'इतने इल्जाम मुझ पर लगाए गए, बेगुनाही का अंदाज जाता रहा'
फेसबुक ने लिखने की वास्तविक आजादी दी है | पहले कविताएं लिखते और गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में जाकर पढ़ आते थे | लेकिन उस सबसे मन उछट गया | कारण बहुत से थे लेकिन मुख्य कारण यही था कि लोग चाहते थे कि कविता के स्वर बागी न हों, वे राष्ट्रवादी हों या सिर्फ वैयक्तिक राग विराग के हों | समाज की तल्ख़ सच्चाईयों को कविता में न लिखा जाए और न ही सांप्रदायिक और अंधराष्ट्रवादी एजेंडें का विरोध किया जाए | यही लोग कविता के कारोबारी भी हैं तो इनसे वैसे भी नहीं बनती थी | जब भी शोषित उत्पीड़ित जनों की आवाज उठाई लोगों ने कहा तुम कम्युनिष्ट हो ? जब भी लेखकों, बुद्धिजीवियों, आदिवासियों की हत्या या उत्पीड़न का विरोध किया कहा गया तुम नक्सली हो ? जब भी रोहित वेमुला जैसे होनहार विद्यार्थियों के पक्ष में लिखा कहा गया तुम दलित हो ? अल्पसंखयकों से भेद भाव के विरुद्ध लिखा तो कहा गया तुम मुसलमान हो ? फ़िलस्तानियों के पैकः में लिखा तो कहा गया तुम अरबी भेड़ों के गुलाम हो ? महिला और नाबालिग बच्चियों के यौन उत्पीड़न के विरोध में लिखा कहा गया तो कहा गया तुम चुप रहो तुम्हारे भी घर में बेटियाँ हैं | एल जी बी टी के अधिकारों के पक्ष में लिखा तो कहा गया तुम गे हो ? किसानों /मजदूरों के पक्ष में आवाज उठायी तो कहा गया कि तुम ए सी में बैठकर मेहनतकशों की बात करने वाले कौन होते हो ?
उनका आशय यह है कि आप तभी किसी के पक्ष में बोल या लिख सकते हैं जब आप स्वयं वह हैं | अब ये समझ से बाहर है कि बच्चों के हक़ में लिखे तो बच्चे कैसे बनें ? औरतों के हक़ में लिखें तो औरत कैसे बने ? सरहद पर मर रहे सैनिक या मोब लिन्चिग में मारे जा रहे व्यक्ति के पक्ष में बोलें तो मर कैसे जाएँ और अगर मर भी जाएँ तो फिर बोलेंगे कैसे ?
लोगों के कुतर्कों का कोई जबाब नहीं हैं | कह रहे हैं कि समलैंगिकों को उत्पीड़न से सुरक्षित करने का फैसला देने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज समलैंगिक हैं | कल अगर वो किसी कथित आतंकवादी या नक्सली को आरोपों से बाइज्जत बरी कर देंगे तो यही लोग जजों को आतंकवादी और नक्सली बता सकते हैं | न्यायपालिका इनके अनुकूल फैसला दे तो बल्ले बल्ले है वरना वो देशद्रोही, धर्मद्रोही ,समाजद्रोही है| इसलिए उसके फैसले को कानून बनाकर पलट देना चाहिए | हम न्यायपालिका का सम्मान करते हुए भी नक्सली, असामाजिक ,देशद्रोही और मनोरोगी हैं| वे कानून और संविधान की धज्जियां उड़ाकर भी देशभक्त हैं? लोगों को जाति और धर्मों के आधार पर उत्पीड़ित करके भी सामाजिक हैं? मंदिरों और मदरसों में लड़के और लड़कियों का शारीरिक शोषण करके भी धार्मिक हैं ? बेकसूर आदमी और बेजुबान जानवरों का क़त्ल करके भी अहिंसक और दयालु हैं ? देश, धर्म, जाति ,भाषा, क्षेत्र ,वेश,खान पान को लेकर कुंठित ये लोग मनोरोगी नहीं हैं, हम मनोरोगी हैं | हम जो समाज में सबके लिए समता और सम्मान चाहते हैं | हम जो देश, धर्म, जाति ,भाषा, क्षेत्र ,वेश,खान पान को लेकर किसी से नफ़रत नहीं करते हैं | हम जो जियो और जीने दो के सिद्धांत में यकीन करते हैं| हम मनोरोगी हैं |
फेसबुक ने लिखने की वास्तविक आजादी दी है | पहले कविताएं लिखते और गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में जाकर पढ़ आते थे | लेकिन उस सबसे मन उछट गया | कारण बहुत से थे लेकिन मुख्य कारण यही था कि लोग चाहते थे कि कविता के स्वर बागी न हों, वे राष्ट्रवादी हों या सिर्फ वैयक्तिक राग विराग के हों | समाज की तल्ख़ सच्चाईयों को कविता में न लिखा जाए और न ही सांप्रदायिक और अंधराष्ट्रवादी एजेंडें का विरोध किया जाए | यही लोग कविता के कारोबारी भी हैं तो इनसे वैसे भी नहीं बनती थी | जब भी शोषित उत्पीड़ित जनों की आवाज उठाई लोगों ने कहा तुम कम्युनिष्ट हो ? जब भी लेखकों, बुद्धिजीवियों, आदिवासियों की हत्या या उत्पीड़न का विरोध किया कहा गया तुम नक्सली हो ? जब भी रोहित वेमुला जैसे होनहार विद्यार्थियों के पक्ष में लिखा कहा गया तुम दलित हो ? अल्पसंखयकों से भेद भाव के विरुद्ध लिखा तो कहा गया तुम मुसलमान हो ? फ़िलस्तानियों के पैकः में लिखा तो कहा गया तुम अरबी भेड़ों के गुलाम हो ? महिला और नाबालिग बच्चियों के यौन उत्पीड़न के विरोध में लिखा कहा गया तो कहा गया तुम चुप रहो तुम्हारे भी घर में बेटियाँ हैं | एल जी बी टी के अधिकारों के पक्ष में लिखा तो कहा गया तुम गे हो ? किसानों /मजदूरों के पक्ष में आवाज उठायी तो कहा गया कि तुम ए सी में बैठकर मेहनतकशों की बात करने वाले कौन होते हो ?
उनका आशय यह है कि आप तभी किसी के पक्ष में बोल या लिख सकते हैं जब आप स्वयं वह हैं | अब ये समझ से बाहर है कि बच्चों के हक़ में लिखे तो बच्चे कैसे बनें ? औरतों के हक़ में लिखें तो औरत कैसे बने ? सरहद पर मर रहे सैनिक या मोब लिन्चिग में मारे जा रहे व्यक्ति के पक्ष में बोलें तो मर कैसे जाएँ और अगर मर भी जाएँ तो फिर बोलेंगे कैसे ?
लोगों के कुतर्कों का कोई जबाब नहीं हैं | कह रहे हैं कि समलैंगिकों को उत्पीड़न से सुरक्षित करने का फैसला देने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज समलैंगिक हैं | कल अगर वो किसी कथित आतंकवादी या नक्सली को आरोपों से बाइज्जत बरी कर देंगे तो यही लोग जजों को आतंकवादी और नक्सली बता सकते हैं | न्यायपालिका इनके अनुकूल फैसला दे तो बल्ले बल्ले है वरना वो देशद्रोही, धर्मद्रोही ,समाजद्रोही है| इसलिए उसके फैसले को कानून बनाकर पलट देना चाहिए | हम न्यायपालिका का सम्मान करते हुए भी नक्सली, असामाजिक ,देशद्रोही और मनोरोगी हैं| वे कानून और संविधान की धज्जियां उड़ाकर भी देशभक्त हैं? लोगों को जाति और धर्मों के आधार पर उत्पीड़ित करके भी सामाजिक हैं? मंदिरों और मदरसों में लड़के और लड़कियों का शारीरिक शोषण करके भी धार्मिक हैं ? बेकसूर आदमी और बेजुबान जानवरों का क़त्ल करके भी अहिंसक और दयालु हैं ? देश, धर्म, जाति ,भाषा, क्षेत्र ,वेश,खान पान को लेकर कुंठित ये लोग मनोरोगी नहीं हैं, हम मनोरोगी हैं | हम जो समाज में सबके लिए समता और सम्मान चाहते हैं | हम जो देश, धर्म, जाति ,भाषा, क्षेत्र ,वेश,खान पान को लेकर किसी से नफ़रत नहीं करते हैं | हम जो जियो और जीने दो के सिद्धांत में यकीन करते हैं| हम मनोरोगी हैं |
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें