गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

अध्ययन- आत्मकथा ''टुकडे टुकड़े दास्ताँ '' ले ० अमृतलाल नगर

      मुन्शी चम्मच अन्दर तशरीफ लाये उनकी निराली धजा थी, सिकुडनों से भरा पाजामा, गंदी शेरवानी, बगल में रजिस्टर और दाहिना हाथ आदाब की झण्डी हिलाता हुआ- आते ही उन्होंने एक बार टैगोर सहाब को हिकारत से देखा और फिर हिरोईन से कहना शुरू कियाः फलानीबाई आज तो मैं आपसे और सेठ से इनाम जेने का कसब करके आया हूँ । वल्लाह, क्या इस्टोरी है और माशा अल्लाह,क्या क्या मकालमें लिखें हैं मैंने और कैसी जबरदस्त मैकाल्जी भरी है, मैने कि सेठ कसम रजिस्टर की र्को पढा लिखा नहीं लिख सकता। और यह सेठ यह इस्टोरी तो मैंने आप ही के लिये लिखी है। बडे बडे मेरे पीछे पडे कि मुंशी चम्मच ये इस्टोरी हमको दे दो मंगू भाई सुबह घर पर ही आ धमके, पॉंच हजार की बोहनी कराने लगे, मैंने कहा कि आपकी जर्रानवाजी है मगर से स्टोरी तो अपने सेठ को ही दूगा। इसके बादत जो घर से निकला तो चंगु भाई सेठ गाडी पर जा रहे थे। मुझे देखते ही रोक दी, बोले मुंशी ये स्टोरी हमको दे दो। मैंने उनसे भी पल्ला छुडाया। हुरमूजसी सेठ मिले, जबरदस्ती ताजमहल होटल मे घसीट ले गये।व्हिसकी पिलायी, बडी खुशामद की दस हजार रूप्ये के नोट मेरे सामने रख दिये और रजिस्टर छीनने लगे हजूर, मगर मैंने कहा कि नहीं यह इस्टोरी अपने सेठ को ही दूगा और फलानीभाई इसमें हीरोईन बनेगी। मैंने कहा कि मेरे सेठ जैसा कद्रदान कोई नहीं हैं। लाईये सेठ एक बीडी पिलाईये इसी बात पर । मुंशी जी ने सेठ और उनकी माशूका को अपने शीशे में उतार लिया और बात फिर शुरू की। ये हजूर नये नये कालिज के छोकरे आकर फिल्म इण्डस्ट्री मे टिकनीक और मैकाल्जी की बात बघारने लगे हैं। अजी मुंशी चम्मच के आगे इनकी हस्ती क्या हैजो मैकाल्जी या टिकनीक के करीश्मे दिखला सके। अजी सेठ ये सब के सब‘फेड इन‘ से सोनारियों शुरू करते, इसमें नई टिकनीक क्या हुई? मैंने यह इस्टिररियों सिनोरियो ‘ फेड आउट‘ से शुरू किया है कि सिनेमा हाल में  पहुचे, तीसरी घंटी बजी और फेडआउट और फिर कम्पनी का नाम आया, फिर फलानीबाई का नाम चमका, फिर हजूर बडे  हुरूपों में आपका नाम दिखायी पडा, लोगों ने तालियॉं बजाई और फिर सीन शरू हुआ। जरा सीन मुलाहिजा फरमायेगा सेठ, मुंशी चम्मच ने कलम तोड दी है कि चॉंदनी रात है, मीलों तक समन्दर लहरा रहा है और जो कैमरा घूमा तो देखता क्या है कि रेगिस्तान रेगिस्तान रेगिस्तान! न आदमी न आदमजाद,न परिन्दा न दरिन्दा, और बादल घिर आये हैं ,बिजली कडक रही है, मूसलाधार बारिश हो रही है। क्या सीन बनाया है सेठ एक बीडी पिलाईये इसी बात पर। जी हॉं तो सेठ तब कैमरा घूमता है तो देखते क्या हैं कि एक लम्बा ताड का पेड खडा है और उस पर एक आदमी बैठा हैं। पह आदमी कौन है जानते हैं? अजी पूछिये कौन है? जी वही आपको हीरो है सेठ। और जानते हैं हीरो पेड पर क्याकर रहा है ?अजी पूछिये कि क्या कर रहा है? बस यही तो मैंने मैकाल्जी का करिश्मा दिखाया है। हिरोईन को विलेन उडा ले गया है और हीरो पेड पर चढकर उसकी तलाश कर रहा है। उसकी ऑंखों में ऑंसू भरे हैं और वो गाना गा रहा है?‘ दिलरूबा दिलरूबा,दिनरूबा, दिलरूबा पुकारता है, एक बार नहीं पूरे चार बार दिनरूबा को पुकारता है, सुनने वाले के कलेजे फट जाते हैं। हाय, क्या सीन है, एक बीडी और पिला दीजिये इसी बात पर ।‘‘ 
  आरम्भ में सौभाग्य से मुझे भले लौगों के बीच रहने और काम करने का अवसर मिल गया। आज के दो ख्यातनामा निर्माता निर्देशक श्री महेश कौल और श्री किशैर साहू उस समय मेरे अंतरंग साथी बने।
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.. हाल ही में मेरे मित्र का एक प्रख्यात सिनेमा स्टार, निर्माता, और निर्देशक ने अपने एक पत्र में मुझसे पूछा कि काम के बाद सभाओं में भाषणबाजी करके तुम निश्चय ही बोर हो जाते होगे, आखिर तुम्हारे मनारेंजन का साधन क्या है?
   सवाल मजे का था। यह सच है कि भाषणबाजी से बेहद उब गया हूँ । साहित्यिक सॉंस्कृतिक सभायें बहुत बढ गई है। उनके लिये सभापति और उदघाटनकर्ताओं की जरूरत पडती है। अक्सर ही पकडा जाताहूँ | पहले शौक आता था,कुछ मोह भ्रम भी था कि इससे साहित्यिक सॉंस्कृतिक आन्दोलन जोर पकड जायेगा, लेकिन अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया ये कोरी छलना थी। ईमानदारी की बात कहूँ गा  कि कवि सममेलन में बहुत बोर होता हूँ । कवि नये नये होते हैं,गाने की तर्ज भी कई की उम्दा होती है। पर भाव और विचार घिसे पिटे पुराने होते हैं। माया और ब्रहम की फिलासफी से भरी बातें इन लौगों से सुनकर कभी हॅंसी आती है कभी क्रोध आता है। जिन्दगी का कारवॉं चलाते बढाते कवि जी जब योगीराज अरविन्द के चचा बनकर अपना दर्शन बघारते हूँ  तब लगता है कि इन योगियों ने अपना अनुभव सिद्ध करने के लिये बेकार ही त्याग तपस्या की, यदि गलेबाज कवि सम्मेलनी कवि बन जाते तो चटपट माया और ब्रहम का साक्षत्कार हो जाता । कोई कवि प्रेम और विरह का बखान करते हैं तो लगता है कि उर्दु शायरी की चिचुडी हडडी को नये सिरे से चिचोड रहे हैं। इधर लोक कविता का चलन चला है, उसकी भैस,पडवे, नीम,बरगद ,कोयलिया की बारहखडी सुनते सुनते कान पक गये हैं। उस चित्रण में कवि यत्किचिंत भी प्राण नहीं डाल पाता। मजे की बात ये है कि इन कवियों को अध्ययन नाम की वस्तु से सख्त परहेज है। महज अपनी प्रतिभा के पुजारी या यूँ  कहूँ कि पैगम्बर  बने रहना चाहते हैं। पहले सीखने की इच्छा युवको में संस्कार बनकर समायी थी अब स्वयम् सिद्ध गुरू लोग हैं। देखकर कर हैरत होती है कि आखिर किस मुगाल्ते में अपना जीवन बिताते हैं।     
                                          .........‘टुकडे टुकडे दास्तान‘- अमृतलाल नागर






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