बुधवार, 24 मार्च 2021

जनवादी गीत संग्रह-' लाल स्याही के गीत' 13- बल्ली सिंह चीमा




 बल्ली सिंह चीमा

            1

रोटी माँग रहे लोगों से, किसको ख़तरा होता है ।

यार, सुना है लाठी-चारज, हलका-हलका होता है ।


सिर फोड़ें या टाँगें तोड़ें, ये कानून के रखवाले,

देख रहे हैं दर्द कहाँ पर, किसको कितना होता है ।


बातों-बातों में हम लोगों को वो दब कुछ देते हैं,

दिल्ली जा कर देख लो कोई रोज तमाशा होता है ।


हम समझे थे इस दुनिया में दौलत बहरी होती है,

हमको ये मालूम न था कानून भी बहरा होता है ।


कड़वे शब्दों की हथियारों से होती है मार बुरी,

सीधे दिल पर लग जाए तो जख़्म भी गहरा होता है ।

                        2

ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के ।

अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के ।


कह रही है झोपडी औश् पूछते हैं खेत भी,

कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के ।


बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,

अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।


कफन बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,

ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के ।


हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,

बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।


दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंकलाब,

हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के ।


एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,

आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।


तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में 

अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव के ।


देख श्बल्लीश् जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,

लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के ।

                   3

अब घर के उजड़ने का कोई डर नहीं रहा ।

वो हादसे हुए हैं कि घर घर नहीं रहा ।


उनके बदन पे उनका वो खद्दर नहीं रहा,

हमने समझ लिया था सितमगर नहीं रहा ।


रिश्वत न नाचती हो सरे-आम ही जहाँ,

इस देश में कहीं भी वो दफ्तर नहीं रहा ।


अब भी वो चीरते हैं हजारों के पेट ही,

कहने को उनके हाथ में खंजर नहीं रहा ।


हीटर लगे हुए बंद कमरों में बैठ कर,

मत सोचिए नगर में दिसम्बर नहीं रहा ।


वो और हैं नगर में जो डरते हैं आपसे,

’बल्ली’ कभी किसी से भी डर कर नहीं रहा ।


                              4

शहर तो है ख़ामोश बराबर बोल रहीं सड़कें ।

भारी बूटों के नीचे दम तोड़ रहीं सड़कें ।


चैराहों पर वर्दीधारी भीड़-भड़क्का है,

क्या आफत है डरते-डरते बोल रहीं सड़कें ।


शाम को ही यह सो जाता है जैसे मुर्दा हो,

शहर को क्या मालूम कि क्या कुछ भोग रहीं सड़कें ।


फुटपाथों की वीरानीस े आज मुख़ातिब हैं,

संगीनों के साए में भी बोल रहीं सड़कें ।


पंख लगे होते तो शायद शहर से उड़ जातीं,

सोच रही हैं सोचों में पर तोल रहीं सड़कें ।


                        5


तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।

आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।


ख़ुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है जिन्दगी,

रेंग कर मर-मर कर जीना ही नहीं है जिन्दगी,

कुछ करो कि जिन्दगी की डोर न कमजोर हो ।

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।


खोलो आँखें फँस न जाना तुम सुनहरे जाल में,

भेड़िए भी घूमते हैं आदमी की खाल में,

जिन्दगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो ।

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।


सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा जरूर,

झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा जरूर,

इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओर हो ।

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।


तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।

आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

    ६ 

पराई कोठियों में रोज संगमरमर लगाता है
किसी फुटपाथ पर सोता है लेकिन घर बनाता है

लुटेरी इस व्यवस्था का मुझे पुरजा बताता है
वो संसाधन गिनाता है तो मुझको भी गिनाता है

बदलना चाहता है इस तरह शब्दों व अर्थों को
वो मेरी भूख को भी अब कुपोषण ही बताता है

यहाँ पर सब बराबर हैं ये दावा करने वाला ही
उसे ऊपर उठाता है मुझे नीचे गिराता है

मेरे आज़ाद भारत में जिसे स्कूल जाना था
वो बच्चा रेल के डिब्बों में अब झाड़ू लगाता है

तेरे नायक तो नायक बन नहीं सकते कभी 'बल्ली'
कोई रिक्शा चलाता है तो कोई हल चलाता है


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