव खाते हैं। क्या कोई जीवित रहते अपने प्रियजन का खाया जाना सहन करेगा? नहीं करेगा । फिर मरते ही ऐसा दुराव कैसे हो जाता है कि प्रियजन की देह को कीड़े चट कर जायें और आपको कुछ बुरा ही न लगे? इसके अलावा इससे मिट्टी , जल और वायु में जो प्रदूषण फैलता है वो क्या हानिकारक नहीं है? जहाँ तक शव को अग्निदाह कर निपटाने का तरीका है तो वो किसी भी तरह उचित नहीं है। शव को जलाने से जो असह्य बदबू उत्पन्न होती है उससे बचने के लिये ही घी सामग्री का सहारा लिया जाता है। अतः ये तो स्पष्ट है कि मृत शरीर के निपटारे का कोई निरापद तरीका नहीं है। इस.सम्बन्ध में अनुसन्धान किये जाने की आवश्यकता है और कम से कम हानिकारक तरीके की खोज कर उसे धार्मिक विश्वाशों और परम्पराओं से परे हटकर अपना लेना होगा। मैंने ऐसा भी कहीं पढा है कि कुछ आदिवासी कबीलों में मरणासन्न व्यक्ति को मरने से पूर्व ही काटकर उसे पका कर खा लेने की परम्परा है। इसे पढकर ही आपको कैसी घिन्न आई होगी लेकिन ऐसी घिन्न शव को तन्दूर में भूनने जैसा शवदाह का काम चिता के रूप करते हुये भी तो आनी चाहिये। अपने प्रियजन के शव को कीडों चील कोओं और मगरमच्छों को खिलाते भी आनी चाहिये जो आपको कभी नहीं आती है। जानते हो मरणासन्न परिजन को खा जाने वाले जंगली कबीले के लोग क्या मानते हैं? उनका मानना है कि ऐसा करने से उनका प्रियजन सदैव उनके अन्दर निवास.करेगा वो उनसे कभी.दूर न होगा। अब अगर एक बाप की दस.सन्तान हैं तो सब.चाहेंगी कि पिताश्री उनके पास रहें। वो कोई सुसभ्य शहरी थोड़ी हैं जो माँ बाप को जीते जी अनाथाश्रम में त्याग आते हैं सभ्य नागरिक क्योंकर अपने माँ.बाप को अपने भीतर जगह देंगे? फिर कबीले के अन्य लोगों को भी अपने हर.सदस्य से बड़ा लगाव होता है।अपने सदस्य के लिये पूरा कबीला लड़ने मरने को तैयार रहता है।इसलिये मरणासन्न व्यक्ति में सबका हिस्सा बनता है। एक जश्न होता है और मरणासन्न व्यक्ति की बोटी बोटी काटकर भोज किया जाता है। अब मुझसे इन सब बितों के प्रमाण न माँगने लगना मैं अपने मन से नही कह रहा हूँ मैंने काफी पहले ये सब पढा है। अस्थियाँ घुमाने सिलाने के रीति रिवाज ऐसी ही सदियों पुरानी परम्पराओं के अवशेष रूप हैं। लेकिन दिक्कत ये है कि हमने अपने पूर्वजों को भुला दिया है। लिखा तो और भी बहुत कुछ जा सकता है लेकिन लिखने का उद्देश्य मात्र इतना है कि हम हर बात को धर्म और भावना से न जोडे अन्तिम संस्कार विधि के लिये भी कुछ नया और बेहतर करने की सोचें।
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