सोमवार, 10 सितंबर 2018

बेगम हजरत महल



बेगम का बचपन और जवानी का आधा हिस्सा काफी कष्ट में गुजरा बताया जाता है. एक समय था कि बेगम हजरत महल फ़ैजाबाद में नृत्य किया करती थीं. इनका शुरूआती नाम मुहम्मदी खातून बताया गया है. ऐसा भी बोला गया है कि वह गणिका भी बना दी गयी थीं. जब अवध के नबाब वाजिद अली शाह ने उन्हें अपने शाही हरम में शामिल किया तब वे खातून से ‘हज़रत महल’ बना दी गयी थीं.
इसके बाद हजरत महल से जब नवाब ने शादी की तो वह खुद इनका कौशल और रणनीति को देखकर हैरान था. नवाब को यह लगने लगा था कि हजरत महल में नेतृत्व की शक्ति है और इनको मौका मिलना चाहिए. इसीलिए नवाब ने बेगम को अपने राज्य की काफी बागडौर थमा दी थी.
सन 1854 में अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह के साथ, एक नई संधि करनी चाही थी किन्तु नवाब को यह संधि मंजूर नहीं थी. इसीलिए अंग्रेजों ने नवाब को कैदकर कलकत्ता भेज दिया था. बेगम हजरत महल ने अपनी राज्य और अपनी मिट्टी को छोड़कर जाना सही नहीं समझा. वैसे तब बेगम के एक 12 साल का बच्चा भी था किन्तु बेगम ने बिना डरे अंग्रेजों से लड़ने के लिए सही समय और सेना बनानी शुरू कर दी थी.
जैसे ही सन 1857 की क्रांति शुरू हुई तो बेगम हजरत महल ने अपनी सेना को एकत्रित किया और पूरे जोर से अंग्रेजों पर हमला बोल दिया था. अंग्रेजों को अवध से यह उम्मीद नहीं थी. क्योकि अवध में कोई पुरुष राजा नहीं था इसलिए अंग्रेज इस जगह को सुरक्षित मान रहे थे. किन्तु बेगम हजरत खुद हाथी पर बैठकर युद्ध में अंग्रेजों से लड़ने के लिए जाने लगी थीं.
कुछ इतिहास की किताबें तो यह भी कहती हैं कि अंग्रेजों से अवध का कुछ क्षेत्र तो आजाद भी करा लिया गया था. इसकी सूचना जब भारत में फैली तो अवध के आसपास के कई राजा बेगम महल के साथ हो लिए थे.
बेगम हजरत महल ने हिंदू-मुस्लिम सभी राजाओं को एक करके और अवाम का साथ लेकर अवध में हर तरफ अंग्रेजों को हरा दिया। यहां तक कि पूरी दुनिया में पहली बार अंग्रेजों की शान यूनियन जैक को लखनऊ रेजिडेंसी में जमीन पर गिरा दिया गया। हर तरफ बहुत से अंग्रेज और उनके वफादारों की गिरफ्तारियां हुईं। क्रांति के एक नायक सरदार दलपत सिंह बेगम के दरबार में पहुंच कर कहता है, ‘बेगम हुजूर, आप अपने कैदी अंग्रेजों को हमें सौंप दीजिये। हम उनके हाथ-पैर काटकर अंग्रेजों की छावनी में भेजेंगे, ताकि उन्हें पता चले कि हमारे साथ जो क्रूर व्यवहार किया गया, यह उसका जवाब है। हम चुप रहने वालों में से नहीं हैं।’
  बेगम का चेहरा सुर्ख हो गया।उन्होंने कहा, ‘हरगिज नहीं। हम अपने कैदियों के साथ ऐसा सलूक न तो खुद कर सकते हैं और न किसी को ऐसा करने की छूट दे सकते हैं। कैदियों पर जुल्म ढाने का रिवाज हमारे हिंदुस्तान का नहीं है। हमारे जीते जी अंग्रेज कैदियों और उनकी औरतों-बच्चों पर जुल्म नहीं किया जा सकता। हिंदुस्तानी तहजीब कैदियों की भी इज्जत और हिफाजत की रही है। आप हमारे सरदार हैं, हम आपकी हिम्मत और जज्बे की इज्जत करते हैं, मगर हम आपकी मांग पूरी नहीं कर सकते।’ इतने बड़े दिल की मलिका और हिंदुस्तान की पहचान बेगम हजरत महल ने खुद अंग्रेजों के जुल्म सहे, मगर अपने उसूलों से समझौता नहीं किया।)
किन्तु हर बार की तरह आंतरिक कलह और धोखे की वजह से अंग्रेज बेगम की सेना के कई अहम योद्धाओं को मार देते हैं. इसके बाद कहा जाता है कि बेगम अवध छोड़ नेपाल चली गयी थीं ताकि वहां रहकर सेना का निर्माण कर सकें किन्तु 1879 में नेपाल के अन्दर ही बेगम हजरत महल का देहांत हो जाता है.| बेगम हजरत महल ने जब नेपाल को कूच किया था तो बेगम के साथ अवध के 50000 लोग भी कूच में सपरिवार,पशुओं के साथ शामिल थे किसी को मंजिल का पता नहीं था फकत एक बात मालूम थी कि अपनी बेगम के साथ जाना है इनमे बहुसंख्यक हिंदू ही थेतमाम जनता अपने पशु धन के साथ ही उनके साथ हो ली , जिसमे बहु संख्यक हिन्दू ही थे , वे अपनी महारानी के साथ थे ।
इन्ही के नाम पर लखनऊ में एक चौराहे का नाम  हजरतगंज  पड़ा है | कुछ इतिहासकार कहते हैं कि सन 1827 में नवाब नसीरूद्दीन हैदर ने इस जगह की नींव डाली और इसे गंज बाजार का नाम दिया। लेकिन अगले नवाब, अमजद अली शाह के बाद 1842 में इसका नाम हजरतगंज कर दिया गया। क्योंकि नवाब अमजद अपने उपनाम हजरत के नाम से ही प्रसिद्ध थे। बेगम के नाम से लखनऊ में बेगम हजरत महल पार्क है।
इस प्रकार भारत की यह वीर महिला योद्धा सदा के लिए इतिहास बन जाती हैं|



0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें