गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

मेरे मन के गीत : 4- राजेंद्र राजन

 


  राजेंद्र राजन            


           एक 

मिले न बात और थी, मिले तो बात और है

इक आग है पवित्र सी, उस आग को टटोलिए

मिज़ाज ख़ुश्गवार है, के वक़्त की पुकार है

कि उम्र की बहार को, न संयमों से तोलिए


ये तेरे मेरे साथ है, ये रात बात सुन रही

किसी के सामने न यूँ दिलों के भेद खोलिए

तेरे भी होंठ चुप रहें, मेरे भी होंठ चुप रहें

जो कुछ भी बोलना है वो, नज़र-नज़र से बोलिए


उठा कर दम ठहर गया, अजीब से मकाम पर

नयन लजाए से किसी का पथ निहारने लगे

मदभरी उमंग के भी पंख फड़फड़ा उठे

तो सोए सोए अंगों को वसन उघाड़ने लगे


सन्त से समीर ने भी आयु भेद पा लिया

हुआ कि तन के साथ-साथ प्यार माँगने लगे

तपस्विनी हिना को भी शबाब इस कदर चढ़ा

कि होंठ दहके से पिया-पिया पुकारने लगे


उड़ सकूँ उमंग से जो अपने पंख खोलकर

मैं विश्व में वो खोया आसमान ढूँढ़ने चला

तय किया था हर डगर पे हम चलेंगे साथ-साथ

हर डगर पर स्वप्न के निशान ढूँढ़ने चला


उम्र जब निकल गई कि वक़्त को निगल गई

मैं ज़िन्दगी में प्यार का विधान ढूँढ़ने चला

हो चुका था जिस नगर से बेदख़ल तो देखिए

उसी नगर में छोटा-सा मकान ढूँढ़ने चला ।

            दो 

केवल दो गीत लिखे मैंने

इक गीत तुम्हारे मिलने का

इक गीत तुम्हारे खोने का।


सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों

नदियों-नदियों, लहरों-लहरों

विश्वास किए जो टूट गए

कितने ही साथी छूट गए

पर्वत रोए-सागर रोए

नयनों ने भी मोती खोए

सौगन्ध गुँथी सी अलकों में

गंगा-जमुना-सी पलकों में ।


केवल दो स्वप्न बुने मैंने

इक स्वप्न तुम्हारे जगने का

इक स्वप्न तुम्हारे सोने का


बचपन-बचपन, यौवन-यौवन

बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन

नीला अम्बर, श्यामल मेघा

किसने धरती का मन देखा

सबकी अपनी है मजबूरी

चाहत के भाग्य लिखी दूरी।

मरुथल-मरुथल, जीवन-जीवन

पतझर-पतझर, सावन-सावन

केवल दो रंग चुने मैंने

इक रंग तुम्हारे हंसने का

इक रंग तुम्हारे रोने का ।


केवल दो गीत लिखे मैंने

इक गीत तुम्हारे मिलने का

इक गीत तुम्हारे खोने का ।


          तीन 

मैं लिपटकर तुम्हें स्वप्न के गांव की

इक नदी में नहाता रहा रात भर

कोई था भी नहीं, ज़िन्दगी की जिसे

मैं कहानी सुनाता रहा रातभर ।


मैंने छू भर लिया, क्या गज़ब हो गया

मखमली जिस्म से उठ रहा था धुआँ

मन लगा तोड़ने तब सभी साँकलें

इक परिन्दे को ज्यों मिल गया आसमाँ

हो गया वृद्ध लाचार संयम विकल

चीख़कर चरमराता रहा रातभर ।


दो इकाई-इकाई गुणा हो गईं

धीरे-धीरे निलम्बित हुईं दूरियाँ

एक भी मेघ आकाश में था नहीं

किन्तु महसूस होती रहीं बिजलियाँ

थी अन्धेरों भरी रात छाई मगर

मैं दिवाली मनाता रहा रातभर ।


एक अपराध भी तप सरीखा हुआ

बँध गए हम किसी साज़ के तार से

दस दिशाएँ प्रणय गीत गाती रहीं

शब्द झरते रहे आँख के द्वार से

था अजब मदभरा एक वातावरण

मैं स्वयं को लुटाता रहा रातभर ।


0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें