रविवार, 25 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 32 -भगवती चरण वर्मा

                 

  


भगवती चरण वर्मा 

 एक 

चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !


गति के पागलपन से प्रेरित

चलती रहती संसृति महान,

सागर पर चलते हैं जहाज़ ,

अम्बर पर चलते वायुयान .

भूतल के कोने-कोने में

रेलों-ट्रामों का जाल बिछा ,

हैं दौड़ रही मोटर-बसें

लेकर मानव का वृहत ज्ञान !


पर इस प्रदेश में जहाँ नहीं

उच्छ्वास, भावनाएँ चाहें ,

वे भूखे अधखाए किसान,

भर रहे जहाँ सूनी आहें .

नंगे बच्चे, चिथड़े पहने,

माताएँ जर्जर डोल रहीं ,

है जहाँ विवशता नृत्य कर रही,

धूल उड़ाती हैं राहें !


बीते युग की परछाईं-सी,

बीते युग का इतिहास लिए,

'कल' के उन तन्द्रिल सपनों में

'अब' का निर्दय उपहास लिए,

गति में किन सदियों की जड़ता,

मन में किस स्थिरता की ममता

अपनी जर्जर सी छाती में,

अपना जर्जर विश्वास लिए !

भर-भरकर फिर मिटने का स्वर,

कँप-कँप उठते जिसके स्तर-स्तर

हिलती-डुलती, हँफती-कँपती,

कुछ रुक-रुककर, कुछ सिहर-सिहर,


चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !


उस ओर क्षितिज के कुछ आगे,

कुल पाँच कोस की दूरी पर,

भू की छाती पर फोड़ों-से हैं,

उठे हुए कुछ कच्चे घर !

मैं कहता हूँ खण्डहर उसको,

पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,

पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ,

नारियाँ जन रहीं हैं ग़ुलाम,

पैदा होना फिर मर जाना,

बस, यह लोगों का एक काम !

था वहीं कटा दो दिन पहले

गेंहूँ का छोटा एक खेत !

तुम सुख-सुषमा के लाल,

तुम्हारा है विशाल वैभव-विवेक,

तुमने देखी है मान-भरी

उच्छृंखल सुन्दरियाँ अनेक,

तुम भरे-पुरे, तुम हृष्ट-पुष्ट,

ओ तुम समर्थ कर्ता-हर्ता,

तुमने देखा है क्या बोलो,

हिलता-डुलता कंकाल एक ?

वह था उसका ही खेत,

जिसे उसने उन पिछले चार माह,

अपने शोणित को सुखा-सुखा,

भर-भरकर अपनी विवश आह,

तैयार किया था और घर में

थी रही रुग्ण पत्नी कराह !


उसके वे बच्चे तीन, जिन्हें

माँ-बाप का मिला प्यार न था,

थे क्षुधाग्रस्त बिलबिला रहे

मानों वे मोरी के कीड़े ,

वे निपट घिनौने, महापतित,

बौने, कुरूप टेढ़े-मेढ़े !

उसका कुटुम्ब था भरा-पूरा

आहों से, हाहाकारों से ,

फाको से लड़-लड़कर प्रतिदिन

घुट-घुटकर अत्याचारों से .

तैयार किया था उसने ही

अपना छोटा-सा एक खेत !

बीबी बच्चों से छीन, बीन

दाना-दाना, अपने में भर,

भूखे तड़पें या मरें, भरों का

तो भरना है उसको घर ,

धन की दानवता से पीड़ित कुछ

फटा हुआ,कुछ कर्कश स्वर ,


चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !


है बीस कोस पर एक नगर,

उस एक नगर में एक हाट,

जिसमें मानव की दानवता

फैलाए है निज राज-पाट;

साहूकारों का भेष धरे है

जहाँ चोर औ' गिरहकाट,

है अभिशापों से घिरा जहाँ

पशुता का कलुषित ठाट-बाट.

चान्दी के टुकड़ों को लेने,

प्रतिदिन पिसकर, भूखों मरकर,

भैंसागाड़ी पर लदा हुआ,

जा रहा चला मानव जर्जर,

है उसे चुकाना सूद, कर्ज़

है उसे चुकाना अपना कर,

जितना ख़ाली है उसका घर

उतना ख़ाली उसका अन्तर

औ' कठिन भूख की जलन लिए

नर बैठा है बनकर पत्थर,

पीछे है पशुता का खण्डहर,

दानवता का सामने नगर ,

मानवता का कृश कँकाल लिए


चरमर- चरमर- चूँ- चरर- मरर

जा रही चली भैंसागाड़ी !

               दो 


हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले ।

मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।


आए बनकर उल्लास कभी, आंसू बनकर बह चले अभी

सब कहते ही रह गए, अरे, तुम कैसे आए, कहाँ चले ।


किस ओर चले? मत ये पूछो, बस, चलना है इसलिए चले

जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले ।


दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हंसे और फिर कुछ रोए

छक कर सुख-दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले ।


हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले

हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले ।


हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके

हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले ।


हम भला-बुरा सब भूल चुके, नतमस्तक हो मुख मोड़ चले

अभिशाप उठाकर होठों पर, वरदान दृगों से छोड़ चले ।


अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले

हम स्वयं बन्धे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले ।


मेरे मन के गीत : 6- भारत भूषण

 



भारत भूषण 

                          एक 

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए


तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या

चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया

बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए

कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए


बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े

पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े

होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए

चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए


बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के

नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के

जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए

ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए


दो 

मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना

मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना


सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं

मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं

ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ

मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं

बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है

है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना


सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया

आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया

छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई

जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया

मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला

जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना


सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ

सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ

मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ

बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ

लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है

उड़ने को पंख नहीं मेरे, सारा पथ दुर्गम अनजाना


काली रूखी गदबदा बदन, कांसे की पायल झमकाती

सिर पर फूलों की डलिया ले, हर रोज़ सुबह मालिन आती

ले गई हज़ारों हार निठुर, पर मुझको अब तक नहीं छुआ

मेरी दो पंखुरियों से ही, क्या डलिया भारी हो जाती

मैं मन को समझाता कहकर, कल को ज़रूर ले जाएगी

कोई पूरबला पाप उगा, शायद यूँ ही हो कुम्हलाना


उस रोज़ इधर दुल्हा-दुल्हन को लिए पालकी आई थी

अनगिनती कलियों-फूलों से, ज्यों अच्छी तरह सजाई थी

मैं रहा सोचता गुमसुम ही, ये भी हैं फूल और मैं भी

सच कहता हूँ उस रात, सिसकियों में ही भोर जगाई थी

तन कहता मैं दुनिया में हूँ, मन को होता विश्वास नहीं

इसमें मेरा अपराध नहीं, यदि मैं भी चाहूँ मुसकाना


पूजा में चढ़ना होता तो, उगता माली की क्यारी में

सुख सेज भाग्य में होती तो, खिलता तेरी फुलवारी में

ऐसे कुछ पुण्य नहीं मेरे, जो हाथ बढ़ा दे ख़ुद कोई

ऐसे भी हैं जिनको जीना ही पड़ता है लाचारी में

कुछ घड़ियाँ और बितानी हैं, इस कठिन उपेक्षा में मुझको

मैं खिला पता किसको होगा, झर जाऊंगा बे-पहचाना |


                     तीन 

तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा

धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी


रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था

मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था

गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए

ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था

जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले

मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी


इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते

हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते

माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है

हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते

दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे

सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी


मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे

चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे

ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती

तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे

अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे

तन को बेचैन विचरना था, मन में कस्तूरी रहनी थी |


                चार 

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई

बांह में है और कोई चाह में है और कोई


साँप के आलिंगनों में

मौन चन्दन तन पड़े हैं

सेज के सपनो भरे कुछ

फूल मुर्दों पर चढ़े हैं


ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई

देह में है और कोई, नेह में है और कोई


स्वप्न के शव पर खड़े हो

मांग भरती हैं प्रथाएं

कंगनों से तोड़ हीरा

खा रहीं कितनी व्यथाएं


ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई

सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई


जो समर्पण ही नहीं हैं

वे समर्पण भी हुए हैं

देह सब जूठी पड़ी है

प्राण फिर भी अनछुए हैं


ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई

हास में है और कोई, प्यास में है और कोई |

                पांच 


जैसे पूजा में आँख भरे झर जाय अश्रु गंगाजल में

ऐसे ही मैं सिसका सिहरा

बिखरा तेरे वक्षस्थल में!


रामायण के पारायण सा होठों को तेरा नाम मिला

उड़ते बादल को घाटी के मंदिर में जा विश्राम मिला

ले गये तुम्हारे स्पर्श मुझे

अस्ताचल से उदयाचल में!


मैं राग हुआ तेरे मनका यह देह हुई वंशी तेरी

जूठी कर दे तो गीत बनूँ वृंदावन हो दुनिया मेरी

फिर कोई मनमोहन दीखा

बादल से भीने आँचल में!


अब रोम रोम में तू ही तू जागे जागूँ सोये सोऊँ

जादू छूटा किस तांत्रिक का मोती उपजें आँसू बोऊँ

ढाई आखर की ज्योति जगी

शब्दों के बीहड़ जंगल में!





जनवादी गीत संग्रह : 'लाल स्याही के गीत' 34-अहमद फराज

 


                              अहमद फराज 

ये खेत हमारे ,ये खलिहान हमारे |                                                                                                                       पूरे हुए एक उम्र के अरमां हमारे |


हम वो जो कड़ी धूंप में जिस्मों को जलाएं 

हम वो हैं जो सहराओं को गुलज़ार बनाएं 

हम अपना लहू ख़ाक के तोड़ों को पिलायें 

इस पर भी घरोंदे रहे वीरान हमारे  |



हम रोशनी लाये थे लहू अपना बहाकर 

हम फूल उगाते थे पसीने में नहाकर 

ले जाता मगर और कोई फसल उठाकर 

रहते थे हमेशा तही-दामान हमारे  |



अब देश की दौलत नहीं जागीर किसी की 

अब हाथ किसी के नहीं तकदीर किसी की 

पांवों में किसी के नहीं जंजीर किसी की 

भूलेगी ना दुनिया कभी एहसान हमारे |


शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

मेरे मन के गीत : 5- मंजुल मयंक

 



 मंजुल मयंक 

एक

रात ढलने लगी, चाँद बुझने लगा,

तुम न आए, सितारों को नींद आ गई ।


धूप की पालकी पर, किरण की दुल्हन,

आ के उतरी, खिला हर सुमन, हर चमन,

देखो बजती हैं भौरों की शहनाइयाँ,

हर गली, दौड़ कर, न्योत आया पवन,


बस तड़पते रहे, सेज के ही सुमन,

तुम न आए बहारों को नीद आ गई ।

 

व्यर्थ बहती रही, आँसुओं की नदी,

प्राण आए न तुम, नेह की नाव में,

खोजते-खोजते तुमको लहरें थकीं,

अब तो छाले पड़े, लहर के पाँव में,


करवटें ही बदलती, नदी रह गई,

तुम न आए किनारों को नींद आ गई ।


रात आई, महावर रचे साँझ की,

भर रहा माँग, सिन्दूर सूरज लिए,

दिन हँसा, चूडियाँ लेती अँगडाइयाँ,

छू के आँचल, बुझे आँगनों के दिये,


बिन तुम्हारे बुझा, आस का हर दिया,

तुम न आए सहारों को नीद आ गई ।

               दो 

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा

उस गली से हमें तो गुज़ारना नहीं |

जो डगर तेरे द्वारे पे जाती ना हो

उस डगर पे हमें पाँव रखना नहीं |

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा.........


ज़िन्दगी में कई रंगरलियाँ सही

हर तरफ मुस्कुराती ये कलियाँ सही

खूबसूरत बहारों की गलियाँ सही

जिस चमन में तेरे पग में कांटे चुभे

उस चमन से हमें फूल चुनना नहीं |

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा ..........


हाँ ये रस्में ये कसमें सभी तोड़ के

तू चली आ चुनर प्यार की ओढ़ के

या चला जाऊंगा मैं ये जग छोड़ के

जिस जगह याद तेरी सताने लगे

उस जगह एक पल भी ठहरना नहीं |

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा ............

उस गली से हमें तो गुज़ारना नहीं

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा |


गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

मेरे मन के गीत : 4- राजेंद्र राजन

 


  राजेंद्र राजन            


           एक 

मिले न बात और थी, मिले तो बात और है

इक आग है पवित्र सी, उस आग को टटोलिए

मिज़ाज ख़ुश्गवार है, के वक़्त की पुकार है

कि उम्र की बहार को, न संयमों से तोलिए


ये तेरे मेरे साथ है, ये रात बात सुन रही

किसी के सामने न यूँ दिलों के भेद खोलिए

तेरे भी होंठ चुप रहें, मेरे भी होंठ चुप रहें

जो कुछ भी बोलना है वो, नज़र-नज़र से बोलिए


उठा कर दम ठहर गया, अजीब से मकाम पर

नयन लजाए से किसी का पथ निहारने लगे

मदभरी उमंग के भी पंख फड़फड़ा उठे

तो सोए सोए अंगों को वसन उघाड़ने लगे


सन्त से समीर ने भी आयु भेद पा लिया

हुआ कि तन के साथ-साथ प्यार माँगने लगे

तपस्विनी हिना को भी शबाब इस कदर चढ़ा

कि होंठ दहके से पिया-पिया पुकारने लगे


उड़ सकूँ उमंग से जो अपने पंख खोलकर

मैं विश्व में वो खोया आसमान ढूँढ़ने चला

तय किया था हर डगर पे हम चलेंगे साथ-साथ

हर डगर पर स्वप्न के निशान ढूँढ़ने चला


उम्र जब निकल गई कि वक़्त को निगल गई

मैं ज़िन्दगी में प्यार का विधान ढूँढ़ने चला

हो चुका था जिस नगर से बेदख़ल तो देखिए

उसी नगर में छोटा-सा मकान ढूँढ़ने चला ।

            दो 

केवल दो गीत लिखे मैंने

इक गीत तुम्हारे मिलने का

इक गीत तुम्हारे खोने का।


सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों

नदियों-नदियों, लहरों-लहरों

विश्वास किए जो टूट गए

कितने ही साथी छूट गए

पर्वत रोए-सागर रोए

नयनों ने भी मोती खोए

सौगन्ध गुँथी सी अलकों में

गंगा-जमुना-सी पलकों में ।


केवल दो स्वप्न बुने मैंने

इक स्वप्न तुम्हारे जगने का

इक स्वप्न तुम्हारे सोने का


बचपन-बचपन, यौवन-यौवन

बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन

नीला अम्बर, श्यामल मेघा

किसने धरती का मन देखा

सबकी अपनी है मजबूरी

चाहत के भाग्य लिखी दूरी।

मरुथल-मरुथल, जीवन-जीवन

पतझर-पतझर, सावन-सावन

केवल दो रंग चुने मैंने

इक रंग तुम्हारे हंसने का

इक रंग तुम्हारे रोने का ।


केवल दो गीत लिखे मैंने

इक गीत तुम्हारे मिलने का

इक गीत तुम्हारे खोने का ।


          तीन 

मैं लिपटकर तुम्हें स्वप्न के गांव की

इक नदी में नहाता रहा रात भर

कोई था भी नहीं, ज़िन्दगी की जिसे

मैं कहानी सुनाता रहा रातभर ।


मैंने छू भर लिया, क्या गज़ब हो गया

मखमली जिस्म से उठ रहा था धुआँ

मन लगा तोड़ने तब सभी साँकलें

इक परिन्दे को ज्यों मिल गया आसमाँ

हो गया वृद्ध लाचार संयम विकल

चीख़कर चरमराता रहा रातभर ।


दो इकाई-इकाई गुणा हो गईं

धीरे-धीरे निलम्बित हुईं दूरियाँ

एक भी मेघ आकाश में था नहीं

किन्तु महसूस होती रहीं बिजलियाँ

थी अन्धेरों भरी रात छाई मगर

मैं दिवाली मनाता रहा रातभर ।


एक अपराध भी तप सरीखा हुआ

बँध गए हम किसी साज़ के तार से

दस दिशाएँ प्रणय गीत गाती रहीं

शब्द झरते रहे आँख के द्वार से

था अजब मदभरा एक वातावरण

मैं स्वयं को लुटाता रहा रातभर ।


हमारे प्रतिनिधि कवि : 32- मासूम गाजियाबादी

 

                         मासूम गाजियाबादी


आँखों की लबों की ज़ुल्फ़ों की रुख़सार की बातें मत करना |
इस मुल्क़ में मुश्किल और भी हैं सिंगार की बातें मत करना||

करनी ही ज़ुरूरी हैं तो चलो मज़लूम के ग़म की बात करें|
बेकार हैं बातें पायल की, झनकार की बातें मत करना||

तक़दीरे-वतन लिखने वालों नस्लों को भुगतनी पडती हैं|
बच्चों से किताबों के ज़रिये तक़रार की बातें मत करना||

मुफ़लिस की ज़ुबां बन जाता था बेक़स की हिमायत करता था|
ग़मख़ार नहीं व्यापार है अब अख़बार की बातें मत करना ||

ए दोस्त यहाँ के लोगों से चल शर्त है मिलवा तो दूंगा |
इस शहर के लोगों से मिलना किरदार की बातें मत करना||

ए पर्दानशीनों याद रहे शौहर की नक़ाबें पहन के अब |
जिस्मों की तिजारत होती है बाज़ार की बातें मत करना ||

तू ख़ूने-तमन्ना कर लेना ज़िद मत करना मासूम है तू |
ज़रदार की महफ़िल में जा कर नादार की बातें मत करना ||

                          2 
                   
मेरे सामने मेरी कौम के सभी बेकसों का सवाल है |
तू अलग नहीं मेरे हमनशीं तेरी चाहतों का ख़याल है |

किसी रोज़ तू मेरे साथ चल मैं  यतीम बच्चों में ले चलूँ
तुझे ज़िन्दगी का पता चले ये ग़मों से कितनी निढाल है |

सरे-शाख़ फूल बुझे-बुझे जो दिखाई दें तो ये सोचना
यही मुफ़लिसी कि दलील है यही गुरबतों कि मिसाल है |

अभी तिलमिलाते वो भूक से मेरे सामने कई तिफ़्ल हैं
तेरे गेसुओं कि पनाह में अभी साँस लेना मोहाल है |

कभी बेईमानों कि चींख ने कभी कमसिनों कि पुकार ने
तेरी सिसकियों को दबा दिया मुझे ग़म है इसका मलाल है |

मेरी बात सुन यही फ़र्क है मेरी फ़िक्र में तेरी सोच में
मेरे दिल में दर्दे-जहान है तुझे सिर्फ अपना ख़याल है |
                                             -मासूम गाजियाबादी 

जनवादी गीत संग्रह : 'लाल स्याही के गीत' 33-बृज राज किशोर 'राहगीर'

 गीत

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बुतों का युग न आ जाए
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कहीं प्रतिमा हज़ारों आदमी का हक न खा जाए।
यही डर सामने है अब, बुतों का युग न आ जाए।।
चले थे देश को उन्नत बनाने का इरादा कर,
मगर पाषाण युग में अब, इसे ले जा रहे हो क्या?
नई जो सोच लाए हो, नई जो घोषणाएँ हैं,
इसी से लोग खुश होंगे, यही समझा रहे हो क्या?
न जाने वक़्त कब आकर, तुम्हें ही कुछ सिखा जाए।
यही डर सामने है अब, बुतों का युग न आ जाए।।
हमारे पेट रोटी से भरेंगे या शिलाओं से,
हमें तो नौकरी दे दो, तुम्हें मन्दिर मुबारक हो।
हमारी तुम सुनो, शायद तुम्हारी रामजी सुन लें,
हमारी इन दुआओं की पहुँच शायद वहाँ तक हो।
करो कुछ काम की बातें, तभी तो कुछ सुना जाए।
यही डर सामने है अब, बुतों का युग न आ जाए।।
शिकायत थी तुम्हें तुष्टिकरण की जिस सियासत से,
उसी तुष्टिकरण की राह पर तो चल रहे हो तुम।
उठाकर धार्मिक मुद्दे, दिलों से खेल लेते हो,
कभी मन्दिर, कभी मूरत बनाकर छल रहे हो तुम।
ज़रूरी ये नहीं बिल्कुल, तुम्हें कल फिर चुना जाए।
यही डर सामने है अब, बुतों का युग न आ जाए।।
सियासत धर्म की हो, जाति की हो, या प्रदेशों की,
कभी भी देशहित के फ़ैसले लेने नहीं देती।
सभी दल एक जैसे हैं, सभी को है पता इसका,
करो भड़काऊ बातें, ख़ूब होगी वोट की खेती।
सदा उल्लू बने हैं हम, कहो अब क्या किया जाए?
यही डर सामने है अब, बुतों का युग न आ जाए।।



--बृजराज किशोर 'राहगीर'

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

हमारे प्रतिनिधि कवि : 31-मजहर सयानावी

 कड़वे जिसके बोल हैं उसका अपना बस थोड़े ही है                                                                                                   गन्ना हो तो रस भी निकले बात में रस थोड़े ही है |

वो  है  चुर्रेबाज  तो  होगा  हम  भी  हैं  खुद्दार
हम जैसे लोगों की उसके हाथ में नस थोड़े ही है |

सब जाने हैं हम हैं उसके सच्चे पक्के दोस्त
लेकिन उसकी गैर मुनासिब बात में रस थोड़े है |

आये तो जल्दी आ जा वरना फिर मिटटी का ढेर
बिस्तर पर बीमार तेरा दो चार बरस थोड़े है |

और थे जब हालात तो 'मजहर' बात थी जब कुछ और
अब तेरे हालात हैं ओर अब बात में जस थोड़े है |

                         2


मेरी  खुद्दार  तबियत  को  गवारा  भी  नहीं,
जी  हजूरी  के  सिवा  दूसरा  चारा  भी  नहीं |


जिन्दगी  छीन  के  वो ले  गया  मेरी  मुझसे, 
और सितम ये है कि उसने मुझे मारा भी नहीं |


दर ब दर अब तो भटकना मेरी  मजबूरी  है, 
तुमने रोका भी नहीं, तुमने पुकारा भी नहीं |


जिंदगी जंग  है  तुझसे  मेरी मरते दम तक, 
तुझको जीता भी नहीं और मैं हारा भी नहीं |


मैं  तेरे  प्यार  को  तस्लीम  करूँ  तो  कैसे ?
मेरी जानिब तेरा हल्का सा इशारा भी नहीं |

                                             -  मजहर सयानावी

जनवादी गीत संग्रह : 'लाल स्याही के गीत' 32-प० ईश्वर चन्द्र 'गंभीर'--











जो ना किये विकास क्षेत्र में अब तो उन पर चोट करें 
स्वच्छ छवि हो सही आचरण केवल उसको वोट करें। 

लूटपाट कर घर भरने वालों को हमें हराना है 
कर्मठ और जुझारू जो हो उसको हमें जिताना है| 
प्रत्याशी भी दूर जहन से चालाकी और खोट करें।
स्वच्छ छवि हो सही आचरण केवल उसको वोट करें। 

दागी, बागी और मदारी अब तक चुनते आये हैं  
मतदाताओं ने भी  उनसे कितने धोखे खाये हैं |
अगर कोई देने आये तो वापिस दारू, नोट करें।
स्वच्छ छवि हो सही आचरण केवल उसको  वोट करें। 

शिक्षा,चिकित्सा, साफ पेयजल जो दे उसको लाना है 
हमें देश में अमन चैन का ही परचम लहराना है।
सबके लिये आवाज उठायें बन्द ना अपने होठ करें

स्वच्छ छवि हो सही आचरण केवलउसको वोट करें। 

आज युवाओं के हाथों में हमको डोर थमानी है 
भारत को भारत की गरिमा फिर हमको लौटानी है।
कहॉं कहॉं किसमें खामी है सारी बातें नोट करें
स्वच्छ छवि हो सही आचरण केवल उसके वोट करें। 

हिन्दू  मुस्लिम अगडे पिछडे ठाकुर हरिजन ना देखे
किसने  वोट दिया  ना  दिया  रखे  ना  ऐसे  लेखे
जो सारी ही जनता का हो जनता जिसे रिमोट करे।
स्वच्छ छवि हो सही आचरण केवल उसको  वोट करें। 

 शहर, गाँव, खलियान, खेत को जो सारी सुविधा देगा  
बिजली, पानी, पुल सडकों को समय समय पर परखेगा।
 ऐसे ही प्रत्याशी को 'गम्भीर' चलें प्रमोट करें
स्वच्छ छवि हो सही आचरण केवल उसको वोट करें। 

                          2

प० ईश्वर चन्द्र 'गंभीर-- 'क्या आजादी का मतलब ये होता है ?'

                 






               
               
                  साठ साल का बूढ़ा भारत रोता है |
                क्या आजादी का  मतलब ये होता है ?
             
               शोषण,अत्याचार,लूट,अपहरण बढे, 
               मानव सस्ते और गेहूँ के भाव चढ़े ,
               आठ साल का बालक बर्तन धोता है |
                                               क्या आजादी का  मतलब ये होता है ?

                नहीं झोंपड़ी में दीपक, बस्ती काली,
                हैवानों की मौत  कर रही रखवाली,
                आधा भारत फुटपाथों पर सोता है |
                क्या आजादी का  मतलब ये होता है ? 

               मानवता के मुँह पर बरस रहे चाँटे,
               मजहब,रंगभेद ने आपस में बांटे,
               रहबर खुद राहों में कांटे बोता है|
                 क्या आजादी का  मतलब ये होता है?           
                                                                                                   
              परेशान हैं सब परिवार शहीदों के,
              सपने टूटे,खून हुये उम्मीदों के,               
              हँसीं उडाता  घोड़ों की अब खोता है |
              क्या आजादी का  मतलब ये होता है ?
                                                          
             घूम रहे दोषी निर्दोष हैं जेलों में, 
             दहशत से सन्नाटा  है अब मेलों में,  
             रिक्शा चला रहा टीपू का पोता है |
              क्या आजादी का  मतलब ये होता है ?

           दीन, दुखी,अबला, दुर्बल,लाचारों को 
           देगा कौन सहारा,इन बेचारों को ,
           आज सियासत में पग पग समझौता  है |
           क्या आजादी का  मतलब ये होता है ? 
                                                            आज करों 'गंभीर' याद वो कुरबानी, 
          जान गवायें भगत सिंह झांसी रानी, 
            गर्व बड़ा शेखर बिस्मिल पर होता है |
               क्या आजादी का  मतलब ये होता है ?

जलता हुआ गॉंधी का वतन देख रहा हूँ ।
पुस्तक की जगह हाथ में गन देख रहा हूँ 

कैसे विवेकानन्द बने कल कोई बच्चा 
पीढी में चरित्रों का पतन देख रहाहूँ  ।

जाता नहीं है फर्क वो बेटी का, बहु का
बांटे हैं दहेजों ने कफन देख रहा हूँ 

तुलसी, कबीर, सूर के दोहे नहीं गाते,
फिल्मी धुनों में सबको मगन देख रहा हूँ 

गंभीर’ जात पांत के झगड़े  नहीं जाते
मैं फिर भी एकता का सपन देख रहाहूँ |


तुम   वीर,  देशभक्त  हो,  आदर्श  हमारे,
जुग-2 जियो खुशहाल रहो अन्ना हजारे | 


आंधी में जलाया है जो  दीपक न बुझेगा, 
ये  रूप  ये  संकल्प जमाने  में  पुजेगा, 
गांधी की तरह तुम कभी हिम्मत नहीं हारे |
करता  है कौन  देश की परवाह  आजकल, 
तुम चल पड़े तो चल पड़ा सेनानियों का दल,  
टूटे   हैं   भ्रष्टाचार   के    मजबूत   सहारे |                        


आवाज युवाओं ने मिलाई  है साथ में,
अब डोर एकता की आ गयी है हाथ में, 
लगता है कि हो जायेंगे गुरबत में गुजारे |
रैली  करो अनशन करो परिणाम चाहिये,
अब  मुक्त  लूटपाट  से  आवाम  चाहिये,
संघर्ष    में   है  सारा  वतन  साथ  तुम्हारे |

तुम  कर्मशील  और  हो  कर्तव्य  परायण, 
एक हाथ में गीता लिए एक हाथ रामायण,
तुमने  लगाए  वन्दे  मातरम  के  ही नारे |  

                                                                      

मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

मेरे मन के गीत : 2 -गोपाल सिंह नेपाली

                               


           1 

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा                                                       मेरी दुल्‍हन सी रातों को, नौलाख सितारों ने लूटा


दो दिन के रैन-बसेरे में, हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो जलता रहता है, पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाई, तस्‍वीर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा

जुगनू से तारे बड़े लगे, तारों से सुंदर चाँद लगा
धरती पर जो देखा प्‍यारे, चल रहे चाँद हर नज़र बचा
उड़ रही हवा के साथ नज़र, दर-से-दर, खिड़की से खिड़की
प्‍यारे मन को रंग बदल-बदल, रंगीन इशारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी, तारों के अधरों की पाती
किसने लिख दी, किसको लिख दी, देखी तो, कही नहीं जाती
कहते तो हैं ये किस्‍मत है, धरती पर रहने वालों की
पर मेरी किस्‍मत को तो, इन ठंडे अंगारों ने लूटा

जग में दो ही जने मिले, इनमें रूपयों का नाता है
जाती है किस्‍मत बैठ जहाँ, खोटा सिक्‍का चल जाता है
संगीत छिड़ा है सिक्‍कों का, फिर मीठी नींद नसीब कहाँ
नींदें तो लूटीं रूपयों ने, सपना झंकारों ने लूटा

वन में रोने वाला पक्षी, घर लौट शाम को आता है
जग से जानेवाला पक्षी, घर लौट नहीं पर पाता है
ससुराल चली जब डोली तो, बारात दुआरे तक आई
नैहर को लौटी डोली तो, बेदर्द कहारों ने लूटा |

                 2

दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।
भौंरों को देख उड़े भौंरे, कलियों को देख हँसीं कलियाँ,
कुंजों को देख निकुंज हिले, गलियों को देख बसीं गलियाँ,
गुदगुदा मधुप को, फूलों को, किरणों ने कहा जवानी लो,
झोंकों से बिछुड़े झोंकों को, झरनों ने कहा, रवानी लो,
दो फूल मिले, खेले-झेले, वन की डाली पर झूल चले
इस जीवन के चौराहे पर, दो हृदय मिले भोले-भाले,

ऊँची नजरों चुपचाप रहे, नीची नजरों दोनों बोले,
दुनिया ने मुँह बिचका-बिचका, कोसा आजाद जवानी को,
दुनिया ने नयनों को देखा, देखा न नयन के पानी को,
दो प्राण मिले झूमे-घूमे, दुनिया की दुनिया भूल चले,

तरुवर की ऊँची डाली पर, दो पंछी बैठे अनजाने,
दोनों का हृदय उछाल चले, जीवन के दर्द भरे गाने,
मधुरस तो भौरें पिए चले, मधु-गंध लिए चल दिया पवन,
पतझड़ आई ले गई उड़ा, वन-वन के सूखे पत्र-सुमन
दो पंछी मिले चमन में, पर चोंचों में लेकर शूल चले,

नदियों में नदियाँ घुली-मिलीं, फिर दूर सिंधु की ओर चलीं,
धारों में लेकर ज्वार चलीं, ज्वारों में लेकर भौंर चलीं,
अचरज से देख जवानी यह, दुनिया तीरों पर खड़ी रही,
चलने वाले चल दिए और, दुनिया बेचारी पड़ी रही,
दो ज्वार मिले मझधारों में, हिलमिल सागर के कूल चले,
दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।

हम अमर जवानी लिए चले, दुनिया ने माँगा केवल तन,
हम दिल की दौलत लुटा चले, दुनिया ने माँगा केवल धन,
तन की रक्षा को गढ़े नियम, बन गई नियम दुनिया ज्ञानी,
धन की रक्षा में बेचारी, बह गई स्वयं बनकर पानी,
धूलों में खेले हम जवान, फिर उड़ा-उड़ा कर धूल चले,
दो मेघ मिले बोले-डोले, बरसाकर दो-दो बूँद चले ।
               3
प्रिये तुम्हारी इन आँखों में मेरा जीवन बोल रहा है

बोले मधुप फूल की बोली, बोले चाँद समझ लें तारे
गा-गाकर मधुगीत प्रीति के, सिंधु किसी के चरण पखारे
यह पापी भी क्यों-न तुम्हारा मनमोहम मुख-चंद्र निहारे
प्रिये तुम्हारी इन आँखों में मेरा जीवन बोल रहा है

देखा मैंने एक बूँद से ढँका जरा आँखों का कोना
थी मन में कुछ पीर तुम्हारे, पर न कहीं कुछ रोना धोना
मेरे लिय बहुत काफी है आँखों का यह डब-डब होना
साथ तुम्हारी एक बूँद के, मेरा जीवन डोल रहा है

कोई होगी और गगन में, तारक-दीप जलाने वाली
कोई होगी और, फूल में सुंदर चित्र बनाने वाली
तुम न चाँदनी, तुम न अमावस, सखी तुम तो ऊषा की लाली
यह दिल खोल तुम्हारा हँसना, मेरा बंधन खोल रहा है |