राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की।[21] एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।[22]
महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष
्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं।[23] महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।
रक्षा -बंधन केवल भाई -बहनों का ही त्यौहार नहीं है ---यह सभी प्रकार के रक्षित और रक्षक के बीच का अनुबंध है. पहली राखी इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के बांधी थी. हुआ यों कि इन्द्र ने असुर कन्या शची से विवाह किया था. रावण "रक्ष -सह" (हम अपनी रक्षा स्वयं करेंगे ) आन्दोलन का प्रणेता और प्रकांड विद्वान् होने के साथ ही पराक्रमी भी था. वह इंद्र की ऐन्द्रिक हरकतों या यों कहें कि चरित्र हीनताओं से क्षुब्द हो अक्सर इंद्र का लात -जूता संस्कार करता था. पर अईयास इंद्र नहीं सुधरा. चुकी राज सत्ता इंद्र के पास थी अतः इंद्र ने रावण और उसके समर्थकों को धमकी दी कि राज सत्ता  आपकी सुरक्षा नहीं करेगी. इस पर रावण ने "रक्ष -सह" (हम अपनी सुरक्षा स्वयं करेंगे ) आन्दोलन चलाया. और इस प्रकार रावण के समर्थक "राक्षस" कहलाये. और इंद्र की राज सत्ता के सुर से सुर न मिलाने वाले रावण के अनुयाई "असुर" कहलाये. रावण के समर्थक अपने हाथों में रावण की सरकार द्वारा जारी जो गंडा (कलावा ) बांधते थे वह दरअसल रावण की सत्ता द्वारा जारी रक्षा करने का अनुबंध होता था जिसे रक्षा बंधन कहा जाता था. इधर इंद्र अपनी ऐन्द्रिक हरकतों से बाज नहीं आया उसने एक असुर कन्या शचि का अपहरण करके उससे विवाह कर लिया जिससे क्रोधित हो असुरों ने उसपर हमला कर दिया कामुक इंद्र भागा और अपने रनिवास में घुस गया वहां उसने शची के राखी बांधी और अपनी रक्षा करने के लिए अनुबंधित किया. और इस प्रकार शचि ने रनिवास से बाहर आकार अपने पति इंद्र की जान बचाई.Aar Ravi Vidrohee
रक्षा बंधन का सच.....
रक्षा बंधन कोई त्याहार नहीं बल्कि राजस्थान के राज्यों की एक परम्परा ,एक रिवाज था जो आज त्यौहार के रूप में प्रचलित हो गया ,, और वक्त राखी का धागा एक विशेष घास के तिनको से बना होता था जो शुभ समझे जाते थे...मुसलमानों शासको में एक परम्परा थी जब भी वो किसी हिन्दुस्तानी राजा को पराजित करते थे अगले दिन पराजित राजा भरी सभा में जनता के सामने कुछ दूरी पर बैठा दिया जाता था ..तथा विजित शासक का तख़्त पर बैठा होता था .. पीछे बंधे हाथो और घुटने बे बल सरकते हुए मुह में तिनके लिए हुए विजित राजा से प्राणों की भीख माँगने जाता था ..वो विजित राजा के ऊपर निर्भर था वो राजा को पराजित राजा को जीवित छोड़े या मारे..मगर ९९% पर्सेट विजित राजा पराजित राजा की गर्दन काट लेती था तथा सिर को नगर के चौराहे पर लटका देता था ...
यह धागे भेजने की परम्परा भी इसी तरह की एक परम्परा थी रिवाज थी कोई त्यौहार नहीं.
इसका सर्वप्रथम चलन हर्ष वर्धन के पश्चात आये राजपूत काल में हुआ ...जहां छोटे छोटे राज्य अनिश्चियता और युद्ध के सायो में अपने आप को असुरक्षित समझते थे ...अपनी रक्षा के लिए ये एक प्रकार से बड़े संघठित और शक्तिशाली राज्यों से अपनी रक्षा की गुहार थी ....आपसी लड़ाई और दुश्मनी के चलते छोटे छोटे राज्य अपनी रक्षा के लिए बड़े राज्यों से अपनी रक्षा की भीख माँगते थे .तथा बदले में अपने आप को जिनको राखी भेजी उन शासको के प्रति वफादार होने का वचन देते थे . रक्षा बंधन में उस वक्त कोई घागा या राखी नहीं चलती थी बल्कि किसी विशेष घास के तिनको की राखी बनाई जाती थी और उसे सजाकर पहुची बांधी जाती थी...धागा हमेशा पुरुष भेजता था ..स्त्रीयां नहीं.....हर किसी राजा को पहुचि भी नहीं भेजी जा सकती थी जैसे आज भी हर किसी परुष के हाथ पर राखी नहीं बांधी जाती हैं ..केवल जानने वाले या रिश्ते में आने वाले राजाओं को ही जिनसे राजाओं के विवाहिक सम्बन्ध होते थे उनको पहुचि भेजना परम्परा का आनिवार्य हिस्सा होता था रक्षा बंधन को त्याहार बनवाने में रानी कर्मावती का बहुत बड़ा हाथ हैं..
सर्व प्रथम स्त्री के रूप में कर्मावती विधवा राजपूतानी शासक ने हुमायूं को राखी भेजी थी
रानी कर्मावती चित्तोड़ के राजा की विधवा थी और प्रुरुष शाशक ना होने के कारण गद्दी की देखभाल कर्मावती ही करती थी , गुजरात के शासक बहादुर शाह से बचने के लिए कर्मावती ने पहली बार भारत के शाशक हूमायू को अपनी रक्षा के लिए पहुचि (राखी) भेजी थी..
तभी से यह भाई बहनों का त्यौहार सा माना जाने लगा
आम जनता या आम राजपूत में भी इसका समाज से इसका कोई भी वास्ता नहीं था ..धीरे धीरे यह सामंती राजपूतो से निकलकर सैनिक राजपूतो के पास पहुचा वहाँ से ब्राहमणों ने इसको शुद्ध किया क्यकी कोई भी शुभ कार्य बिना ब्राह्मणों के नहीं होता था और इसका सम्बन्ध देवताओं से जोड़ दिया ..इसके बाद यह धन्नाडेह सेठो ने मनाना शुरू किया ..आजादी तक अति पिछड़े या दलित वंचित समाज में इसको मनाने का प्रचालन या राखी बाँधने का रिवाज ना के बराबर था... .....
और धीरे धीरे राखी भाई बहनों की रक्षा का त्यौहार बन गया ...उस वक्त इसे पहुचि कहते थे राखी नहीं ...यानी के पहुचने वाली ....और त्यौहार का नाम सिलोनो होता था यानी जो सीलन में हो..जिसका शाब्दिक अर्थ होता भीगा हुआ ..क्योकि धागा बरसात के महीनो में ही बाँधा या भेजा जाता था .....बरसात में यह धागा इसलिए भेजा जाता था क्योकि बरसात में बारिश के कारण युद्ध नहीं होते थे..राजा इन दिनों आमोद प्रमोद में रहता हुआ राजमहल में ही मिल जाता था .उसका इंतज़ार नहीं करना पड़ता था...और पूर्णमासी को इसलिए कि यदि पहुचि ले जाने वाला रात भे भी चले तो चांदनी रात में रास्ता आसनी से नजर आ जाए .....और दुसरे जो धागा भेजा जाता था उस पर राज्य की सील लगी होती थी दुसरी तरफ सील का अर्थ बंधा हुआ या सिला हुआ भी होता हैं . ...क्योकि रक्षा का धागा अच्छी तरह बांधकर या सिलकर ऊपर से राज्य की सील लगी होती थी ताकि जिस शासक के पास पहुच रहा हैं उसे इसकी प्रामाणिकता पर संदेह ना हो ....
वेद पुराण उपनिषदों व अन्य धार्मिक ग्रंथो में कही भी इसका उल्लेख नहीं हैं ...जो ग्रन्थ इन्द्र द्वारा शुची को सर्व प्रथम राखी बाँधने की बात करते हैं वे ग्रन्थ बहुत बाद में १२०० सदी के बाद लिखे गए हैं..धार्मिक ग्रंथो में जो कहानी हैं वो भी राजाओं की कहानी हैं कि कैसे इन्द्र ने पत्नी शुची को गंडा रूपी धागा बांधकर असुरो से अपनी जान बचाई ..राजाओं के अलावा कही भी यह परम्परा नहीं होती थी..क्योकि रक्षा की जरुरत राजा को ही रहती हैं बहन या किसी सामान्य नागरिक को नहीं ..यम और यमी की प्रसंग भी बहुत बाद में लिखा गया हैं ..प्राचीन ग्रंथो में इस त्यौहार का कही भी कोई उल्लेख या जिक्र नहीं ..कल्हण द्वारा राजतरंगिनी (1148-1150 ई . में लिखी) यह पुस्तक हिन्दुस्तानी समाज और रहन सहन रीती रिवाजो और संसकृति का आइना हैं भारत के प्रमुख तय्हारो का वर्णन हैं ..रक्षा बंधन का कही नहीं जिक्र नहीं
हैं. जो भी हो आज ये त्यौहार आम आदमी का बन गया हैं ...बहनों को आज रक्षा की नहीं स्नेह की जरुरत हैं अत अब इसका नाम रक्षा बंधन ना होकर स्नेह बंधन होना चाहिएसर्व प्रथम स्त्री के रूप में कर्मावती विधवा राजपूतानी शासक ने हुमायूं को राखी भेजी थी
रानी कर्मावती चित्तोड़ के राजा की विधवा थी और प्रुरुष शाशक ना होने के कारण गद्दी की देखभाल कर्मावती ही करती थी , गुजरात के शासक बहादुर शाह से बचने के लिए कर्मावती ने पहली बार भारत के शाशक हूमायू को अपनी रक्षा के लिए पहुचि (राखी) भेजी थी..
तभी से यह भाई बहनों का त्यौहार सा माना जाने लगा
आम जनता या आम राजपूत में भी इसका समाज से इसका कोई भी वास्ता नहीं था ..धीरे धीरे यह सामंती राजपूतो से निकलकर सैनिक राजपूतो के पास पहुचा वहाँ से ब्राहमणों ने इसको शुद्ध किया क्यकी कोई भी शुभ कार्य बिना ब्राह्मणों के नहीं होता था और इसका सम्बन्ध देवताओं से जोड़ दिया ..इसके बाद यह धन्नाडेह सेठो ने मनाना शुरू किया ..आजादी तक अति पिछड़े या दलित वंचित समाज में इसको मनाने का प्रचालन या राखी बाँधने का रिवाज ना के बराबर था... .....
और धीरे धीरे राखी भाई बहनों की रक्षा का त्यौहार बन गया ...उस वक्त इसे पहुचि कहते थे राखी नहीं ...यानी के पहुचने वाली ....और त्यौहार का नाम सिलोनो होता था यानी जो सीलन में हो..जिसका शाब्दिक अर्थ होता भीगा हुआ ..क्योकि धागा बरसात के महीनो में ही बाँधा या भेजा जाता था .....बरसात में यह धागा इसलिए भेजा जाता था क्योकि बरसात में बारिश के कारण युद्ध नहीं होते थे..राजा इन दिनों आमोद प्रमोद में रहता हुआ राजमहल में ही मिल जाता था .उसका इंतज़ार नहीं करना पड़ता था...और पूर्णमासी को इसलिए कि यदि पहुचि ले जाने वाला रात भे भी चले तो चांदनी रात में रास्ता आसनी से नजर आ जाए .....और दुसरे जो धागा भेजा जाता था उस पर राज्य की सील लगी होती थी दुसरी तरफ सील का अर्थ बंधा हुआ या सिला हुआ भी होता हैं . ...क्योकि रक्षा का धागा अच्छी तरह बांधकर या सिलकर ऊपर से राज्य की सील लगी होती थी ताकि जिस शासक के पास पहुच रहा हैं उसे इसकी प्रामाणिकता पर संदेह ना हो ....
वेद पुराण उपनिषदों व अन्य धार्मिक ग्रंथो में कही भी इसका उल्लेख नहीं हैं ...जो ग्रन्थ इन्द्र द्वारा शुची को सर्व प्रथम राखी बाँधने की बात करते हैं वे ग्रन्थ बहुत बाद में १२०० सदी के बाद लिखे गए हैं..धार्मिक ग्रंथो में जो कहानी हैं वो भी राजाओं की कहानी हैं कि कैसे इन्द्र ने पत्नी शुची को गंडा रूपी धागा बांधकर असुरो से अपनी जान बचाई ..राजाओं के अलावा कही भी यह परम्परा नहीं होती थी..क्योकि रक्षा की जरुरत राजा को ही रहती हैं बहन या किसी सामान्य नागरिक को नहीं ..यम और यमी की प्रसंग भी बहुत बाद में लिखा गया हैं ..प्राचीन ग्रंथो में इस त्यौहार का कही भी कोई उल्लेख या जिक्र नहीं ..कल्हण द्वारा राजतरंगिनी (1148-1150 ई . में लिखी) यह पुस्तक हिन्दुस्तानी समाज और रहन सहन रीती रिवाजो और संसकृति का आइना हैं भारत के प्रमुख तय्हारो का वर्णन हैं ..रक्षा बंधन का कही नहीं जिक्र नहीं


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