शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

सतपाल 'ख्याल' की ग़ज़लें और परिचय


परिचय:
1974 को तलवाड़ा जिला होशियार पुर (पंजाब) में जन्में सतपाल 'ख़्याल' अपनी मूल प्रकृति से शायर हैं. 17—18 वर्ष की उम्र से शे'र कहते आए हैं , लेकिन कहते कम और सुनते ज़्यादा हैं.यही वजह है कि आहिस्ता—आहिस्ता इनकी ग़ज़लों का अपना एक अलग अंदाज़ दिखाई देने लगा है. पिछले कुछ वर्षों से ग़ज़ल के गंभीर विद्यार्थी के रूप में जो ज्ञान इन्होंने अर्जित किया है, उसे इनकी ग़ज़लों में देखा जा सकता है. शेर कहते हैं लेकिन तथाकथित नक़्क़ादों की तरह उधार माँग कर ओढ़े हुए उस्तादाना अंदाज़ में जगह—जगह अजीब—ओ—गरीब टिप्प्णियाँ नहीं करते फिरते. पिछले कई महीनों से कई रचनाकारों को आज की ग़ज़ल के माध्यम से आपके सामने प्रस्तुत करने वाले सतपाल 'ख़्याल' और इनकी ग़ज़लों को आपके लिए प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है. —द्विजेन्द्र 'द्विज
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मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी
कि मैंने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी|

न अपनों ने कभी चाहा यही तकलीफ़ दोनों की
हैं बेबस एक ही जैसी कभी उर्दू कभी हिंदी|

अदब को तो अदब रखते ज़बानों पर सियासत क्यों
सियासत ने मगर बाँटी कभी उर्दू कभी हिंदी|

न लफ़्जों का वतन कोई न है मज़हब कोई इनका
ये कहते हैं फ़कत दिल की कभी उर्दू कभी हिंदी|

महब्बत है वतन उसका , ज़बाँ उसकी महब्बत है
ख़्याल उसने ग़ज़ल कह दी कभी उर्दू कभी हिंदी|



میں شاعر ہوں ذبا میری کبھی اردو کبھی ہندی

کہ میں نے شوق سے بولی کبھی اردو کبھی ہندی

نہ اپنوں نے کبھی چاہا یہی تکلیف دونوں کی
ہیں بے بس ایک ہی جیسی کبھی اردو کبھی ہندی

ادب کو تو ادب رکھتے زبانوں پر سیاست کیوں
سیاست نے مگر باٹي کبھی اردو کبھی ہندی

نہ لفجو کا وطن کوئی نہ ہے مذہب کوئی ان کا
یہ کہتے ہیں فكت دل کی کبھی اردو کبھی ہندی

مهببت ہے وطن اس کا، ذبا اس کی مهببت ہے

خیال اس نے غزل کہہ دی کبھی اردو کبھی ہندی.


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कौंध रहे हैं कितने ही आघात हमारी यादों में
और नहीं अब कोई भी सौगात हमारी यादों में |

वो शतरंज जमा बैठे हैं हर घर के दरवाज़े पर
शह उनकी थी , अपनी तो है मात हमारी यादों में|

ताजमहल को लेकर वो मुमताज़ की बातें करते हैं
लहराते हैं कारीगरों के हाथ हमारी यादों में |

घर के सुंदर—स्वप्न सँजो कर, हम भी कुछ पल सो जाते
ऐसी भी तो कोई नहीं है रात हमारी यादों में |

धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो ‘हिम—पात’ हमारी यादों में |

जलता रेगिस्तान सफ़र है, पग—पग पर है तन्हाई
सन्नाटों की महफ़िल—सी, हर बात हमारी यादों में |

सह जाने का, चुप रहने का, मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नही है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में |

सच को सच कहना था जिनको आख़िर तक सच कहना था
कौंधे हैं ‘ द्विज ,’ वो बनकर ‘ सुकरात ’ हमारी यादों में|




گونج رہے ہیں کتنے ہی مظالم ہماری یادوں میں
اور نہیں اب کوئی بھی سوغات ہماری یادوں میں


وہ شطرنج جمع بیٹھے ہیں ہر گھر کے دروازے پر
شہ ان کی تھی، اپنی تو ہے شکست ہماری یادوں میں


تاج محل کو لے کر وہ ممتاز کی باتیں کرتے ہیں
لہراتے ہیں کاریگروں کے ہاتھ ہماری یادوں میں


گھر کے خوبصورت - خواب محفوظ کر، ہم بھی کچھ پل سو جاتے
ایسی بھی تو کوئی نہیں ہے رات ہماری یادوں میں


دھوپ خیالوں کی کھلتے ہی وہ بھی آخر پگھلےگے
بیٹھ گئے ہیں جم کر جو 'هم - پات' ہماری یادوں میں


جلتا صحرا سفر ہے، قدم - قدم پر ہے تنہائی
سنناٹو کی محفل - سی، ہر بات ہماری یادوں میں


سہ جانے کا، چپ رہنے کا، مطلب یہ بالکل بھی نہیں
پلتا نہیں ہے کوئی بھی پرتگھات ہماری یادوں میں


سچ کو سچ کہنا تھا جن کو آخر تک سچ کہنا تھا
كودھے ہیں 'دوج،' وہ بن کر 'سكرات' ہماری یادوں میں


'ब्लॉग 'आज की गजल' -द्विजेन्द्र 'द्विज

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