बुधवार, 2 नवंबर 2011

आरक्षण की सार्थकता


           बीसवीं शत्ताब्दी में दो बडे विचारक हुये हैं कार्ल मार्क्स और डॉ0 भीमराव अम्बेडकर। विश्व स्तर पर कार्ल मार्क्स ने  राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक,और साहित्यिक क्षेत्र में जो प्रभाव  है लगभग वही प्रभाव भारत में डॉं0 भीमराव अम्बेडकर के दर्शन से उत्पन्न हुआ है। कार्ल मार्क्स के मत में  समाज दो वर्गा में विभाजित है शोषित और शोषक।समाज में जो कुछ भी दुख दर्द है उसका जिम्मेदार शोषक पूजीपति वर्ग है तथा पूजींवादी व्यवस्था उत्पादन के संसाधनों को इस वर्ग के हाथ में देकर उत्पादक सर्वहारा श्रमिक वर्ग के उत्पीडन शोषण में सहायक बनती है |अतः व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना ही इसका एकमात्र हल है। सर्वहारा की तानाशाही का अर्थ किसी व्यक्ति या समूह की तानाशाही न था, जैसा कि तथाकथित साम्यवादी देशों में था| इससे तात्पर्य वास्तविक जनतंत्र था, जिसमें धनबल या बाहुबल के लिये कोई जगह नहीं होती तथा सर्वहारा के हित में स्वस्थ बहस और विकल्प चयन की बेरोक टोक छूट तो  होती है किन्तु व्यपस्था को उलटकर तानाशाही या पूजिशाही की स्थापना की रत्ती भर भी छूट नही होती। 
          भारतीय समाज की विशिष्ट परिस्थियों ने डॉ0 भीमराव अम्बेडकर जैसा प्रबुद्ध विचारक उत्पन्न किया| जिसने बताया  कि जब तक भारत की अछूत जातियों के साथ सवर्ण जातियों का भेदभाव समाप्त नहीं होता तब तक सामजिक समानता का होना असम्भव है तथा सामाजिक समानता के  बगैर आर्थिक समानता कोई मायने नहीं रखती है| सामाजिक समानता के इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिये उन्होंनें अछूत जातियों  के लिये पृथक निर्वाचन/दोहरी मतदान प्रणाली की मॉंग की, जिसमें केवल अछूत जाति के लौग ही अपने प्रतिनिधि का निर्वाचन करते । लेकिन राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी ने भारतीय  समाज के स्थायी विभाजन के इस खतरे को भॉंप लिया और इसके विरूद्ध आमरण अनशन कर डॉ0 अम्बेडकर को एक ऐसा समझौता करने के लिये विवश कर दिया जिससे अछूत जातियों की समस्याओं का कुछ हद तक समाधान हो सकता था। इस समझौते के अन्तर्गत जो इतिहास में पूना पैक्ट के नाम से प्रसिद्ध है, अछूत जनजाति एवं अनूसचित जाति के लिये आरक्षण का प्राविधान किया गया। 
          यह आरक्षण व्यवस्था दस वर्षा के लिये की गई और यह आशा की गई कि इस अवधि में भारतीय समाज में अपेक्षित परिवर्तन आ जायेगा। लेकिन इस तथाकथित लोकतंत्र में  हजारों साल की भारत की  समाजिक व्यवस्था और मानसिकता दस वर्षों में बदल जाती इसे एक हसीन सपने के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता।  हमारे नेताओं और जनता ने  15 अगस्त 1947 की रात को ऐसे बहुत से हसीन सपने देखे थे और दूसरे हसीन सपनों की तरह यह भी एक स्वप्न ही रहा, पूरी तरह साकार नहीं हुआ। इससे इतना जरूर हुआ कि दलित वर्गो की सदियों की दबी कुचली चाहत को परवाज मिल गयी और भ्रष्ट नेताओं और समाज के अन्य वगों को अपनी महत्वकांक्षा की पूर्ति हेतु एक हथियार मिल गया| जिसका बडे शातिर और निर्मम ढंग से इस्तेमाल कर सामाजिक समानता लाने के स्थान परअसमानता एवं अमानवीयता  की उस खाई को  चौडा करने का काम किया गया जो सदियों से भारत के मस्तक पर बदनुमा दाग की तरह है। 
    
          समाजिक समानता और दलितोत्थान का नारा देकर आरक्षण व्यवस्था बराबर दस-दस वर्षों के लिये बढायी जाती रही है और अब यह लगभग स्थायी कर दी गई है। लेकिन मजेदार बात ये है कि इससे सन्तुष्ट कोई नहीं है। जिनके लिये यह व्यवस्था की गई है वे इसे अपर्याप्त मानते हैं और इसका और अधिक विस्तार चाहते हैं। जो आरक्षण के विरोध में हैं उन्हें तो  लगता ही है जैसे उनका सब कुछ आरक्षण वाले लूट लिये जा रहे हैं |जबकि हकीकत यह है कि नई आर्थिक नीति के दौर में सरकार ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से हाथ खींचना शुरू कर दिया और सरकारी क्षेत्र को सीमित करते हुये आरक्षण को निरर्थक  बना दिया है। लेकिन सरकार की इस कुटिल नीति पर कोई सवाल नहीं उठाता है और आपस में सिर फुटव्वल जारी है। 
  मूल  प्रश्न अभी भी अपनी जगह त्यों का त्यों है कि क्या आरक्षण से सामाजिक समानता लायी जा सकती है? आज भी ऐसे उदाहरण हैं जब जातिगत आधार पर कमजोर ही नहीं उच्च  अधिकारी को भी अपमानित किया गया है। यहॉं तक कि दलित महिला मुख्यमंत्री को अभद्र जातिसूचक शब्दों द्वारा अपमानित किया गया। तब क्या आरक्षण को विफल मान लिया जाये? उसे रदद कर दिया जाये ?या उसका और विस्तार किया जाये?
    इस सवाल का कोई दो टूक जबाब देना खतरे से खाली नहीं है, किन्तु यह ऐसा उद्वेलित करने वाला प्रश्न है जिसे बहुत दिनों तक नजरअन्दाज करना सम्भव नहीं है और न ही इसके गोलमोल जबाब से अब कोई बहलने वाला है। अब वक्त आ गया है कि एक सामाजिक चिकित्सक की तरह आरक्षण व्यवस्था की  शल्य क्रिया करें और इस प्रश्न का समाधान खोजें। 
              सर्वप्रथम तो यह कहना फिजूल होगा कि आरक्षण का कोई लाभ नहीं है और जो चर्चित प्रकरण हैं वे उसी सामाजिक अवस्था के परिचायक हैं जो स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय समाज की थी। वस्तुत: ओछी मानसिकता की यह हरकतें तो उस  मरणासन्न अवस्था / मानसिकता के ऐसे ही उदाहरण हैं जैसे कोई मरता हुआ व्यक्ति अन्तिम सॉंसों की जोर आजमाईश कर रहा होता है, जिससे कुछ होने जाना वाला नहीं है और सब जानते हैं कि उसे मर ही जाना है। इसलिये उसको लेकर चिन्ता या बहस करना बहुत उपयुक्त नही होगा। 
          बहस का मुददा यह  कि यदि आरक्षण से कोई बडा परिवर्तन अब तक नहीं हुआ है तो वह आगे भी होगा या नहीं होगा ? जिस सामाजिक परिवर्तन के लिये आरक्षण का प्राविधान किया गया उसकी सीमा और विद्रूपता बहुत स्पष्ट रूप से सामने आ रही है। आरक्षण ने अनुसूचित जातियों और जन जातियों में एक मलाईदार तबका पैदा कर दिया है जो आरक्षण के समस्त लाभों को अपने सीमित दायरे में समेट लेता है। वैसे भी अनुसूचित जातियों में अधिकॉंशतः एक जाति विशेष को ही आरक्षण से लाभान्वित होता देखा जा रहा है| यह  डॉ0 अम्बेडकर की सोच के सर्वथा विपरीत है। अतः मलाईदार परत को आरक्षण से अलग हटाना तथा आरक्षण के अन्दर आरक्षण की व्यवस्था करना ज्यादा तर्कसंगत होगा। 


                      जहॉं तक उच्च शिक्षा के लिये यथेष्ट आर्थिक सामर्थ्य  की आवश्यकता का प्रश्न है उसका समाधान आर्थिक सहायता देकर किया जा सकता है। लेकिन इस आरक्षण व्यवस्था की विद्रूपतायें  इससे भी अधिक गहरी चिन्ता का विषय है। आरक्षण के लाभ से सम्पन्न और सशक्त वर्ग अपने आपको केवल आरक्षण का लाभ लेने के लिये ही अनुसूचित जाति का मानता  है,  स्वयं उसका सम्बन्ध और व्यवहार  सवर्ण,सामंती और पूंजीपति वर्गीय है। क्षेत्रीय चर्चित विधायकों एवं सॉंसदों का व्यवहार स्वजातीय भाईओं के साथ कैसा निर्मम है यह किसी से छिपा नहीं है। यह  सामाजिक समानता तो सिर्फ लुटेरों में खुद को शामिल करने तक सीमित हो गयी है, दलितोत्थान में कहॉं सहायक हुई है? 
              इसके अतिरिक्त यह भी देखा गया है कि आरक्षण से सशक्त हुये कुछ लौग सवर्ण जातियों के प्रति बदले की भावना से व्यवहार कर रहे हैं |यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे साम्प्रदायिक मानसिकता के लौग बाबर और औरगजेब का नाम लेकर मौका लगते ही नुरू और पीरू रिक्शा रेहडी वाले को मारने लूटने लगते हैं। क्या बाबर और औंरंगजेब के कारनामों के लिये नुरू और पीरू जैसे निर्दोष मेहनतकशों को सताना जायज है। इसका दण्ड तो उनके वास्तविक खानदानियों को भी देना न्यायोचित न होगा। ऐसा व्यवहार सब जगह और  सब तरह से निन्दनीय है क्योंकि यह समाज में कटुता के दुष्चक्र तो ला सकता है किन्तु कोई सार्थक परिवर्तन नहीं ला सकता है
   भारत में बहुस्तरीय जाति आधारित  समाज व्यवस्था है।  जिसमें अछूत जातियों का दर्द कुछ कम नहीं है किन्तु वह एक समान भी नही है।अनुसूचित जातियों में भी असमानता की सीढियॉं हैं । एक जाटव जाति के व्यक्ति का व्यवहार वाल्मिकी जाति के व्यक्ति के साथ वैसा ही छुआ छूत वाला होता है जैसा ब्राहमण या क्षत्रिय का उसके प्रति होता है। इसमें भी जो कुछ थोडा बहुत परिवर्तन आया है वह शिक्षा और राजनीतिक अधिकार से प्राप्त  आर्थिक विकास से ही सम्भव हुआ है। 
           स्वंतंत्रता के बाद  हुये विकास से यह आशा की जाती थी  कि जाति व्यवस्था कमजोर होगी किन्तु हम देखते हैं कि शिक्षित लौग जातिगत व्यवहार में और अधिक शातिर हो गये हैं।उदहारण के लिए समाज का अग्रिम दस्ता कहे जाने वाले शिक्षकों और अधिवक्ताओं में जातिवाद अपने नग्न रूप में मिलता है। राजनीति में इसके इस्तेमाल पर प्रश्न करना ही फिजूल है। सभी दल जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखकर ही अपना उम्मीदवार खडा करते हैं। डॉ0 अम्बेडकर की विचारधारा का वारिस होने का दावा करने  वाली पार्टी का गठन ही इस नारे बाजी के साथ हुआ है और उसने इसे सोशल इन्जिनियरिंग का नाम देकर राजनीति के सबसे बडे मान्य  सिद्धान्त की हैसियत  प्रदान की है। अब इससे कैसे सामाजिक समानता आयेगी ओर कैसे बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का सपना साकार होगा यह समझ में नहीं आता। इससे जातिवाद मजबूत ही हुआ है जबकि जरूरत जाति वयवस्था को खत्म करने की है। 
                        यह जातिवाद आसानी से खत्म हो सकता  है यदि सरकार कानून बनाकर जातिसूचक उपनाम के प्रयोग पर रोक लगा दे। इसमें सरकार का कुछ खर्च भी नहीं होता। लेकिन नहीं वह तो एक आवेदन पत्र लेने से भी पहले जाति प्रमाण पत्र की मॉंग करेगी | अब जाओ उसी भ्रष्ट व्यवस्था के पास अपनी जाति का प्रमाण पत्र लेने और फिर सारी उम्र उसे माथे से चिपकाये घूमते रहो। दूबे जी तो पहले से ही अपनी उच्च जाति का परिचायक तिलक मस्तक पर साइनबोर्ड की तरह लगाये हैं। पर वह भी लिखेंगें द्विवेदी हैं कि चतुर्वेदी। चाहे पूरे खानदान ने वेद की शक्ल भी न देखी हो, पर इससे क्या? हैं तो जन्मजात पण्डितजी।
            टर्की मे कमालपाशा एक झटके में लौगों के सिर से फैज टोपी उतार देता है और लोगों की  दाढी मूड देता है लेकिन  हमारे देश मे भगवा चोले और लम्बे  तिलक को देखते ही सरकार दण्डवत हो जाती है। कैसे आयेगी समाजिक समानता जब शंकराचार्यों और इमाम बुखारियों की चढी त्यौरी से सरकारें डरती हों।  यह समानता तो तब आयेगी न जब हमारे कर्णधारों का मन साफ होगा। देश का सबसे ज्यादा प्रगतिशील और जिम्मेदार नेहरू परिवार जो अन्तरधार्मिक और अन्तरराष्ट्रीय पारिवारिक सम्बन्धों का एक आदर्श उदाहरण है उसका युगपुरूष भी अपने आपको पण्डित से सम्बोधित करता था | राजनीति में अचानक एक ताजी हवा के झोंके के समान आने वाला भद्र पुरुष राजीव गांधी भी माथे पर तिलक लगाकर जनता के सामने आता था। ये व्यक्तित्व किस सोच के परिचायक हैं। हम कैसे इन्हें आधुनिक और लोकतांत्रिक मान लें जबकि इनके अन्दर वही वर्णवादी पुरोहित छुपा है|  ये उस व्यक्तित्व को ओढकर जनता का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं। 
      अनुसचित जाति की स्वयं को सवर्ण जाति के समकक्ष रखने की दमित आकांक्षा भी कम चिन्तनीय नहीं है। जब तक इसी बात की लडाई रहेगी कि अछूत शिवलिंग पर जल कैसे चढा सकता है? तब तक किसी समानता की बात करना बेकार है। क्या अब तक शिवलिंग पर जल चढाये बगैर काम नहीं चल रहा था? क्या कठौति में गंगा की बात फिजूल थी?और जो लौग सदियों से जल चढाते आ रहे हैं वे किस दुर्दशा को पहुच गये हैं क्या यह भी बताना होगा? क्या यह भी बताना होगा कि सूर्य की ओर पीठ करके जल देने वाले गुरू नानक के अनुयायी सिख समाज ने बगैर किसी की बैशाखी के कैसे स्वयं को शक्तिशाली बनाया है।  
   अन्त में पुनः विषय की ओर आते हैं कि क्या आरक्षण से सामाजिक समानता आ सकती है और इसका रूप क्या हो? जैसा कि उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था से उसे अपनाने का उददेश्य पूरा होने वाला नही है। अनुसूचित जातियों का जिस सीमा तक आर्थिक विकास हुआ है उस सीमा तक सामाजिक समानता भी आयी है| लेकिन टोने टोटके या गंडे ताबीज वाले इस इलाज से समाज में कोई सार्थक परिवर्तन होने वाला नही है। इससे कुछ लोगों के जीवन मेंअप्रत्याशित  सम्पन्नता जरुर  आयी है किन्तु  जनसाधारण का जीवन विकट समस्याओं से अभी भी घिरा हुआ है | इस  स्तिथि को कैसे सहन किया जा सकता है| हमें  समाज में न खाईयॉं चाहियें और न एवरेस्ट शिखर। यहीं पर कार्ल मार्क्स याद आता है जो कहता है कि शोषित वर्ग का राजसत्ता पर कब्जा और शोषक पूजीपति वर्ग का खात्मा ही मानवता के हित में है। जिस दिन वंचित समाज के लौग यह समझ लेंगें उस दिन वे किसी से आरक्षण  मॉंगने नहीं जायेंगें वरन आरक्षण देने वाले होंगें। वैसे तब  किसी को आरक्षण की जरूरत भी नहीं रहेगी।    
                                                                                                                            -अमरनाथ 'मधुर'

7 टिप्‍पणियां:

  1. जिन पर दायित्व था उन बाम-पंथियों ने भी तो पुरोहितवाद की व्याख्याओं को सही मान कर उन्हे 'धर्म' मान लिया और धर्म का विरोध करना जारी रखा जिससे पुरोहित्वाड़ियों को अपनी मन-मानी व्याख्याएँ प्रस्तुत करने की छूट मिली है।
    व्यक्तिगत तौर पर 'क्रांतिस्वर'के माध्यम से मै पोंगापंथ,ढोंग और पाखंड पर प्रहार करता हूँ तो सांप्रदायिक तत्व तो तिलमिलाते ही हैं,साथ मे बाम-पंथी भी प्रहार करते हैं। यदि वास्तव मे असमानता को दूर करके साम्यवादी व्यवस्था लाना चाहते हैं तो पोंगापंथ और पुरोहित का विरोध करने हेतु 'धर्म' की वास्तविक व्याख्या जनता के समक्ष प्रस्तुत करनी ही होगी जैसे मै करता हूँ। मेरा विरोध करने की बजाए बाम-पंथियों को तो सहयोग करना ही चाहिए।

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  2. धर्म के रूढ़ अर्थ में ही धर्म की आलोचना की जाती है | जिसे आप धर्म का मूल रूप कहते हैं वह तो मानवता है, दायित्व है, कर्तव्य है, परोपकार है| उससे किसी का क्या विरोध हो सकता है | लेकिन आत्मा परमारमा वाली अवधारण| से सहमत होना मुश्किल है |

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  3. Musafir Baitha
    साहब आपने भींगा कर जूता मरना चाहा है......संवैधानिक आरक्षण से यथोचित लाभ न होने का कारण इसके लागू होने में दोष है न कि खुद आरक्षण......आप गांव-समाज में घूमिये, आरक्षण के बेहिसाब लाभ का पता चाल जायेगा....

    ऐसे सीधे समझ में नहीं आता है, तो आपके पास जाकर ही समझाता हूँ....सवर्णों को मिले संस्कारिक-पारम्परिक आरक्षण का कमाल देख ही रहे हैं.....धुर से धुर क्रांतिकारी, प्रगतिशील और वामपंथी गैर-शूद्र भी ब्राह्मणों को मिले पुजाई-पुरोहिती में जातीय-आरक्षण का सीधा या अन्दोलानात्मक विरोध नहीं कर रहा पर....पर संवैधानिक आरक्षण की नुक्ताचीनी जरूर करता है...क्यों?

    ब्राह्मण फ़िल्मकार प्रकाश झा और सवर्ण अमिताभ बच्चन को भी आरक्षण से परेशानी है और यह उसे बहस की चीज़ लगता है....बहस कराया भी हमनाम फिल्म बनाकर.......पर इन ससुरों को फ़िल्मी दुनिया में व्याप्त भाई-भतीजावाद-जातिवाद-वंशवाद से कोई परेशानी नहीं है, क्यों?

    जो आरक्षण का विरोध मीठी चाशनी डालकर करता है वह दरअसल और अधिक शातिर सवर्ण है........
    madhur
    आपकी तल्खी समझ में आती है लेकिन हमारी नीयत पर शक न करें | अनुसूचित जाति सहित सभी गरीबों का हम मान सम्मान और उत्थान चाहते हैं | पर आप सहमत होंगें कि अंतत गरीब और अमीर दूसरे शब्दों में शोषित और शोषक दो वर्ग ही होंगे जिनमें से किसी एक को चुनना होगा | मैं शोषित के साथ हूँ साथी आप किधर हैं ?

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  4. Lalit Chaudhary · 2 mutual friends
    aarakshan hona chahiye ya nahi ye to mudda hai hi.....lekin mudda ye bhi hona chahiye k skill wale pesho me arakshan hona chahiye ya nahi jaise Dr.,Er., teacher etc

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  5. स्किल की जरुरत सब पेशों में होती है डॉक्टर,इंजीनियर जैसे पेशे जो विशिष्ट प्रतिभा वाले माने जाते हैं उसकी तैयारी के लिये सबको मुफ्त सुविधाएं मिलनी चाहिये जिसकी रूचि हो वो उधर चला जाए |ये सोचना गलत है की आरक्षण के बल पर कोई डाक्टर या इंजीनियर बन सकता है | बहुत से लोग हैं जो सब सुविधा होते हुए भी कोई डाक्टर या इंजीनियर नहीं बने साहित्य या कला जगत में गए |

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  6. Navin Lohani aapke lekh main mudde ko theek pakada gaya, badhai
    November 21 at 7:50pm · Lik

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  7. Navin Lohani
    namskar
    aapka aalekh achha laga, ham sab log isee desh ke hain, isliye har neeti se prabhavit hote hain

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