कोई दिन नहीं गुजरता जब प्रेमी युगलों की हत्या या आत्महत्या का समाचार अखबारों में पढने को न मिलता हो। अपनी परम्परा और मर्यादा के प्रति सजग और सवेंदनशील बुजुर्ग पीढी युवाओं को नये जमाने की नयी हवा में अंगड़ाई लेकर उठते और उडते देखकर बौखला गई है। अन्तरजातीय विवाह को लेकर हमारे समाज में उथल पुथल मच रही है। पुरानी पीढी को सदियों सहस्त्रों वर्ष पुरानी अपनी परम्परा और मर्यादा को टूटते देखना असह्य हो गया है।वे अपने सारे रिश्ते नाते भूलकर परिवर्तनकामी युवाओं को अपना सबसे बडादुश्मन मान रहे हैं ।

जिन्दगी की जददो जहद में उनका कोई साथी नहीं है। अधिकॉंश लौग उनके दुश्मन बने हुये हैं-परिवार,सरकार,पुलिस,वकील और हर दलील। सब उनके विरूद्ध। सब उन्हें गलत और अपराधी साबित करने को मुस्तैद। वे भी जो उनके जिगरी दोस्त होने का दम भरते हैं,वक्त पडने पर मुह चुराने लगते हैं। नजरें बचाने लगते हैं। भाषण और लेखन की धुआंधार बारिश करने वाले दम साध जाते हैं। उस तमाशाई की तरह जो डूबने वाले को देखकर अफसोस तो करते हैं इमदाद नहीं करते। बस यही कहते हैं कि हम क्या करें समाज ही ऐसा है। ये नहीं बदलेगा। पर यहां डूबकर कोई नहीं मरना चाहता। उन्हें तो जबरदस्ती झूठी मर्यादाओ के गहरे समन्दर मे डुबोकर मारा जा रहा है,सरेआम उनकी हत्या की जा रही है। फिर बुद्धिजीवियों और प्रगतिशील विचाराकों लेखकों यह कैसा विलाप या अफसोस। यह तो कुटिल प्रलाप है,शर्मनाक कायरता है, दण्डनीय अपराध है।कोरी भाषणबाजी या कागज रंगने से अच्छा है कि हम उनकी जीवन रक्षा के लिये कुछ सार्थक कार्य करें। इसमें आपातकालीन आश्रय और कानूनी सुरक्षा उपलब्ध कराना सबसे महत्वपूर्ण है। इसी के साथ उनके लिये सम्मानजनक आजीविका अर्जित करने में भी मदद करना जरूरी है। क्योंकि सच्चाई यही है कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर प्रेमीजन जाति बिरादरी के ज्यादा दबाव में नहीं आते। वैसे भी जाति,उपजाति,धर्म, सम्प्रदाय की व्यवस्था समाज को जोडने में कम और विभाजित करने में ज्यादा जिम्मेदार हैं। अतः इन बेडियों का जल्द से जल्द टूट जाना ही समाज के हित में है और यह कार्य युवावर्ग ही बेहतर ढंग से कर सकता है। प्रेम इसका सर्वश्रेष्ठ माध्यम है।क्यों कि जाति नहीं देखता प्यार। दौलत नहीं मॉंगता प्यार। वह उन सारी बुराईओं से दूर है । जो प्रेम में बाधा बनते हैं।
धरती पर जब मनुष्य का जन्म हुआ तब धर्म या जाति के बन्धन नहीं थे। वे तो मनुष्य ने बाद में स्वयं अपनी सुविधा के लिये बनाये जो आज उसकी स्वतंत्रता में सबसे बडी बाधा बन गये हैं।भारतीय संस्कृति में नारी को पुरूष की अर्द्धांगॅंनी बताया गया है। किसी एक के अभाव में दूसरे का जीवन अधूरा है। इसीलिये हमारे यहॉं अर्द्धनारीश्वर की कल्पना की गई। ऐसा देव जो स्त्री भी है और पुरूष भी। भारतीय अर्द्धनारीश्वर की परिकल्वना के समान ही यूनान की पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीनकाल में इस संसार में ऐसे प्राणी बसते थे जो आधे नारी और आधे पुरूष थे । उनको अपनी सम्पूर्णता पर अभिमान था और इस अभिमान में वे देवताओं से विद्रोह कर बैठे। कहते हैं देवताओं का राजा जीयस उनके घमंड से इतना नाराज हुआ कि उसने इन लौगों को दो टुकडों अर्द्धनारी और अर्द्धनर में अलग’अलग कर भूमि पर बिखरा दिया। उस समय से लेकर आज तक नर और नारी के वे विभक्त भाग एक दूसरे से संयुक्त होने के लिये तडफ रहे हैं और जब कभी जहॉं कहीं भी वे जुडते हैं जुडाव का वह समय उनके लिये सबसे सुखद होता है। यद्यपि खुशी के वे पल थोडे ही होते हैं और उन पर भी सारे जमाने की निगाहें टेढी रहती हैं पर तब भी वह इतना आनन्द दायक समय होता है कि वे उसके आगे धरती या आसमान के किसी देवता की परवाह नहीं करते। मनुष्य तो क्या देवताओं के विधान धरे के धरे रह जाते हैं और प्रेमीजन जन मिल जाते हैं।
सदियों से यही प्रेमकथा चली आ रही है। बस उसके नायकों के नाम बदल जाते हैं। ऑनर किलिंग भी कोई आज का मसला नहीं है। महाभारत में दर्ज है कि अर्जुन श्रीकृष्ण की सगी बहन सुभद्रा से प्रेम करता था। श्रीकष्ण ने उसकी मनोदशा को भॉंपकर कहा कि यदुवंशी उनके प्यार को बर्दाश्त नहीं करेंगें। इससे पहले कि कोई अनहोनी हो वे दोनों यहॉं से दूर भाग जायें। अर्जुन ने ऐसा ही किया। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार एक दिन पर्वत पूजा के लिये जा रही सुभद्रा को अर्जुन अपने रथ में बिठाकर भगा ले गया। सुभद्रा के भाग जाने की खबर पाकर यादवगण हथियार लेकर उठ खडे हुये। बलराम ने यह पता लगने पर कि श्रीकृष्ण का भी उनके भाग जाने में योगदान है वे श्रीकृष्ण पर बहुत क्रुद्ध हुये। बलराम ने कहा कि जैसे सर्प अपने सर पर पैर रखने वाले को क्षमा नहीं करता है उसी प्रकार मैं उसे क्षमा नहीं करूगा । मैं अकेला ही इस धरा को कुरूवंशहीन कर दूगा।तब श्रीकृण ने उन्हें समझाया कि अर्जुन किसी भी तरह इस सम्बन्ध के अयोग्य नहीं है। उसे युद्ध में कोई नहीं जीत सकता। ऐसे शूरवीर से वैवाहिक सम्बन्ध सर्वथा उचित है। श्रीकृष्ण के समझाने पर यादवों ने यह सम्बन्ध स्वीकार कर लिया। यद्यपि बलराम का मन पूरी तरह निर्मल नहीं हुआ और उन्होंनें पाण्डवों का वैसा साथ नहीं दिया जैसा श्रीकृष्ण ने दिया। स्पष्ट है कि यदि अर्जुन और सुभद्रा पकड में आ गये होते तो परिणाम आजकल के ऑनर किलिंग जैसा ही होता। पर तब श्रीकृष्ण जैसे महापुरूष सहायक थे। आज कोई नहीं है।धर्म और सस्कृति के रक्षक अपनी सस्कृति के ऐसे जीवन्त प्रसंगों को पता नहीं क्यों याद नहीं रखते। वे तो पार्को रेस्तराओं में बैठे प्रेमीजनों को अपमानित करने में ही संस्कृति की रक्षा मानते हैं। उनके लिये प्यार का सरेआम इजहार पश्चिम की अपसंस्कृति की देन है। इस हिसाब से तो कृष्ण आवारागर्द कहलायेगा जो वृन्दवन की कुंजगलियों में गोपियों के संग खेला करता था। तब से अब तक गंगा यमुना में कितना पानी बह गया है पर समाज की मनोदशा में कुछ बहुत बदलाव आ गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता।अब जब ऑनर किलिंग की वारदात बडी संख्या में सामने आने लगीं है तब जाकर सरकार और न्यायालय की नींद कुछ टूटती सी दिखायी दे रही है । उम्मीद है जल्द कोई सख्त कानून ऑनर किलिंग के विरूद्ध और प्रेमी जनों के पक्ष में बनाया जायेगा किन्तु उसके लागू होने तक पता नहीं कितने प्रेमी जोडे अपने प्राणों की आहुति दे चुके होंगें।
अमरनाथ 'मधुर'
धर्म और जाती की जो व्याख्या प्रचालन में है वह शोषण को पुष्ट करने वाली है और सही नहीं है.
जवाब देंहटाएंबदलाव आवश्यक है और धीमी गति से ही सही आ भी रहा है ।
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