शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

विश्व पुस्तक दिवस - २३ अप्रैल -- पुस्तके अमर हैं

      


         एक किशौर जैसे ही कोई पुस्तक उठाकर पढना शुरू करता उसका पिता पुस्तक छीन कर फेंक देता तथा उसकी पिटाई करते हुये घर का काम करने को कहता। 
    एक दिन बेटे को चुपचाप पुस्तक पढते देख, पिता ने पुस्तक फाड दी और बोला, ’’इन किताबों को पढने में क्यों अपनी जिन्दगी खराब करता है । मजदूरी कर तभी परिवार का काम चलेगा।’’
   बेटे ने एक कबाडी की दुकान में नौकरी कर ली, जहॉं उसे तरह- तरह की किताबें पढने को मिलने लगी। वह समय मिलते ही उन्हें पढने लग जाता। विभिन्न विषयों को पढने से उसका ज्ञान बढने लगा। पढते पढते उसे लिखने की भी ललक पैदा हुई। 
       उसने एक कहानी लिखी ओर एक पत्रिका में छपने भेज दिया। कहानी छपने पर एक प्रसिद्ध लेखक ने उसकी प्रशंसा में पत्र लिखा । 
  युवक का उत्साह बढा और एक दिन उसने मॉं नाम से एक ऐसा उपन्यास लिखा, जो विश्व की श्रेष्ठतम पुस्तकों में गिना जाता है। मैक्सिम गोर्की नामक उस किशोर की गणना आज विश्व के श्रेष्ठतम लेखको में की जाती है।
    कोई दो हजार वर्ष हुए, सी हवांग ती नाम का एक चीनी सम्राट था। उसे अपनी प्रजा से एक अजीब नाराजगी थी कि लोग इतना पढते क्यों हैं, और जो किताबें पढ नहीं सकते सुनते क्यो हैं? उसको विश्वास नहीं था कि अब तक जो पुस्तके लिखी गयी हैं- वे चाहे इतिहास की हों या दर्शनशास्त्र की या फिर कथा कहानियों की- उसमें उसका और उसके पूर्वजों का ही गुणगान किया गया है। कौन जाने ऐसे लेखक भी हों जिन्होंने सम्राट को बुरा भला कहने की हिम्मत की हो।
      सी हयांग ती का कहना था कि प्रजा को पढने लिखने से क्या मतलब? उसे तो चाहिये कि कस कर मेहनत करे, चुपचाप राजा की आज्ञाओं का पालन करती जाय और कर चुकाती रहे। शांति तो बस ऐसे ही बनी रह सकती है। 
   फिर क्या था उसने आदेश दिया कि सब पुस्तके नष्ट कर दी जायें। उन दिनो पुस्तकें ऐसी नहीं थी जैसी आज होती हैं। तब छापेखाने तो थे नहीं, लकडी के टुकडों पर अक्षर खुदे रहते थे। ये ही पुस्तकें थीं। इन्हें छुपाकर रखना भी आसान नहीं था। सम्राट के आदमियों ने राज्य का चप्पा चप्पा छान मारा। नगर नगर और गॉंव गॉंव घूमकर जो पुस्तक हाथ लगी, उसकी होली जला दी। यह बात तब की है जब चीन की बडी दीवार का निर्माण हो रहा था। ढेर सारी पुस्तकें, जो बडे बडे गोल लटठों के रूप में थीं - पत्थरों की जगह दीवार में चिन दी गयीं। अगर किसी विद्वान ने अपनी पुस्तकें देने से इन्कार किया तो उसे पुस्तकों सहित बडी दीवार में दफना दिया गया। ऐसा था पढने वालों का पर राजा का क्रोध।
    कई वर्ष बीत गये। सम्राट की मृत्यु हो गयी। उसके मरने के कुछ वर्ष बाद ही, लगभग सभी पुस्तकें जिनके बारे में सोचा जाता था कि नष्ट हो गयीं हैं, फिर से नये, चमकदार लकडी के कुन्दों के रूप में प्रकट हो गयीं ।इन पुस्तकों में महान दार्शनिक कन्फयूशियस की रचनायें भी थीं, जिन्हें दुनिया भर के लौग आज भी पढते हैं। 
     किताबों को इस प्रकार नष्ट करने का यह एकमात्र उदाहरण नहीं है। छठी शत्ताब्दी मे नालन्दा विश्वविद्यालय उन्नति के शिखर पर था। उन दिनों चीनी प्रसिद्ध चीनी यात्री और विद्वान हवेनत्सॉंग वहॉं अध्ययन करता था। एक रात सपने में उसने देखा कि विश्वविद्यलय का सुन्दर भवन गायब है और उसके स्थान पर भैंसे बंधी हैं। यह सपना लगभग सच ही हो गया, जब आक्रमणकारियों ने विश्वविद्यालय के विशाल पुस्तकालय के तीन विभागों को जलाकर राख कर दिया। 
    एक समय था जब प्राचीन नगर सिकंदरिया में एक बहुत बडा पुस्तकालय था। इसमें अनेक देशों से जमा हुई पांडुलिपियॉं थीं । अनेक देशों से सैकडों लोग, जिनमें भारतीय भी थे, अध्ययन करने वहॉं जाते थे। यह अनमोल पुस्तकालय सातवीं शत्ताब्दी में जानबूझकर जला दिया गया। इसे नष्ट करने वाले आक्रमणकारी की दलील थी कि अगर इन अनगिनत ग्रथों में वह नहीं लिखा है,जो उसके धर्म की पवित्र पुस्तक में लिखा है  तो उन्हें पढने की जरूरत नहीं है, और अगर ये पुस्तकें वही कहती हैं जो उसके पवित्र ग्रंथ ने पहले कह रखा है तो उन पुस्तकों को रखने का कोई लाभ नहीं।
  इस प्रकार कई बार विद्या और ज्ञान के शत्रुओं ने पुस्तकों को नष्ट किया, किन्तु वही किताबें, जिनके बारे में सोचा जाता था कि वे हमेशा के लिये बरबाद कर दी गयी हैं, फिर से अपने पुराने या नये रूपों में प्रकट होती रहीं। ठीक भी है। पुस्तकें मनुष्य की चतुराई, अनुभव, ज्ञान, भावना, कल्पना और दूरदर्शिता इन सबसे मिलकर बनती है। यही कारण है कि पुस्तकें नष्ट कर देने से मनुष्य में ये गुण समाप्त नहीं हो जाते। दूसरी शत्ताब्दी में डेनिस पादरी बेन जोसेफ अकीबा को पाण्डित्यपूर्ण पुस्तक के साथ जला दिया गया था। उसके अतिंम शब्द याद रखने योग्य हैं, ’’कागज ही जलता है,शब्द तो उड जाते हैं।’’
 ऐसे भी लौग हैं जिन्हें पुस्तके प्राणों से भी प्यारी होती हैं। अपनी मनपंसद पुस्तकों के लिए वे बडे से बडा खतरा झेल सकते हैं। भारतीय परम्परा में एक उदाहरण है। कहते हैं कि स्वयं विष्णु को पुस्तके इतनी प्रिय हैं कि एक बार विनाशकारी प्रलय में जब सारी सृष्टि डूबने लगी तो मछली का रूप धारण करके उन्होंने वेदों को बचा लिया । 
      ऐसे भी लौग हैं जो अपनी पुस्तक के खो जाने पर परेशान नहीं होते क्योंकि पुस्तकें उन्हें जबानी याद होती हैं । 
  पुराने जमाने में लिखे हुये को कठंस्थ कर लेने का अनोखा ढंग था। यूनानी महाकवि होमर( जिसका काल ईसा से नौ सौ वर्ष पूर्व का है) के महाकाव्य इलियड तथ ओडिसी पेशेवर गानेवालों की पीढी को कंठस्थ थे। इन दोनों महाकाव्यों में कुल मिलाकर अटठाईस हजार पक्तियां हैं। कुछ चारण जो इससे चौगुना याद कर सकते थे।
        स्मरण शक्ति की इस बात से वेदों का ध्यान हो आता है जो न केवल भारत के बल्कि कुछ लौगों के अनुसार तो संसार के आदि ग्रन्थ  माने जाते हैं।
      
                                                                                                     साभारः ’’पुस्तके जो अमर हैं’’
                                                                                                           ले0 मनोज दास 
   

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