अठारह सितंबर काका हाथरसी का जन्मदिन है। काका हाथरसी ने हास्य कवि की तरह जैसी ख्याति अजिर्त की, वैसी और किसी को नसीब नहीं हुई। काका का हास्य शिष्ट, शालीन और ब्रज की मिट्टी से उपजा था। उन्हें हिन्दी के परंपरागत छंदों पर भी जबर्दस्त पकड़ हासिल थी। यहां उनसे जुड़ी कुछ यादें साझा कर रहे हैं -अशोक चक्रधर
काका हाथरसी को समझना बहुत आसान नहीं है। काका लगते भर आसान हैं। शायद इसलिए, क्योंकि वे आसान भाषा का प्रयोग करते रहे थे। वे विलक्षण सौंदर्यपूर्ण संश्लिष्ट व्यक्तित्व थे। उनके रचनाक्रम में इतना वैविध्य था और उस वैविध्य में इतना तालमेल था, जिसको लोग अभी तक समझ नहीं पाए। ललित कलाओं में उनकी पैठ, संगीत के प्रति उनका चुंबकीय खिंचाव, चित्रकला के लिए उनकी निष्ठा, हास्य के लिए उनका समर्पण और इन सबका एक साथ अनुशासनात्मक समुच्चय वे कैसे व्यवस्थित करते थे, इसको समझना भी आसान नहीं है।
वे किसी मुर्दनी में नहीं जाते थे
कोई टोका-टाकी या दखलंदाजी नहीं
एक सीमा उनके व्यक्तित्व की यह थी कि वे अपने परिवार के युवा सदस्यों की चलती हुई मनमानी में कभी टीका-टिप्पणी नहीं करते थे। वे कठोर अनुशासक बनकर होती हुई गड़बड़ियों को नहीं रोकते थे, बल्कि उन्हें उनकी स्वेच्छाचारिता के लिए अपनी ओर से छूट देते थे। कोई संगीतकार बनना चाहता है, बनो संगीतकार। ढूंढ़ो रास्ता। कोई हाथरस में नहीं रहना चाहता है, बाहर प्रगति के मार्ग ढूंढ़ रहा है, ढूंढ़ो रास्ता, लेकिन प्रगति करो। तुम मेरे कर्मचारी रहे इतने वर्ष तक, अब अपना कामकाज शुरू करना चाहते हो, करो। सहर्ष जाओ, कोई पाबंदी नहीं, कोई अंकुश नहीं। कोई रोक-टोक नहीं। उनकी यह सीमा भी उनकी ताकत ही थी।
परिवार के सदस्यों का अपमान परिवार के लोग प्राय: मैंने नाराज देखे कि वे कभी भी नौकरों के सामने घर के सदस्यों का अपमान कर दिया करते थे। पक्ष सदैव नौकरों का लिया करते थे। कड़वी से कड़वी बात परिवार के सदस्यों को कह सकते थे, पर अधीनस्थ कर्मचारी के प्रति की गई उपेक्षा तनिक भी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। मैं समझता हूं कि दूसरों को सीमा लगने वाली यह बात उनकी जबर्दस्त शक्ति थी कि वे काम करने वाले की महत्ता जानते थे और ऊंच-नीच का भेद नहीं करते थे।
कृपण हैं, कंजूस हैं
जिसको कविगण भी उपहास में कहा करते थे कि काका कृपण हैं, कंजूस हैं। दरअसल, काका कंजूस नहीं थे, वे अपव्यय के विरोधी थे। वे अपनी कीमती से कीमती चीज किसी को भी प्रदान कर सकते थे, लेकिन अगर उन्हें यह लगे कि ये दस रुपए फिजूल खर्च किए गए हैं तो वे दस रुपए उनके लिए तत्क्षण तनाव का कारण बन जाते थे। उस फिजूलखर्ची को लेकर परिवार के सामने अति कठोर भी हो जाते थे। कठोरता की प्रतिक्रियाएं होतीं, लेकिन बड़ी ही सहज।
अपने अंतिम दिनों में जब वे यदा-कदा बीमार रहने लगे तो कभी-कभी एक बात की रट लगाने लगते थे ‘अब तो भाई हम मरना चाहते हैं। खूब नाम कमा लिया, खूब धन अर्जित कर लिया। बिना कष्ट पाए ऊपर चले जाएं, यही कामना है।’ परिवार के लोगों के लिए यह एक चौंकाने वाली बात थी। काका के मुंह से निराशा भरी और जीवन-विरोधी बात अब तक सुनी नहीं थीं। इस पर मुकेश ने काका जी के साथ एक नाटक किया। वह नाटक क्या था, यह जानने से पहले इतना जान लें कि काका परिवार में हास्य-प्रधान जनतंत्र बहुत पहले ही आ चुका था। व्यावहारिक मजाक होते रहते थे। यह जानते हुए भी कि सामने वाला व्यक्ति जो बात कह रहा है उसमें गंभीरता नहीं है और बात हंसी के लिए ही कही जा रही है, फिर भी परिवार का अभिनय-कौशल कथ्य-गांभीर्य बनाए रखते हुए भी उस हास्य को उजागर नहीं होने देता था।
मुकेश ने काका जी से कहा— ‘काकू, एक ऐसी गोली ईजाद हुई है जिसको आप अपनी जीभ पर रखो, तो रखते ही, यानी चौथाई पल में ही प्राण निकल जाएंगे, दवाई के स्वाद तक का पता नहीं चलेगा।’ काका जी ने यह ज्ञापित किए बिना कि वे समझ रहे हैं कि ये हास्य की बात है, यों ही कही जा रही है, गंभीरता बनाए रखते हुए जिज्ञासा रखी— ‘क्या कहा! झट से प्राण निकल जाएंगे और कड़वाहट तक महसूस नहीं होगी?’ इस पर मुकेश ने उत्तर दिया— ‘हां, काका जी, उस गोली के बारे में कहा तो यही जाता है कि गोली अपनी जीभ पर रखी और सब समाप्त’। काका जी ने कहा— ‘लल्ला, वो गोली मिलती कहां है? हमको ला दो कहीं से।’ मुकेश बोले ‘हां, जरूर मंगा देंगे, पहले सारी औपचारिकताओं की जानकारी हासिल करनी होगी।’ बात आई-गई हो गई। दो-चार दिन बाद काका ने पूछा— ‘गोली का पता किया मुकेश?’ मुकेश ने बताया ‘हां काकू, पता कर लिया है। मिल जाएगी।’ काका जी ने खुशी जाहिर की और दूसरा सवाल दागा ‘लल्ला, वह गोली है कितने की?’ मुकेश ने बताया— ‘यही कोई सात साढ़े सात सौ की है।’ इस पर काका जी बिना पल भर की देर लगाए, हैरानी-भरे आवेश में बोले— ‘क्या! साढ़े सात सौ की! इतनी महंगी! तो भइया रहने दो, हम नहीं खरीदते। मरने की कोई जल्दी नहीं है।’
ऐसा कहते समय काका की आंखों में जीवन की चमक थी, अधर गोलाई लिए हुए आगे को निकल आए थे, दाढ़ी थोड़ी फैल गई थी, चेहरे पर नटखट बच्चों की अदा थी और देखने वाले ठहाके लगा रहे थे। सारा नाटक जो हफ्ते भर तक गम्भीरता से चला चंद ठहाकों पर आकर ठिठक गया। उनमें जबरदस्त जिजीविषा थी और उससे कहीं अधिक उदारता। कंजूस यदि वह थे तो अपनी उम्र के प्रति थे, जिसे वह यों ही खर्च नहीं कर देना चाहते थे। बिल्कुल अंतिम दिनों में भी वह एक और पुस्तक रचने की योजना बना रहे थे। देने वाले से दो जिंदगी चाहते थे।
आगंतुक से कितनी देर बात की जाए लोकाचार के नाते आगंतुक से कितनी देर बात की जाए, शिष्टाचार के रहते हुए किसी व्यक्ति की उपस्थिति को कितना सहा जाए, यह आमतौर पर हम देखते हैं कि अंदर-अंदर कुढ़ते हुए, मन ही मन गालियां देते हुए भी हम आगंतुक को या किसी अनपेक्षित व्यक्तित्व को सहते रहने के लिए प्राय: मजबूर हो जाते हैं, लेकिन काका ऐसा नहीं करते थे। काका का अपना एक कार्यानुशासन था। यदि उनको ग्यारह बजे पत्र लिखने हैं और एक व्यक्ति ग्यारह बजकर पांच मिनट पर उनके पास आया तो वे दो-तीन मिनट तक ही उससे बात करते थे, भले ही वह कितना ही रोचक प्रसंग लेकर क्यों न आया हो, भले ही वह अपनी अतिरिक्त उपस्थिति क्यों न चाह रहा हो और भले ही वह काका के भले की ही क्यों न कह रहा हो, काका जी उससे दो टूक शब्दों में कह देते थे- ‘भइया, हमारे-आपके संबंध बड़े मजबूत हैं, बिल्कुल नहीं टूटे, लेकिन अब आप यहां से फूटें!’ वे मुख पर सीधी बात कह देते थे। थोड़ी देर के लिए आगंतुक का चेहरा श्यामल होता था, लेकिन काका की निश्छल आदेश-प्रक्रिया को वह समझ जाता था और उठ कर चला जाता था।
यह सीमा भी उनकी शक्ति थी और उस शक्ति का नाम है- ‘अनुशासन’। मैंने काका से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बहुत कुछ सीखा है, लेकिन जिस सीखने का मुझे बोध है और जिसे मैं जानता हूं कि निश्चित रूप से यह मैंने काका जी से ही सीखा है, वह है श्रम के प्रति अनुशासन धर्म! यानी, यह सीमा भी उनकी शक्ति ही थी- बुरा माने तो माना करे कोई, पर छोड़ेंगे नहीं अपनी साफगोई।
_अशोक चक्रधर साभार - [हिदुस्तान समाचार पत्र दि 16 -09-12] 
प्रकृति बदलती छण-छण देखो,
बदल रहे अणु, कण-कण देखो|
तुम निष्क्रिय से पड़े हुए हो |
भाग्य वाद पर अड़े हुए हो|
छोड़ो मित्र ! पुरानी डफली,
जीवन में परिवर्तन लाओ |
परंपरा से ऊंचे उठ कर,
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
जब तक घर मे धन संपति हो,
बने रहो प्रिय आज्ञाकारी |
पढो, लिखो, शादी करवा लो ,
फिर मानो यह बात हमारी |
माता पिता से काट कनेक्शन,
अपना दड़बा अलग बसाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
करो प्रार्थना, हे प्रभु हमको,
पैसे की है सख़्त ज़रूरत |
अर्थ समस्या हल हो जाए,
शीघ्र निकालो ऐसी सूरत |
हिन्दी के हिमायती बन कर,
संस्थाओं से नेह जोड़िये |
किंतु आपसी बातचीत में,
अंग्रेजी की टांग तोड़िये |
इसे प्रयोगवाद कहते हैं,
समझो गहराई में जाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
कवि बनने की इच्छा हो तो,
यह भी कला बहुत मामूली |
नुस्खा बतलाता हूँ, लिख लो,
कविता क्या है, गाजर मूली |
कोश खोल कर रख लो आगे,
क्लिष्ट शब्द उसमें से चुन लो|
उन शब्दों का जाल बिछा कर,
चाहो जैसी कविता बुन लो |
श्रोता जिसका अर्थ समझ लें,
वह तो तुकबंदी है भाई |
जिसे स्वयं कवि समझ न पाए,
वह कविता है सबसे हाई |
इसी युक्ती से बनो महाकवि,
उसे "नई कविता" बतलाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
चलते चलते मेन रोड पर,
फिल्मी गाने गा सकते हो |
चौराहे पर खड़े खड़े तुम,
चाट पकोड़ी खा सकते हो |
बड़े चलो उन्नति के पथ पर,
रोक सके किस का बल बूता?
यों प्रसिद्ध हो जाओ जैसे,
भारत में बाटा का जूता |
नई सभ्यता, नई संस्कृति,
के नित चमत्कार दिखलाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
पिकनिक का जब मूड बने तो,
ताजमहल पर जा सकते हो |
शरद-पूर्णिमा दिखलाने को,
'उन्हें' साथ ले जा सकते हो |
वे देखें जिस समय चंद्रमा,
तब तुम निरखो सुघर चाँदनी |
फिर दोनों मिल कर के गाओ,
मधुर स्वरों में मधुर रागिनी |
( तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी ..)
आलू छोला, कोका-कोला,
'उनका' भोग लगा कर पाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ|
हमारे देश में परंपरा है, जब तक व्यक्ति रहता है, तब तक हम उसकी सीमाएं देखते हैं, उसके जाने के बाद हम उसकी शक्तियां देखते हैं। मैंने उनकी शक्तियां उनके जीते-जी देखीं और अब मैं बात करना चाहता हूं उनकी सीमाओं की। और, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उनकी सीमाएं ही उनकी शक्तियां थीं। उदाहरण के लिए क्रमश: गिनाना शुरू करता हूं।
वे किसी मुर्दनी में नहीं जाते थे
वे शवयात्रा में जाना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। परिवार का आत्मीयतम व्यक्ति भी क्यों न देहावसान पा चुका हो, वे उसकी शवयात्रा में नहीं जाते थे। समाज तो आखिर समाज है। इस पर लोग टिप्पणी करने से चूकते नहीं थे— ‘काका श्मशान घाट तक नहीं चलोगे? मुर्दनी में नहीं जाओगे? तो क्या सोचते हो कि जब तुम मरोगे तो तुम्हारी मुर्दनी में कोई जाएगा?’ और काका तटस्थ भाव से हल्की मुस्कान के साथ कह देते थे— ‘भैया, जाने वाला तो चला गया, अब हम क्यों वहां रोनी सूरत बनाकर जाएं? हमसे किसी के आंसू नहीं देखे जाते, हमसे दु:खी चेहरे नहीं देखे जाते, इसलिए हमें अगर ले चलना है तो किसी के जन्मदिन पर ले जाओ, किसी शादी-बारात में ले जाओ। हम कविता सुनाएंगे, हंसाएंगे, आशीर्वाद देंगे, लेकिन मुर्दनी में बिल्कुल नहीं जाएंगे, भले ही हमारी मुर्दनी में कोई आए ना आए। और जब हम रहेंगे ही नहीं, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमारी मुर्दनी में कोई आया या नहीं आया।’और, जब 19 सितंबर 1995 को उनकी शवयात्रा में हजारों की भीड़ को मैंने देखा तो काका की किसी की गमी में शरीक न होने वाली बात सोचने लगा। संभवत: हाथरस नगर ने इस व्यक्ति के मन में झांक लिया था और जान लिया था कि दु:ख, मनहूसियत, उदासी, कुंठा, आत्मजन्य बेचैनी का यह कितना विरोधी है! आज जनसंचार माध्यमों से सबको पता है कि काका ने वसीयत की थी कि ऊंटगाड़ी पर उनकी अंतिम-यात्रा निकाली जाए। उन्होंने यह भी चाहा कि चिता जलते समय भीड़ में कोई व्यक्ति रोए नहीं, बल्कि वहां हास्यकवि-सम्मेलन हो और लोग ठहाके लगाते हुए, नाचते-गाते हुए उनकी शवयात्रा में शिरकत करें।
बहरहाल, ऐसा ही हुआ जैसा उन्होंने चाहा। हाथरस नगर में अंतिम-यात्रा का जो रूट बनाया गया था, उसमें कुछ गली-मौहल्ले छूट गए। उन गली मौहल्ले के निवासियों ने प्रशासन के आगे धरना दे दिया कि यह मुमकिन ही नहीं है कि काका हमारी गली से न गुजरें और प्रशासन को जनभावना के आगे झुकना पड़ा। काका के घर से श्मशान की दूरी लगभग एक कि.मी. होगी, लेकिन अंतिम यात्रा हाथरस नगर में पूरे चार घंटे बिताने के बाद अपने गंतव्य तक पहुंच पाई। उस पूरे मार्ग में लोगों का हुजूम दूर तक दिखाई देता था, कुछ पीछे छूट जाते थे, नए जुड़ जाते थे। छज्जों पर, कंगूरों पर, अटारियों पर ढेर सारे बाल-वृद्ध, महिलाएं उनकी ऊंटगाड़ी पर पुष्प-वर्षा कर रहे थे। दृश्य बड़ा ही रोमांचकारी हो जाता था कई बार। फूल फेंकने वालों की श्रद्धांजलि और नीचे उल्लास में रसिया गाते हुए लोग ‘सुरपुर सिधार गए हमारे काका’। तिलक, चंदन लगाए हुए विचित्र वेशभूषा बनाए हुए लोग, जिनमें आह्लाद भी ऐसा जिसके मूल में दु:ख भरपूर था। ये बड़ी जटिल सामाजिक मानसिकता है, जिसको मैं लगातार सोच रहा हूं। मानव-जाति के इतिहास में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो कि श्मशान-भूमि पर जिस व्यक्ति का अंतिम संस्कार करने के लिए लोग आए हैं, वे अग्निदाह के समय ठहाके लगाएं। पूरे दो घंटे एक हास्यकवि-सम्मेलन चला, जिसमें हास्य-शैली में ही कवियों ने काका को विदाई दी। यह थी काका की पहली सीमा कि वे मुर्दनी में नहीं जाते थे और यही थी उनकी ताकत कि वे किसी की मुर्दनी में नहीं जाते थे।
कोई टोका-टाकी या दखलंदाजी नहीं
परिवार के सदस्यों का अपमान परिवार के लोग प्राय: मैंने नाराज देखे कि वे कभी भी नौकरों के सामने घर के सदस्यों का अपमान कर दिया करते थे। पक्ष सदैव नौकरों का लिया करते थे। कड़वी से कड़वी बात परिवार के सदस्यों को कह सकते थे, पर अधीनस्थ कर्मचारी के प्रति की गई उपेक्षा तनिक भी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। मैं समझता हूं कि दूसरों को सीमा लगने वाली यह बात उनकी जबर्दस्त शक्ति थी कि वे काम करने वाले की महत्ता जानते थे और ऊंच-नीच का भेद नहीं करते थे।
कृपण हैं, कंजूस हैं
जिसको कविगण भी उपहास में कहा करते थे कि काका कृपण हैं, कंजूस हैं। दरअसल, काका कंजूस नहीं थे, वे अपव्यय के विरोधी थे। वे अपनी कीमती से कीमती चीज किसी को भी प्रदान कर सकते थे, लेकिन अगर उन्हें यह लगे कि ये दस रुपए फिजूल खर्च किए गए हैं तो वे दस रुपए उनके लिए तत्क्षण तनाव का कारण बन जाते थे। उस फिजूलखर्ची को लेकर परिवार के सामने अति कठोर भी हो जाते थे। कठोरता की प्रतिक्रियाएं होतीं, लेकिन बड़ी ही सहज।
अपने अंतिम दिनों में जब वे यदा-कदा बीमार रहने लगे तो कभी-कभी एक बात की रट लगाने लगते थे ‘अब तो भाई हम मरना चाहते हैं। खूब नाम कमा लिया, खूब धन अर्जित कर लिया। बिना कष्ट पाए ऊपर चले जाएं, यही कामना है।’ परिवार के लोगों के लिए यह एक चौंकाने वाली बात थी। काका के मुंह से निराशा भरी और जीवन-विरोधी बात अब तक सुनी नहीं थीं। इस पर मुकेश ने काका जी के साथ एक नाटक किया। वह नाटक क्या था, यह जानने से पहले इतना जान लें कि काका परिवार में हास्य-प्रधान जनतंत्र बहुत पहले ही आ चुका था। व्यावहारिक मजाक होते रहते थे। यह जानते हुए भी कि सामने वाला व्यक्ति जो बात कह रहा है उसमें गंभीरता नहीं है और बात हंसी के लिए ही कही जा रही है, फिर भी परिवार का अभिनय-कौशल कथ्य-गांभीर्य बनाए रखते हुए भी उस हास्य को उजागर नहीं होने देता था।
मुकेश ने काका जी से कहा— ‘काकू, एक ऐसी गोली ईजाद हुई है जिसको आप अपनी जीभ पर रखो, तो रखते ही, यानी चौथाई पल में ही प्राण निकल जाएंगे, दवाई के स्वाद तक का पता नहीं चलेगा।’ काका जी ने यह ज्ञापित किए बिना कि वे समझ रहे हैं कि ये हास्य की बात है, यों ही कही जा रही है, गंभीरता बनाए रखते हुए जिज्ञासा रखी— ‘क्या कहा! झट से प्राण निकल जाएंगे और कड़वाहट तक महसूस नहीं होगी?’ इस पर मुकेश ने उत्तर दिया— ‘हां, काका जी, उस गोली के बारे में कहा तो यही जाता है कि गोली अपनी जीभ पर रखी और सब समाप्त’। काका जी ने कहा— ‘लल्ला, वो गोली मिलती कहां है? हमको ला दो कहीं से।’ मुकेश बोले ‘हां, जरूर मंगा देंगे, पहले सारी औपचारिकताओं की जानकारी हासिल करनी होगी।’ बात आई-गई हो गई। दो-चार दिन बाद काका ने पूछा— ‘गोली का पता किया मुकेश?’ मुकेश ने बताया ‘हां काकू, पता कर लिया है। मिल जाएगी।’ काका जी ने खुशी जाहिर की और दूसरा सवाल दागा ‘लल्ला, वह गोली है कितने की?’ मुकेश ने बताया— ‘यही कोई सात साढ़े सात सौ की है।’ इस पर काका जी बिना पल भर की देर लगाए, हैरानी-भरे आवेश में बोले— ‘क्या! साढ़े सात सौ की! इतनी महंगी! तो भइया रहने दो, हम नहीं खरीदते। मरने की कोई जल्दी नहीं है।’
ऐसा कहते समय काका की आंखों में जीवन की चमक थी, अधर गोलाई लिए हुए आगे को निकल आए थे, दाढ़ी थोड़ी फैल गई थी, चेहरे पर नटखट बच्चों की अदा थी और देखने वाले ठहाके लगा रहे थे। सारा नाटक जो हफ्ते भर तक गम्भीरता से चला चंद ठहाकों पर आकर ठिठक गया। उनमें जबरदस्त जिजीविषा थी और उससे कहीं अधिक उदारता। कंजूस यदि वह थे तो अपनी उम्र के प्रति थे, जिसे वह यों ही खर्च नहीं कर देना चाहते थे। बिल्कुल अंतिम दिनों में भी वह एक और पुस्तक रचने की योजना बना रहे थे। देने वाले से दो जिंदगी चाहते थे।
आगंतुक से कितनी देर बात की जाए लोकाचार के नाते आगंतुक से कितनी देर बात की जाए, शिष्टाचार के रहते हुए किसी व्यक्ति की उपस्थिति को कितना सहा जाए, यह आमतौर पर हम देखते हैं कि अंदर-अंदर कुढ़ते हुए, मन ही मन गालियां देते हुए भी हम आगंतुक को या किसी अनपेक्षित व्यक्तित्व को सहते रहने के लिए प्राय: मजबूर हो जाते हैं, लेकिन काका ऐसा नहीं करते थे। काका का अपना एक कार्यानुशासन था। यदि उनको ग्यारह बजे पत्र लिखने हैं और एक व्यक्ति ग्यारह बजकर पांच मिनट पर उनके पास आया तो वे दो-तीन मिनट तक ही उससे बात करते थे, भले ही वह कितना ही रोचक प्रसंग लेकर क्यों न आया हो, भले ही वह अपनी अतिरिक्त उपस्थिति क्यों न चाह रहा हो और भले ही वह काका के भले की ही क्यों न कह रहा हो, काका जी उससे दो टूक शब्दों में कह देते थे- ‘भइया, हमारे-आपके संबंध बड़े मजबूत हैं, बिल्कुल नहीं टूटे, लेकिन अब आप यहां से फूटें!’ वे मुख पर सीधी बात कह देते थे। थोड़ी देर के लिए आगंतुक का चेहरा श्यामल होता था, लेकिन काका की निश्छल आदेश-प्रक्रिया को वह समझ जाता था और उठ कर चला जाता था।
यह सीमा भी उनकी शक्ति थी और उस शक्ति का नाम है- ‘अनुशासन’। मैंने काका से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष बहुत कुछ सीखा है, लेकिन जिस सीखने का मुझे बोध है और जिसे मैं जानता हूं कि निश्चित रूप से यह मैंने काका जी से ही सीखा है, वह है श्रम के प्रति अनुशासन धर्म! यानी, यह सीमा भी उनकी शक्ति ही थी- बुरा माने तो माना करे कोई, पर छोड़ेंगे नहीं अपनी साफगोई।

कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ / काका हाथरसी
बदल रहे अणु, कण-कण देखो|
तुम निष्क्रिय से पड़े हुए हो |
भाग्य वाद पर अड़े हुए हो|
छोड़ो मित्र ! पुरानी डफली,
जीवन में परिवर्तन लाओ |
परंपरा से ऊंचे उठ कर,
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
जब तक घर मे धन संपति हो,
बने रहो प्रिय आज्ञाकारी |
पढो, लिखो, शादी करवा लो ,
फिर मानो यह बात हमारी |
माता पिता से काट कनेक्शन,
अपना दड़बा अलग बसाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
करो प्रार्थना, हे प्रभु हमको,
पैसे की है सख़्त ज़रूरत |
अर्थ समस्या हल हो जाए,
शीघ्र निकालो ऐसी सूरत |
हिन्दी के हिमायती बन कर,
संस्थाओं से नेह जोड़िये |
किंतु आपसी बातचीत में,
अंग्रेजी की टांग तोड़िये |
इसे प्रयोगवाद कहते हैं,
समझो गहराई में जाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
कवि बनने की इच्छा हो तो,
यह भी कला बहुत मामूली |
नुस्खा बतलाता हूँ, लिख लो,
कविता क्या है, गाजर मूली |
कोश खोल कर रख लो आगे,
क्लिष्ट शब्द उसमें से चुन लो|
उन शब्दों का जाल बिछा कर,
चाहो जैसी कविता बुन लो |
श्रोता जिसका अर्थ समझ लें,
वह तो तुकबंदी है भाई |
जिसे स्वयं कवि समझ न पाए,
वह कविता है सबसे हाई |
इसी युक्ती से बनो महाकवि,
उसे "नई कविता" बतलाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
चलते चलते मेन रोड पर,
फिल्मी गाने गा सकते हो |
चौराहे पर खड़े खड़े तुम,
चाट पकोड़ी खा सकते हो |
बड़े चलो उन्नति के पथ पर,
रोक सके किस का बल बूता?
यों प्रसिद्ध हो जाओ जैसे,
भारत में बाटा का जूता |
नई सभ्यता, नई संस्कृति,
के नित चमत्कार दिखलाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ |
पिकनिक का जब मूड बने तो,
ताजमहल पर जा सकते हो |
शरद-पूर्णिमा दिखलाने को,
'उन्हें' साथ ले जा सकते हो |
वे देखें जिस समय चंद्रमा,
तब तुम निरखो सुघर चाँदनी |
फिर दोनों मिल कर के गाओ,
मधुर स्वरों में मधुर रागिनी |
( तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी ..)
आलू छोला, कोका-कोला,
'उनका' भोग लगा कर पाओ |
कुछ तो स्टैंडर्ड बनाओ|

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