मंगलवार, 18 जून 2019

कविता की चोरी

ये चोरी है या कुछ और...
==============
अकबरपुर (दिल्‍ली) में 1751 में जन्मे और 1824 में दुनिया छोड़ गए मरहूम शायर ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी' की एक ग़ज़ल - 'दिल चीज़ क्या है चाहिए तो जान लीजिए' पढ़कर होश फाख्ता हो गए क्योंकि इसकी लाइनें तो वर्षों से अलीगढ़ के शायर शहरयार के नाम से फिल्म 'उमरावजान' में गूंजती आ रही हैं। हैरत है कि शहरयार के ही नाम से ये 'रेख़्ता' पर भी पब्लिश है। अगर दो रचनाओं में इतनी साम्यता है तो इसे क्या माना जाना चाहिए....और ये सच अब तक सामने क्यों नहीं आ पाया था!
ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी' का मतला.........
दिल चीज़ क्या है चाहिए तो जान लीजिए।
पर बात को भी मेरी ज़रा मान लीजिए।
शहरयार का मतला......
दिल चीज़ क्या है आप मिरी जान लीजिए।
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए।
-----------
ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी' की लाइन.........
गर क़ग्र-ए-कुश्तगाँ पे तुम आए हो तो मियाँ
अपने शहीद-ए-नाज़ को पहचान लीजिए।
शहरयार की लाइन...............
इस अंजुमन में आप को आना है बार बार
दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिए।
-----------
ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी' की लाइन...........
मरिए तड़प तड़प के दिला क्या ज़रूर है
सर पर किसी की तेग़ का एहसान लीजिए
शहरयार की लाइन.............
माना कि दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास
लेकिन ये क्या कि ग़ैर का एहसान लीजिए
-----------
ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी' की लाइन...........
मुश्किल नहीं है यार का फिर मिलना ‘मुसहफ़ी’
मरने की अपने जी अगर ठान लीजिए।
शहरयार की लाइन................
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए
--------------------
'मुसहफ़ी' की पूरी ग़ज़ल इस प्रकार है......
दिल चीज़ क्या है चाहिए तो जान लीजिए।
पर बात को भी मेरी ज़रा मान लीजिए।
मरिए तड़प तड़प के दिला क्या ज़रूर है
सर पर किसी की तेग़ का एहसान लीजिए।
आता है जी में चादर-ए-अब्र-ए-बहार को
ऐसी हवा में सर पे ज़रा तान लीजिए।
मैं भी तो दोस्त-द़ार हूँ मेरी जाँ
मेरे भी हाथ से तो कभू पान लीजिए।
कीजिए हम को भी ऐ दिल रवा नहीं
यूँ आप ही आप लज़्ज़त-ए-पैकान लीजिए।
इस अपनी तंग चोली पे टुक रहम कीजिए जान
ख़मियाज़ा इस तरह से न हर आन लीजिए।
गर क़ग्र-ए-कुश्तगाँ पे तुम आए हो तो मियाँ
अपने शहीद-ए-नाज़ को पहचान लीजिए।
बोसे का जो तुम्हारे गुनह-गार हो मियाँ
लाज़िम है उस से बोसा ही तावान लीजिए।
वहशत के दिन फिर आए है इस नौ-बहार में
ऐ चाक-ए-जैब फिर रह-ए-दामान लीजिए।
मुश्किल नहीं है यार का फिर मिलना ‘मुसहफ़ी’
मरने की अपने जी अगर ठान लीजिए।
(कॉपी)

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें