गुरुवार, 24 नवंबर 2011

बाघखोर आदमी -निर्मल गुप्त



बाघखोर आदमी 

जंगल सिमटते जा रहे हैं

घटती जा रही है

विडालवंशिओं की जनसंख्या

भौतिकता की निरापद मचानों पर

आसीन लोग

कर रहे हैं स्यापा

छाती पीट-पीट कर

हाय बाघ, हाय बाघ।



हे बाघ ! तुम्हारे यूँ मार दिए जाने पर

दुखी तो हम भी हैं

लेकिन उन वानवासिओं का क्या

जिनका कभी भूख तो कभी कुपोषण

कभी प्राकर्तिक आपदा

कभी-कभी किसी आदमखोर बाघ

उनसे बचे तो

बाघखोर आदमी के हाथ

बेमौत मारा जाना तो तय ही है।



चिकने चुपड़े चेहरे वाले

जंगल विरोधी लोग

गोलबंद हैं सजधज के

बहा रहे हैं

बाघों के लिए नौ-नौ आँसू।



बस बचा रहे मासूमियत का

कोरपोरेटीय मुखोटा

बाघ बचें या मरें वनवासी

इससे क्या?
                                            -निर्मल गुप्त 

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