भला ऐसा ढोंगी जीवन जीने की क्या जरुरत है ? वेलंटाई डे मनाने वाले युवाओं का उत्पीडन और परदे के पीछे समलैंगिक बलात्कार करने वाले समाज में अगुवा ? वास्तात्व में जिस समाज में ऐसे लोगों का सम्मान होता है वही समाज प्रेमी युगलों का उत्पीडन करता है. हमें एतराज किसी के समलैंगिक होने पर नहीं दूसरों के लिए नैतिकता के झूठे प्रतिमान गढ़ने और लादने पर पर है. इससे भी ज्यादा बलात काम समबन्ध बनाने पर है .पता नहीं दिल्ली बलात्कार काण्ड के मोमबत्ती वाले प्रदर्शनकारी कहाँ चले गए हैं ? क्या मध्य प्रदेश समलैगिंक यौन दुराचार काण्ड भी एक बड़े विरोध प्रदर्शन के लिए काफी नहीं है ?
आप कहते हैं कि आप संघ के पीछे क्यूँ पड़े हो ? अय्याशी कहाँ नहीं हो रही है ? संघ के पीछे पड़ना इसलिए उचित है कि संघ नैतिक ,सांस्कृतिक और जातीय श्रेष्ठता का दंभ भरता है . वह समलैंगिक संबंधों को पश्चिम की अपसंस्कृति बताता है और वेलंटाई डे को युवाओं के चारित्रिक पतन का कारण समझता है लेकिन वह समलैगिंक बलात्कारी विकृति का वाहक है .बलात्कार को सांस्कृतिक सदाचार बताने की प्रव्रत्ति को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है. ये कोई पहला मामला नहीं है .इनकी वैचारिक आधार शिला ही ऐसी विकृति पर टिकी है .सन्दर्भ के लिए आप देख सकते हैं कि विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘फ्रीडम ऐट मिडनाईट’ के 16वें अध्याय में लेखकों ने विनायक दामोदर सावरकर तथा नत्थूराम गोडसे के बीच समलैंगिक संबंधों के होने की बात कही थी, जिस पर गोपाल गोडसे ने लेखक युगल डोमिनीक लैपियर तथा लैरी कॉलिन्स पर मानहानि का मुकदमा ठोक दिया था। परन्तु समय के साथ गोपाल गोडसे तथा लेखक युगल के बीच कोर्ट से बाहर ही सुलह हो गई, जिसके तहत उपन्यास ‘फ्रीडम ऐट मिड नाईट’ के भारतीय संस्करणों में वह आपतिजनक अंश अब नहीं छापा जाएगा।
अगर कोई कथन गलत होता तो लेखक माफ़ी मांगता और उसे अपनी किताब से हटा देता .लेकिन केवल भारतीय संस्करण से हटाना एक सौदे बाजी के तहत केवल विवाद से बचाना मात्र है. इसलिए सवाल किसी के भी समलैंगिक होने या न होने का नहीं है सवाल उस दोहरी मानसिकता का है जो उन्हीं कारणों से दूसरों को हेय बताती है जो उनके यहाँ पहले से ही है. जब आपका अपना नेकर ढीला हो तो दूसरे कि रास लीला पर उंगली नहीं उठा सकते हैं .



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