रविवार, 25 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 32 -भगवती चरण वर्मा

                 

  


भगवती चरण वर्मा 

 एक 

चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !


गति के पागलपन से प्रेरित

चलती रहती संसृति महान,

सागर पर चलते हैं जहाज़ ,

अम्बर पर चलते वायुयान .

भूतल के कोने-कोने में

रेलों-ट्रामों का जाल बिछा ,

हैं दौड़ रही मोटर-बसें

लेकर मानव का वृहत ज्ञान !


पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं

उच्छ्वास, भावनाएँ चाहें ,

वे भूखे अधखाए किसान,

भर रहे जहाँ सूनी आहें .

नंगे बच्चे, चिथड़े पहने,

माताएँ जर्जर डोल रहीं ,

है जहाँ विवशता नृत्य कर रही,

धूल उड़ाती हैं राहें !


बीते युग की परछाईं-सी,

बीते युग का इतिहास लिए,

'कल' के उन तन्द्रिल सपनों में

'अब' का निर्दय उपहास लिए,

गति में किन सदियों की जड़ता,

मन में किस स्थिरता की ममता

अपनी जर्जर सी छाती में,

अपना जर्जर विश्वास लिए !

भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,

कँप-कँप उठते जिसके स्तर-स्तर

हिलती-डुलती, हँफती-कँपती,

कुछ रुक-रुककर, कुछ सिहर-सिहर,


चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !


उस ओर क्षितिज के कुछ आगे,

कुल पाँच कोस की दूरी पर,

भू की छाती पर फोड़ों-से हैं,

उठे हुए कुछ कच्चे घर !

मैं कहता हूँ खण्डहर उसको,

पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,

पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ,

नारियाँ जन रहीं हैं ग़ुलाम,

पैदा होना फिर मर जाना,

बस, यह लोगों का एक काम !

था वहीं कटा दो दिन पहले

गेंहूँ का छोटा एक खेत !

तुम सुख-सुषमा के लाल,

तुम्हारा है विशाल वैभव-विवेक,

तुमने देखी है मान-भरी

उच्छृंखल सुन्दरियाँ अनेक,

तुम भरे-पुरे, तुम हृष्ट-पुष्ट,

ओ तुम समर्थ कर्ता-हर्ता,

तुमने देखा है क्या बोलो,

हिलता-डुलता कंकाल एक ?

वह था उसका ही खेत,

जिसे उसने उन पिछले चार माह,

अपने शोणित को सुखा-सुखा,

भर-भरकर अपनी विवश आह,

तैयार किया था और घर में

थी रही रुग्ण पत्नी कराह !


उसके वे बच्चे तीन, जिन्हें

माँ-बाप का मिला प्यार न था,

थे क्षुधाग्रस्त बिलबिला रहे

मानों वे मोरी के कीड़े ,

वे निपट घिनौने, महापतित,

बौने, कुरूप टेढ़े-मेढ़े !

उसका कुटुम्ब था भरा-पूरा

आहों से, हाहाकारों से ,

फाको से लड़-लड़कर प्रतिदिन

घुट-घुटकर अत्याचारों से .

तैयार किया था उसने ही

अपना छोटा-सा एक खेत !

बीबी बच्चों से छीन, बीन

दाना-दाना, अपने में भर,

भूखे तड़पें या मरें, भरों का

तो भरना है उसको घर ,

धन की दानवता से पीड़ित कुछ

फटा हुआ,कुछ कर्कश स्वर ,


चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !


है बीस कोस पर एक नगर,

उस एक नगर में एक हाट,

जिसमें मानव की दानवता

फैलाए है निज राज-पाट;

साहूकारों का भेष धरे है

जहाँ चोर औ' गिरहकाट,

है अभिशापों से घिरा जहाँ

पशुता का कलुषित ठाट-बाट.

चान्दी के टुकड़ों को लेने,

प्रतिदिन पिसकर, भूखों मरकर,

भैंसागाड़ी पर लदा हुआ,

जा रहा चला मानव जर्जर,

है उसे चुकाना सूद, कर्ज़

है उसे चुकाना अपना कर,

जितना ख़ाली है उसका घर

उतना ख़ाली उसका अन्तर

औ' कठिन भूख की जलन लिए

नर बैठा है बनकर पत्थर,

पीछे है पशुता का खण्डहर,

दानवता का सामने नगर ,

मानवता का कृश कँकाल लिए


चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !

               दो 


हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले ।

मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।


आए बनकर उल्लास कभी, आंसू बनकर बह चले अभी

सब कहते ही रह गए, अरे, तुम कैसे आए, कहाँ चले ।


किस ओर चले? मत ये पूछो, बस, चलना है इसलिए चले

जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले ।


दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हंसे और फिर कुछ रोए

छक कर सुख-दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले ।


हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले

हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले ।


हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके

हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले ।


हम भला-बुरा सब भूल चुके, नतमस्तक हो मुख मोड़ चले

अभिशाप उठाकर होठों पर, वरदान दृगों से छोड़ चले ।


अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले

हम स्वयं बन्धे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले ।


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