बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

रविदास शुभ नाम हमारा


   
         सातवीं शत्ताब्दी के उत्तरार्द्व से सोलहवीं शताब्दी तक भारत की राजनीतिक एवं सामाजिक दशा बडी उथल पुथल वाली रही है। भारत छोटे छोटे रजवाडों में बॅंटा था जो आपस में लडते रहते थे । उसी समय बाहर से विदेशी हमलावर आने शुरू हो गये जिन्होंने देश में बडी लूटमार की। ये हमलावर ज्यादातर लूटमार करके वापिस अपने देश लौट जाते थे। किन्तु मोहम्मद गौरी ने भारत में अपना राज्य कायम किया। बाद के मुस्लिम हमलावरों से दिल्ली के मुसलमान बादशाहों की लडाई हुई और उनमें से एक मुगल सम्राट बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी। उसके द्वारा स्थापित साम्राज्य उसके योग्य वंशधरों द्वारा अग्रेंजों के आगमन तक कायम रहा।
     भारत में मुसलमानों के आगमन के बडे दूरगामी परिणाम हुये। उनसे पहले जो भी जाति या कबीले भारत में आये वे सब हिन्दु धर्म के महासागर में समा गये । किन्तु मुसलमानों के पास अपने इस्लाम धर्म को लेकर ऐसा अटूट विश्वास था कि उन्होंने किसी भी तरह अपने धर्म का परित्याग नहीं किया। उनमें अपने धर्म को लेकर ऐसा जौश था कि अन्य धर्मावलम्बियों को भी किसी न किसी प्रकार अपने धर्म में शामिल करना वे अपना धार्मिक कर्त्तव्य मानते थे तथा इसके लिये हर स्तर पर बराबर प्रयत्नशील रहे। जहॉं अनेक नबाबों बादशाहों ने जबरन धर्म परिवर्तन कराया वहीं बहुत सारे लौग इस्लाम धर्म की अच्छाईयों से प्रभावित होकर मुसलमान बन गये । हिन्दु राजकीय आश्रय और सुरक्षा से वचिंत हो गये थे और उन्होंने धार्मिक कर्मकाण्ड में कटटरता
और छुआछूत को अपनाकर अपने और अपने धर्म को सुरक्षित करने का प्रयत्न किया। ऐसे समय में जब समाज में घोर निराशा और भय का वातावरण फैल रहा था और कहीं से अपने कष्टों के छुटकारे की कोई राह दिखायी नहीं देती थी तब भक्त और सन्त साधको ने जनता को ढाढस बंधाने का कार्य किया । जनता राम और कृष्ण की भक्ति में अपनी मुक्ति की राह खोजने लगी।यद्यपि यह जीवन संग्राम से पलायन जैसा था परन्तु
जनमानस के टूटते विश्वास को इससे बडा सहारा मिला। उन्हें अपने को हेय समझने की भावना से मुक्ति मिली और उनमें इस्लाम के अनुयायिओं से श्रेष्ठता का अहंकार जाग्रत हुआ।लेकिन समाज के निम्नवर्ग को जो मुसलमानों के आगमन से पहले से ही सवर्ण हिन्दुओं से काफी पीडित था सवर्ण हिन्दुओं के इस परिवर्तन से कोई लाभ न हुआ। वे जहॉं पहले हिन्दु वर्ण व्यवस्था से पीडित थे वहीं अब मुस्लिम शासन के दमनचक्र से पिसने लगे।  कुछ लौगों द्वारा धर्म परिवर्तन से भी उनकी सामाजिक दशा में कोई परिवर्तन न हुआ।मुस्लिम शासक वर्ग का व्यवहार सवर्ण हिन्दुओं से किसी प्रकार भिन्न न था। ऐसे सकं्रमण काल में सूफी और सन्त साधको और समाज सुधारकों ने सामाजिक गतिरोध को तोडते हुये नये मूल्यों और मानको के साथ समाज के
पथप्रदर्शक का कार्य किया। इन्होंने जनसाधारण को मन्दिर मस्जिद, पूजा पाठ की निर्थकताको समझाया तथा सामाजिक  एवं धार्मिक कुरीतियों में सुधार पर बल दिया।
 प्रतिरोध की यह ऑंधी इतने जोरों से उठी कि धार्मिक आडम्बरों के सारे बॉंध बह गये। इन सन्त एवं सूफी साधको एवं कवियों में कबीर, नानक, तुकाराम, रैदास, मलूकदास, दरिया सहाब,धन्ना, जायसी, मंझन आदि प्रमुख हैं। संतशिरोमणि कबीर इस प्रतिरोध के पुरोधा थे। वे पण्डित और मुल्ला को एक सॉंस में ललकारते थे।
उन्होंने अपनी जिन्दगी में धर्म के धन्धेबाजों और सडे गले विश्वासों की कभी परवाह नहीं की। संत रैदास उसी धारा के सौम्य साधक थे। वे खण्डन मण्डन के चक्कर में ज्यादा नहीं पडे पर अपनी वाणी और आचरण से उन्होंने कर्मशील और सरल जीवन को ही ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग बताया। उनका जन्म माघ मास की पूर्णिमा दिन रविवार को काशी में हुआ था। यद्यपि कुछ लौग उन्हें राजस्थान में जनमा भी मानते हैं किन्तु अधिक विश्वास उनके काशी में जन्म पर ही किया जाता है।उन्होंने कहा भी है -
           
            काशी ढिग मांडुर स्थाना,शूद्र वरण करत गुजराना। 
            मांडुर नगर लीन अवतारा,रविदास शुभनाम हमारा।

     इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उनका जन्म शूद्र वर्ण में हुआ था। वे कहते
हैं-

              मेरी जात कमीनी, पांति कमीनी, ओछा जन्म हमारा। 
             तुम सरनागत राजा रामचन्द कवि रविदास चमारा। 
        
       उन्होंने कुछ भी छिपाया नहीं हैं साफ साफ कहा है कि मैं तो जात का कमीन हूँ  कमीनों में रहता हूँ राजा रामचन्द मैं तुम्हारी शरणगत हूँ। सन्त रैदास का राम भी वही राम है जो कबीर का है। कहा जाता है कि दोनों ही रामानन्द स्वामि के शिष्य थे जो राम की भक्ति का प्रचार करते थे। परन्तु दोनों ही शिष्य भक्ति की उस भावना को गुरू के दिखाये रास्ते से बहुत आगे वहॉं ले गये जहॉं से निर्गुण भक्ति कि वह धारा बही जिसमें दशरथ सुत राम कण कण में व्यापै राम में बदल गया।
     सन्त रैदास पेशे से चर्मकार थे। जूते बनाना उनका व्यवसाय था। कहते हैं वे अपने काम में कुशल नहीं थे। जूते बनाने से ज्यादा उनका ध्यान साधुओं की संगत और ज्ञानचर्चा में रहता था। उनकी इस प्रबृत्ति को देखकर उनके पिता ने उन्हें अलग कर दिया। अब तो जैसे सन्त को मुक्ति मिल गई। वे पूर्ण तन्मयता से ईश्वर की
भक्ति करते हुये अपने व्यवसाय को करने लगे। धीरे धीरे उनकी ख्याति फैलने लगी।
       संत कबीर ने उन्हें बडा ज्ञानी करार दिया। कबीर की तरह उन्होंने भी अपने काव्य में अपने व्यवसाय से उत्तम व्यंजना हैं । एक जगह वे कहते हैं कि लौग उनसे जूते गठवाना चाहते हैं। मैं जूते गॉंठना नहीं जानता। 'जहॉं लौग जूते गॉंठकर पहुचे हैं वहॉं तो बिना जूते गॉंठे ही पहुच गया'।

चमरन गांठि न जानहि लौग, गठावें पनही।
आर नहीं जिहि तोपउ, नहीं रांपी ठांउ तोपउ।
लो गांठ गांठ खरा बिगूचा,हउ बिन गांठे जाम पहुंचा।
रविदास जपै रामनामा, मोहिं जम तिउ नहिं कामा।

     सन्त रविदास मीरा के गुरू थे। मीरा ने गुरू मिलिया रैदाजी दीन्हीं ज्ञानकी गठरी  कहकर रैदास जी के ज्ञानी होने को नमन किया है।
              रैदास शुद्ध सरल जीवन के हिमायती थे और सदैव सदाचरण पर जोर देते थे। वे सबको माया मोह से दूर रहने को कहते। वे कहते थे कि जो माया के चक्कर में पडकर गलत काम करेगा उसे उसका हिसाब देना पडेगा। वे कहते है कि परमात्मा जब तेरे दुष्कर्मों पर कुपित होगा तो तू ऑंख ऑंख भर भर के देखेगा पर तेरी कोई सहायता न करेगा ।

      क्या तैं खर्चा क्या तै खाया, चल दल हाल दिवान बुलाया,
      सहाब गांगी लेखा लेखी , भीड पडै तू भर भर देखी।
 
     कबीर ने जिस तरह ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया कहकर निस्पृह जीवन जिया वैसे ही सन्त रैदास ने भी जिया था। उन्होंने  कहा है कि उन्होंने सारे जंजालों से दूर रहकर जीवन जिया है उन्हें ईश्वर कोई डण्ड नहीं दे सकेगां

        मोहि जग डंड न लागइ, तजीबे सरब जंजाल।
        अपनी आप साखि नहीं दूसरे जानैं जानन हारा।  

        वे कहते हैं इसीलिये मानस मन्दिर में धूपबत्ती जलाओ और प्रेम की माला चढाओं--

         पूजा अर्चा अहि न तेरी कह रैदास कौन गति मोरी।
        मनसा मन्दिर धुप धुपाइये, प्रूम प्रीति की माल चढाईये।

सन्त वाह्य आडम्बर के घोर विरोधी थे। वे कहते हैं

         भेष लिया पर भेद न जान्यो, अमृत लई विषम सू सान्यो।
        तिलक दियो पै तपन न जाई, माला पहिरी घनेरी लाई।
 
       उनके समय में तरह तरह के सम्प्रदाय थे कोई लम्बे बाल बढाये था। कोई सिर मुंडाये था, कोई पीले कपडे पहनता था, कोई लाल कपडे  पहनता था, कोई नंगा रहता था ,कोई आग में धूप में तपता था। इन सन्तों की तरह रैदास जी ने भी इनका कडा विरोध किया।  वे कहते हैं-

            कहा भया जे मूंड मुडाये बहु तीरथ व्रत कीन्हे। 
           कहा भयो नाचे अरू गाये, कहा भयो तप कीन्हो।  
     
     वे कहते हैं- सन्त ही संगत ,सन्त कथारस, सन्त प्रेम मोहि दीजै।   वे हिन्दु मुस्लिम की एकता प्रबल समर्थक थे । हिन्दु मुस्लिम के सॉंस्कृतिक संघर्ष को वो अच्छा नहीं समझते थे। उन्होने दोनों धर्मो में एक इष्ट की उपासना की समानता मानकर पारस्परिक सौहार्द का सन्देश दिया। वे कहते हैं-

          कृष्ण करीम ,राम हरि राघव जब लगि एक न येषा।          
         वेद कतेवःकुरान पुरानन सहज एक करि भेषा।
  सन्त रैदास के काव्यगत सौन्दर्य भी अनुपम है। एक स्थल पर ब्रह्म की तुलना में जगत की अस्थ्रिता एवं नश्वरता की उन्होंने बडी सुन्दर प्रतीकामतकता  दी हैं । वे कहते हैं-
 
             जो हम बॉधें मोह पाश, हम प्रेम बंधनि तुम बॉंधे।
            अपने छूटन की जतन करो हम छूटे तुम आराधे।
   
             उनके सीधे और सरल स्वभाव निम्न काव्यात्मक अभिव्यक्ति में मिलता है जिसमें वे स्वयं को लघु और परमात्मा को महान बताते हुये नई उपमायें गढते हैं।
       
           तुम चन्दन हम इरंड बापुरे, संग तुम्हारे बासा। 
           नीच वृत्ति से उंच  भये हैं, गंध सुगंध निवासा।
 
        सन्त रैदास हमारे देश के उन महापुरूषों की परम्परा में आते हैं जिन्होंने गर्त में डूबे समाज को उबारने का कार्य किया। ऐसे महापुरूष सदैव प्रातः स्मरण्ीय है। वह समाज जो अपने महापुरूषों को याद नहीं करता और न ही उनके बताये रास्ते पर चलता है कभी प्रगति नहीं कर सकता ।
                                      -- अमरनाथ ‘मधुर‘
                                               23/ए-1न्यू प्रभात नगर
                                                मेरठ

1 टिप्पणी:

  1. धर्म के आधुनिकीकरण के पुरोधा .. श्रेष्ठ विचारक .. वर्तमान समय में भी प्रासंगिक|
    श्रद्धान्शु शेखर

    जवाब देंहटाएं