शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

जन कवि बाबा नागार्जुन


 जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं 
  जन कवि हूँ मैं साफ कहूँगा क्यों हकलाऊं|
        
  जन कवि बाबा नागार्जुन की ये पंक्तियॉं उनके जीवन दर्शन, व्यक्तित्व एवं साहित्य का दर्पण है। अपने समय की हर  महत्वपूर्ण घ्टना पर तेज तर्रार कवितायें लिखने वाले क्रान्तिकारी कवि बाबा नागार्जुन एक ऐसी हरफनमौला शख्सियत थे जिन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं और तथा कई भाषाओं में लेखन कर्म के साथ साथ जनान्दोलनों में भी बढ चढकर भाग लिया और उनका नेतृत्व भी किया ।

        बाबा नागार्जुन का जन्म सन 1911 में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन बिहार के मधुबनी जिले के सतलखा ग्राम जो ननिहाल था, में हुआ था। सतलखा उनके पैतृक ग्राम तरौनी जिला दरभंगा के निकट ही है।उनका जन्म निम्न मध्यवर्गीय परिवार में  हुआ था। उनका बचपन घोर अभावों में बीता। वे अपने माता पिता की इकलौती सन्तान थे जो जीवित बचे । चार वर्ष की अल्पायु में ही उनकी मॉं मर गई ।तब उनकी बुआ ने उनका लालन पालन किया । 

      1925 में उन्होंने गौमैली प्राथमिक पाठशाला से प्रथमा और मध्यमा की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस विश्वविद्यालय में ग्रहण की और वहॉं से साहित्याचार्य की डिग्री प्राप्त की। इसके उपरान्त एक वर्ष कलकत्ता में रहकर काव्यतीर्थ की उपाधि प्राप्त की। वहीं वह वामपंथी विचारधारा के सम्पर्क में आये। सन् 1036 में श्रीलंका गये जहॉं उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कीऔर बैद्यनाथ नाम त्यागकर नागार्जुन नाम ग्रहण किया । बाद में उन्होंने श्रीलंका के किटीकेन विद्यालय में पाली भाषा का अध्यापन भी किया। 

    1930 में जब वह बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर वापिस स्वदेश लौटे तो उनके जाति भाई ब्राहमणों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया।बौद्ध धर्म ग्रहण कर सन्यासी बनने पर ससुराल वालों ने इनके पिता को कसूरवार ठहराया और हिदायत दी कि दामाद को वापस बुलायें नहीं तो जेल भिजवा देंगें। बाबा नागार्जुन ने ऐसी बातों की कभी परवाह नहीं की।राहुल सांस्कृतायन के बाद हिन्दी के सबसे बडे घुमक्कड साहित्यकार होने का गौरव भी बाबा नागार्जुन को ही प्राप्त है। पर अपनी माटी से लगाव के कारण वे बार बार घर वापिस लौट आते थे। 

   1939 में वे स्वामि सहजानन्द सरस्वती और सुभाषचन्द्र बोस के सम्पर्क में आये। छपरा में उमवारी में किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया। छपरा और हजारीबाग जेल में कारावास भोगने के तुरन्त बाद वे हिमालय तथा तिब्बत के जंगली इलाकों में भ्रमण के लिये निकल गये। 1941 में दूसरे किसान सभाई नेताओं के साथ भागलपुर केन्द्रीय कारागार में बन्द रहे। इसी दौरान वे गृहस्थाश्रम में वापिस लौट आये। 1948 में गॉंधीजी की हत्या पर लिखी गयी उनकी कविताओं के कारण ’ जिन्हें प्रतिबन्धित कर दिया गया- उन्हें कारावास का दण्ड मिला। कारण वही उनकी खरी बेलाग वाणी- जो मिश्री नहीं घोलती आग उगलती थी- उन्होंने साफ कहा-

जिस बर्बर ने किया तुम्हारा खून पिता
वह नहीं मराठा हिन्दु है         
वह नहीं मूर्ख या पागल है 
वह प्रहरी स्थिर स्वार्थों का 
वह जागरूक, वह सावधान, 
वह मानवता का महाशत्रु
वह हिरण्यकश्यपु,दशकंधर है,
वह सहस्त्रबाहु, वह मानवता के पूर्ण चन्द्र का सर्वग्राही महाशत्रु।

       नागार्जुन की पहली कविता लाहौर के विश्वबंधु साप्ताहिक में प्रकाशित हुई। पहला काव्य संग्रह युगधारा 1953 में छपा। नागार्जुन को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिये राजेन्द्र शिखर सम्मान, कबीर सम्मान,साहित्य अकादमी पुरस्कार से सममानित किया गया। उनकी मशहूर पुस्तक जमनिया का बाबा का 1979 में ही अमेरिका में अनुवाद होली मैन आफ जमनिया के नाम से प्रकाशित हो गया था । 

         नाबार्जुन ने ढक्कन मिसिर,बैद्यनाथ, वैदेह,यात्री आदि कई नामों से लिखा। पाली, प्राकृत, संस्कृत, मैथिली, बंग्ला,हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं के वे मर्मज्ञ थे तथा कई भाषाओं में उन्होंने साहित्य सृजन किया है।

    स्वभाव से फक्कड और अक्,खड बाबा नागार्जुन सच्चे अर्थों में जन कवि थे। उन्होंने कभी हिन्दी की संभ्रान्त साहित्यिक दुनियॉं की परवाह नहीं की और कभी यह मुद्रा भी नहीं अपनायी कि देखों मैं कितना बडा शहीद   हूँ  कि लात मार रहा   हूँ | वह बौद्ध भिक्षु भी रहे और कम्युनिस्ट प्रचारक भी, किसानों के आन्दोलन के साथ भी रहे  और जयप्रकाश नारायण के छात्र आन्दोलन के साथ भी। वह प्रत्येक आन्दोलन ओर नेता के तभी तक समर्थक और अनुयायी रहे जब तक वह जनहित में रहा । जहॉं उन्हें जगा कि जनता को बरगलाया जा रहा है देश को धोख दिया जा रहा है वह तुरन्त पलटकर नेतृत्व पर टूट पडे। इसका सबसे बडा उदाहरण है सन 1962 में चीनी आक्रमण के समय प्रतिबद्ध वामपंथी होते हुये भी उन्होंने कम्युनिस्ट नेताओं को उनकी चीनी भक्ति के लिये जमकर कोसा और स्वंय को धिक्कारने से भी नहीं हिचकिचाये।

सपने इन्कलाब के यहॉं वहॉं बो गया 
वो माओ कहॉं है वो माओ मर गया                                                 
ये माओ कौन है बेगाना है ये माओ
आओ इसको नफरत की थूकों में नहलाओ
आओ इसके खूनी दॉंत उखाड दें
आओ इसका जिन्दा ही जमीन में गाड दें।

यह केवल वक्ती जौश नहीं था कवि सचमुच होश में आ गया था तभी जो वह कहता है-

जी हॉं पेकिंग ही रहते थे कल तक मेरे नाना
जी हॉं अपनी माता को मैंने अबके पहचाना
जी हॉं कल नोचेंगें मुझको कम्युनिस्ट कठमुल्ले
जी हॉं लाल चीन के बुल्ले चाबेंगें रसगुल्ले।

  ये सच कहने और स्वीकारने का साहस नागार्जुन जैसा फक्कड और अक्खड ही कर सकता था जिनके दिल औ दिमाग दलों के पास बन्धक हों उनमें ये साहस कहॉं ? रूस और चीन में लाल क्रान्ति का प्रभाव सारे संसार के दबे कुचले राष्ट्रों पर बहुत गहरा पडा। विश्व साहित्य में प्रगतिशील विचारधरा का बोलबाला हो  गया। तमाम प्रगतिवादी कवियों की तरह नागार्जुन ने भी रूस और चीन की प्रशंसा में कवितायें लिखीं परन्तु अपनी माटी से जुडाव उनका कभी कम नहीं हुआ । जनता से गहरे लगाव और अपने स्वछन्द स्वभाव के कारण वे किसी दल या संगठन से बहुत दिनों मक जुडकर नहीं रह सके । जब जैसा अच्छा लगा वैसा ही कहा। नेहरू और इन्दिरा की जनहितकारी नीतियों की प्रशंसा की तो उनके गलत कामों के प्रति हमेशा ही सख्त रूख अख्तियार किया । 1974-75 में बिहार में काग्रेंसी कुशासन के खिलाफ सम्पूर्ण क्रान्ति का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस आन्दोलन के विरूद्ध थी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी आन्दोलन के पक्ष में। परन्तु एक सच्चा जनवादी कवि जनता का कवि इस जनज्वार से कैसा अछूता रह सकता था वे आन्दोलन में कूद पडे ओर जेल में बन्द रहे। आपातकाल के विरोध में लिखी गयी उनकी कवितायें बाद में खिचडी विप्लव  देखा हमने  कविता संग्रह में प्रकाशित हुई।ये कवितायें अपनी पैनी धार के लियेआज भी याद की जाती हैं। ऐसी ही एक बहुचर्चित कविता है-

इन्दु जी इन्दु जी क्या हुआ आपको
रानी महारानी आप                              
नबाबों की नानी आप
नफाखोर सेठों की अपनी सभी माई बाप
सुन रही सुन रही गिन रही गिन रही
हिटलर के घोडे की एक एक टाप को
छात्रों के खून का नशा चढा आपको।
  
   एक अन्य कविता में वे कहते हैं-

देखो यह बदरंग पहाडी गुफा सरीखा
किस चुडैल का मुह फैला  है
देशी तानाशाही का पूर्णावतार है
महा कुबेरों की रखैल है
यह  चुडैल है।

     एक और  कविता में वे कहते हैं-

जय हो जय हो हिटलर की नानी की जय हो
जय हो जय हो बाघों की नानी की जय हो।

        आपातकाल के दौरान जब वे जेल में बन्द थे उन्होंने आन्दोलन के असली प्रतिक्रियावादी चरित्र से परिचय प्राप्त किया और वे तुरन्त आन्दोलान  को धता बताते हुये जेल  बाहर आ गये। 
जहॉं उन्होंने शुरू में जयप्रकाश की प्रशंसा में कवितायें लिखीं वहीं बाद मे उनके विरोध में   खिचडी विप्लव  देखा हमने जैसी  कवितायें भी लिखीं। ऐसे थे बाबा नागार्जुन। सत्ता की जनविरोधी नीतियों का उन्होंने सदैव डटकर विरोध किया। भले बुरे किसी परिणाम की उन्होंने जरा भी परवाह नही की। जब इन्दिरा जी ने उन्हें उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिये पुरस्कृत किया तो पत्रकारों ने उनसे कहा- बाबा आपने तो सदैव इन्दिरा के विरोध में कवितायें लिखी हैं उनके हाथों पुरस्कार क्यों ले लिया? बाबा भडक उठे। बोले पुरस्कार क्या इन्दिरा के बाप का है? वह तो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिये था। सच को ऐसा बेलाग कहने का अन्दाज कबीर के बाद या तो निराला के पास था या नागार्जुन के । 
    बाबा नागार्जुन की सर्वाधिक लोकप्रिय कवितायें वह हैं जिनके सरल सहज रचाव के कारण भीतर की गहरी सामाजिक चिन्ता, प्रखर राजनीतिक   क चेतना,और निर्मम और निर्भय  आलोचना दृष्टि प्रकट हुई है। कवि ऐसी कविताओं में जहॉं धारधार व्यंग्य का प्रयोग करता है वहॉं प्रतिरोध का सौन्दर्य प्रस्फुटित होता है। इन कविताओं में शासन की बन्दूक, प्रेत का बयान,अकाल जैसी कवितायें प्रमुख हैं। अकाल का वर्णन करते हुये कवि कहजा है-

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास 
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास 
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त 
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद 
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद 
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद 
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद । 


   घर में अन्न के दाने आने के साथ ही परिवार के सदस्य ही नहीं और भी जीव जन्तुओं में उमंग आ गई। जनसाधारण की खुशहाली का अर्थ प्राणीमात्र की खुशहाली है। जन कवि नागार्जुन ने इसे कितने सहज ढंग से व्यक्त किया है।
      एक कवि, एक रचनाकार व एक सरल हृदय व्यक्ति के रूप में नागार्जुन समाज के हर कोने में विद्यमान रहे हैं। बेलछी मे तेरह दलितों की हत्या पर  हरिजन गाथा कविता यदि समाज में घटित सच्चाईयों से रूबरू कराती है तो बुनियादी शिक्षा व्यवस्था की वास्तविक अवस्था का बोध कराती है उनकी यह कविता-

घुन खाये शहतीरों पर की बारहखडी विधाता बॉंचें
फटी भीत है छत चूती है आले  पर बिस्तुईया नाचे
बरसा कर बेबस बच्चों पर मिनट मिनट में पॉंच तमाचे
इसी तरह से दुखरन मास्टर गढता है आदम के सॉंचे।

  जन समस्याओं का कोई भी रूप उनकी नजर से नहीं बचा जिस पर उन्होंने बेबाक टिप्पणी न की हो। जन समस्याओं को लेकर संघर्ष कर रहे नक्सलवादियों के प्रति वे गहरी सहानूभूति रखते थे। आपातकाल के दौरान जेल में बन्द नक्सलवादियों को उन्होंने करीब से देखा और समझा। उनकी एक कविता कब होगी उनकी दीवाली का एक अंश देखें-

उसका मुक्ति पर्व कब होगा कब होगी उनकी दीवाली
चमकेगी उसके ललाट पर कब ताजे कुंकुम की लाली
अरे  अरे छः वर्ष हो गये उसे मिलेगा कब छुटकारा
वो बन्दी है वो नक्सल है मन का तगडा तन का हारा
...            ....                         ...
लूट मचायी रेप किया है कत्ल किया है यह खूनी है
देखो फिर भी इन ससुरों की चर्चा कैसी दिन दूनी है
बाबा आप बडे भोले हो इनको दर्शन देने आये
ये तो इस सैन्ट्रल कारा में जान हमारी लेने आये

पता चला वे सात जने थे जाने कब से वहॉं पडे थे
सातो के सातों नक्सल थे अपने हक के लिये लडे थे
सातों के सातों चमार थे अति दरिद्र थे भूमिहीन थे 
करते थे मेहनत मजदूरी मालिक लौगों के अधीन थे

भूमिहरण बरदाश्त कर गये चुप्पी साधी मारपीट पर
गुस्सा तब भडका बहुओं की इज्जत लूटी जब घसीटकर
फिर तो वे सातों के सातों बने भेडिया बाघ हो गये
पुरखे तक धरती पर उतरे जन्म के जन्म के पाप धो गये।

नागार्जुन यदि व्यवस्था पर सूक्ष्म निगाह रखमे उसकी कमियॉं उजागर करते है तो उनका मैं भी इससे बच नहीं पाता है। स्वयं के बारे में वे कहते हैं-

आदरणीय
अब तो आप
पूर्णत: मुक्त जन हो
कम्पलीटली लिबरेटेड
जी हॉं कोई ससुरा
आपकी ......... नहीं
सकता , जी हॉं।

     गंवई ढंग, खरी खॉंटी बात,नागार्जुन की विशिष्ट पहचान है। उन्होंने काव्य ही नहीं गद्य में भी काफी कुछ लिखा है। निराला पर लिखा उनका जीवन परिचय साहित्य की बहुमूल्य निधि है। उसे पढने पर यह पता ही नहीं चलता की निराला और नागार्जुन मे कोई अन्तर है भी या नहीं।  रतिनाथ की चाची, बलचनामा, वरूण के बेटे आदि कई प्रसिद्ध उपन्यास उन्होंने साहित्य जगत को दिये हैं। 

       वैद्यनाथ मिश्र उर्फ नागार्जुन ने पुराण की, जातक की, महाभारत की , वाल्मीकी की कहानियॉं सुनाकर कथा खत्म होने के बाद गमछे में एक दिन की रोटी की बॉंधकर जीवन जीने से लेकर रेल के डिब्बों में अपनी कविता की कितबियॉं चार चार आने में आवाज लगाकर बेचने से तक किसी काम को करने में अपनी महानता को आडे नहीं आने दिया। नये कवियों लेखको को प्रोत्साहित करने के लिये वे काव्य शिविर लगाया करते थे। साहित्य में विपुल योगदान के बावजूद आलोचकों ने षडयंत्र पूर्वक चुप्पी साधें रखी, पर उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की। 60 वर्ष तक साहित्यिक दुनियॉ की उपेक्षा सहते रहने के बावजूद उनका रचनाकार जिन्दा रहा । कवि नागार्जुन ने कविता में रूप सम्बन्धी जितने प्रयोग किये वह उनमें से किसी एक कवि के पास नहीं जो कि तमाम तारसप्तकों आदि में शामिल कियेगये। प्रयोगवाद के दौर में नागार्जुन की गिनती कहीं नहीं की गई। आज प्रयोगवाद को कोई पूछता तक नहीं। वह इतिहास के कूडेदान में जा चुका है। जबकि नागार्जुन की जनवादी कविता लगातार कविता के केन्द्र में है। 

     नागार्जुन की वैचारिक यायावरी की कडी आलोचना की जाती रही है। लेकिन सच तो यह है कि तथाथित जनवादी झण्डाबरदार जनता से कटते चले गये और नागार्जुन की जनसाधारण में पैठ गहरी होती चली गयी। साहित्यकारो में प्रगतिशील और जनवादी का विवाद भी गहराया। उन्होंने कहा कि प्रगतिशील हो या जनवादी लेखक को सबसे पहले जमीन से जुडना चाहिये। रचनाकार निडर होकर अच्छे बुरे दोनों प्रकार के परिणामों को सहने की शक्ति अपने अन्दर विकसित करे तभी वह संघर्ष के लिये आगे आ सकेगा।नयी पीढी के लिये सदेंश था कि पीढा घिसता है तो पीढी बनती है। उनका उदघोष था-

होंगें दक्षिण होंगें वाम, हमको तो रोटी से काम।        

2 टिप्‍पणियां:

  1. अरे भाई तुम जलेस में कैसे हो तुम्हें तो प्रलेस में होना चाहिए।

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  2. जलेस प्रलेस की बात न करें | यह मशाल जलती रहे यही प्रयास है |

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