मैं तुम्हारा स्वप्नमय संसार लेकर क्या करूंगा !
आपदाओं ने उकेरे हैं ह्रदय पर बेलबूटे
जीविका की खोज में घर-द्वार छूटा, खेत छूटे
मैं किसी की दृष्टि का आभार लेकर क्या करूंगा !
झर रहा हर एक पल इन मुट्ठियों से रेत जैसा
ज़िंदगी के मरघटों में मन भटकता प्रेत जैसा
डोर करुणा से बंधी श्रृंगार लेकर क्या करूंगा !
जेठ सा जीवन दुपहरी सी दहकती हैं दिशाएँ
और लपटों में हुईं तब्दील सारी ही हवाएं
मैं तुम्हारे बर्फ़ से उपहार लेकर क्या करूंगा !
नित्यप्रति ही वंचनाओं ने कथा नूतन कही है
दाल-रोटी के भंवर में ज़िंदगी उलझी रही है
मैं तुम्हारे रत्नमय भण्डार लेकर क्या करूंगा !
निष्करुण जीवन कि जिसको काटना दूभर दिखा है
याचना करता कहाँ ! हर देवता पत्थर दिखा है
भीख में दो-चार पल उपकार लेकर क्या करूंगा !
मैं तुम्हारा स्वप्नमय संसार लेकर क्या करूंगा !
-अमर 'नदीम'
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