जो सदियों से उत्पीड़ित, शोषित और दमित,
उनकी खुशियों का पर्व आज वे नाचें, कूदे हों हर्षित।
ये जो लठैत नैतिकता के, ये दीन धर्म के जो बकैत ,
समझाना छोड़े खुद समझें,वे आज समझ से हैं वंचित।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के तीन बड़े फैसले आये हैं जो प्रबुद्ध लोगों से लेकर सर्वसाधारण तक को प्रभावित करेंगे। पहला फैसला एस सी एस टी एक्ट के दुरूपयोग को रोकने के लिये एक्ट के इस्तेमाल में कुछ एहतियात बरतने के निर्देश देने के साथ साथ आरोपी को निचली अदालतों से भी जमानत प्राप्त करने देने से सम्बन्धित है।
दूसरा फैसला देश के छः बड़े प्रतिष्ठित बुद्धीजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भारत के प्रधान मंत्री की हत्या की कथित साजिश रचने और नक्सलवाद को बढावा देने के आरोप में जेल भेजने पर रोक से सम्बन्धित है, जिसमें कोर्ट ने सरकार से स्पष्टीकरण और साजिश के सबूत पेश करने के लिये कहा है और आगामी आदेश तक आरोपियों को उनके ही घर में नजरबन्द किया है।
तीसरा फैसला समलैन्गिकता को अपराध मानने वाली धारा तीन सौ सतहत्तर को सीमित कर समलैन्गिकता को अपराध मानने से मुक्त कर दिया है। यद्यपि इससे समलैन्गिकों को वैसे अधिकार नहीं मिले हैं जैसे दुनिया के ज्यादातर देशों में उन्हें प्राप्त हैं लेकिन इस फैसले से उन्हें अपराधी मानने की कानूनी बाध्यता और सामाजिक वर्जना से आजादी मिल जायेगी ऐसी आशा की जा सकती है। ये तीनों फैसलें स्वागत योग्य हैं लेकिन जो इनका स्वागत करेगा वो या तो मनुवादी कहा जायेगा या देशद्रोही या विकृत मानसिक रोगी। जबकि गौर से देखें तो ये पायेंगें कि वस्तुतः मनोरोगी,मनुवादी और देशद्रोही तो ये लोग स्वयं हैं जो कोरट के फैसलों का विरोध कर रहे है और किसी ना किसी कारण से देश के लोगों को आपस में लड़ाते रहते हैं । ये लोग समाज और देश को पीछे खींच ले जाना चाहते हैं। इसके लिये इन्होने माननीय उच्चतम न्यायालय के पहले फैसले को पलटकर तालिबानी कानून में बदल दिया है। जिसके अनुसार आरोप लगाने वाले की ही बात सच मानी जायेगी और आररोपी को अपनी सफाई का मौका दिये बगैर ही जेल जाना पड़ेगा ।आरोपी को जमानत भी छः महीने बाद हाईकोर्ट से ही मिल सकेगी। देखा इससेअच्छा कानून अगर दुनिया में कहीं हो तो उसे ढूँढकर लाओ भारत में लोकमत के लुटेरे उसे ही संसद में पास करा देंगे।
दूसरे फैसले को अपने हक में बदलने के लिये इन झूठे और लफ्फाज लुटेरों ने झूठ के पुल बाँधने शुरू कर दिये हैं जो कोर्ट के अन्दर सत्य की एक चोट पड़ते ही ढह जायेंगे। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है इनका बुद्धीजीवियों को मिथ्या आरोपित करने का दुष्प्रचार जोर शौर से चलता रहेगा।
तीसरा फैसला ऐसा आया है जिसने वामपन्थियो और दक्षिणपन्थियों, मौलानाओं और पण्डितों,आर्य समाजियों और सनातनियों मतलब तमाम तरह के हिन्दू मुसलमानों सिक्खों इसाईयो और स्वयं नग्नता के उपासक जैनियों यानि की सब कट्टरपन्थियों को अपने मतभेद भुलाकर एक होकर लड़ने के लिये खड़ा कर दिया है। ये सारे लोग शायद ही किसी एक मुद्दे पर ऐसे एकमत हुये हों जैसे समलैन्गिकों के निजता के अधिकार को मान्य किये जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ एकजुट हुये.हैं। सर्व समाज की ऐसी एकता को देखते हुये बहुत संभव है कि सरकार इस फैसले को भी रद्द करने का कानून संसद से पास करा दे। इसआशंका को इसलिये भी बल मिलता है क्यूँकि किसी भी पार्टी के किसी भी बड़े नेता ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का अभी तक स्वागत नहीं किया है। हाँ इस फैसले के विरोध में कई नेता और राजनितिक साधू सन्यासी मुल्ला मौलाना फूँ फा करने में लगे हैं। ये सब उन मुट्ठी भर लोगों के खिलाफ दाँत भींच रहे हैं जो मुस्कराते हुये जीना चाहते हैं डरते हुये या घुट घुटकर मरते हुये जीना नहीं चाहते हैं। जिनके जीने मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है और जो अपनी निजी जिन्दगी में किसी का हस्तक्षेप नहीं चाहते हैं। ये ना कोई वोट बैंक हैं ना इनका कोई मसीहा है ना इनकी कोई जात है ना इनका कोई मजहब है इनकी हिमायत करे तो कौन करे? ये वास्तविक दलित और अल्पसंख्यक है। लोकतंत्र की यही विशेषता है कि वह संख्याबल, धनबल या अन्य किसी भी प्रकार से कमजोर तबके को समानता और सुरक्षा प्रदान करता है। हमारी न्यायपालिका ने अपने ताजातरीन फैसलों से ऐसे लोकतंत्र की बुनियाद मजबूत की है और जो इन फैसलों का विरोध कर रहे हैं वो लोकतंत्र और मानवाधिकारों के शत्रु हैं। हमें अपने समाज में न्याय और समता के मूल्यों को जीवित रखना है तो लोकतंत्र के इन शत्रुओं से सावधान रहना होगा। आप न्यायालय के फैसले के हक में सीना तानकर खड़े रहिये भले ही ये आपकों देशद्रोही, धर्मद्रोही, पापी, नास्तिक, नक्सली मनोरोगी आदि कुछ भी कहें। ये समाज केवल न्यायधीशों के फैसले देने से न बदलेगा इसे बदलने के लिये हर उस आदमी को खड़ा होना होगा जो हिन्दूस्तान को अफगानिस्तान या पाकिस्तान बनते नहीं देखना चाहता है।
दूसरा फैसला देश के छः बड़े प्रतिष्ठित बुद्धीजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भारत के प्रधान मंत्री की हत्या की कथित साजिश रचने और नक्सलवाद को बढावा देने के आरोप में जेल भेजने पर रोक से सम्बन्धित है, जिसमें कोर्ट ने सरकार से स्पष्टीकरण और साजिश के सबूत पेश करने के लिये कहा है और आगामी आदेश तक आरोपियों को उनके ही घर में नजरबन्द किया है।
तीसरा फैसला समलैन्गिकता को अपराध मानने वाली धारा तीन सौ सतहत्तर को सीमित कर समलैन्गिकता को अपराध मानने से मुक्त कर दिया है। यद्यपि इससे समलैन्गिकों को वैसे अधिकार नहीं मिले हैं जैसे दुनिया के ज्यादातर देशों में उन्हें प्राप्त हैं लेकिन इस फैसले से उन्हें अपराधी मानने की कानूनी बाध्यता और सामाजिक वर्जना से आजादी मिल जायेगी ऐसी आशा की जा सकती है। ये तीनों फैसलें स्वागत योग्य हैं लेकिन जो इनका स्वागत करेगा वो या तो मनुवादी कहा जायेगा या देशद्रोही या विकृत मानसिक रोगी। जबकि गौर से देखें तो ये पायेंगें कि वस्तुतः मनोरोगी,मनुवादी और देशद्रोही तो ये लोग स्वयं हैं जो कोरट के फैसलों का विरोध कर रहे है और किसी ना किसी कारण से देश के लोगों को आपस में लड़ाते रहते हैं । ये लोग समाज और देश को पीछे खींच ले जाना चाहते हैं। इसके लिये इन्होने माननीय उच्चतम न्यायालय के पहले फैसले को पलटकर तालिबानी कानून में बदल दिया है। जिसके अनुसार आरोप लगाने वाले की ही बात सच मानी जायेगी और आररोपी को अपनी सफाई का मौका दिये बगैर ही जेल जाना पड़ेगा ।आरोपी को जमानत भी छः महीने बाद हाईकोर्ट से ही मिल सकेगी। देखा इससेअच्छा कानून अगर दुनिया में कहीं हो तो उसे ढूँढकर लाओ भारत में लोकमत के लुटेरे उसे ही संसद में पास करा देंगे।
दूसरे फैसले को अपने हक में बदलने के लिये इन झूठे और लफ्फाज लुटेरों ने झूठ के पुल बाँधने शुरू कर दिये हैं जो कोर्ट के अन्दर सत्य की एक चोट पड़ते ही ढह जायेंगे। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है इनका बुद्धीजीवियों को मिथ्या आरोपित करने का दुष्प्रचार जोर शौर से चलता रहेगा।
तीसरा फैसला ऐसा आया है जिसने वामपन्थियो और दक्षिणपन्थियों, मौलानाओं और पण्डितों,आर्य समाजियों और सनातनियों मतलब तमाम तरह के हिन्दू मुसलमानों सिक्खों इसाईयो और स्वयं नग्नता के उपासक जैनियों यानि की सब कट्टरपन्थियों को अपने मतभेद भुलाकर एक होकर लड़ने के लिये खड़ा कर दिया है। ये सारे लोग शायद ही किसी एक मुद्दे पर ऐसे एकमत हुये हों जैसे समलैन्गिकों के निजता के अधिकार को मान्य किये जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ एकजुट हुये.हैं। सर्व समाज की ऐसी एकता को देखते हुये बहुत संभव है कि सरकार इस फैसले को भी रद्द करने का कानून संसद से पास करा दे। इसआशंका को इसलिये भी बल मिलता है क्यूँकि किसी भी पार्टी के किसी भी बड़े नेता ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का अभी तक स्वागत नहीं किया है। हाँ इस फैसले के विरोध में कई नेता और राजनितिक साधू सन्यासी मुल्ला मौलाना फूँ फा करने में लगे हैं। ये सब उन मुट्ठी भर लोगों के खिलाफ दाँत भींच रहे हैं जो मुस्कराते हुये जीना चाहते हैं डरते हुये या घुट घुटकर मरते हुये जीना नहीं चाहते हैं। जिनके जीने मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है और जो अपनी निजी जिन्दगी में किसी का हस्तक्षेप नहीं चाहते हैं। ये ना कोई वोट बैंक हैं ना इनका कोई मसीहा है ना इनकी कोई जात है ना इनका कोई मजहब है इनकी हिमायत करे तो कौन करे? ये वास्तविक दलित और अल्पसंख्यक है। लोकतंत्र की यही विशेषता है कि वह संख्याबल, धनबल या अन्य किसी भी प्रकार से कमजोर तबके को समानता और सुरक्षा प्रदान करता है। हमारी न्यायपालिका ने अपने ताजातरीन फैसलों से ऐसे लोकतंत्र की बुनियाद मजबूत की है और जो इन फैसलों का विरोध कर रहे हैं वो लोकतंत्र और मानवाधिकारों के शत्रु हैं। हमें अपने समाज में न्याय और समता के मूल्यों को जीवित रखना है तो लोकतंत्र के इन शत्रुओं से सावधान रहना होगा। आप न्यायालय के फैसले के हक में सीना तानकर खड़े रहिये भले ही ये आपकों देशद्रोही, धर्मद्रोही, पापी, नास्तिक, नक्सली मनोरोगी आदि कुछ भी कहें। ये समाज केवल न्यायधीशों के फैसले देने से न बदलेगा इसे बदलने के लिये हर उस आदमी को खड़ा होना होगा जो हिन्दूस्तान को अफगानिस्तान या पाकिस्तान बनते नहीं देखना चाहता है।
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