कवि वीरेंद्र 'अबोध ' ग्राम जुलेढ़ा जिला मेरठ के निवासी हैं और पेशे से किसान हैं| आपके साहित्य में किसानो और मजदूरों की व्यथा का मार्मिक चित्रण मिलता है |एक भारतीय किसान अपने पेशे, सोच, और व्यवहार में जो साफगोई और आत्मीयता रखता है कवि 'अबोध ' उसकी चलती फिरती मिसाल है | मेरा करीब तीस वर्ष पुराना उनके साथ मित्रता का सम्बन्ध है और वे मेरे मार्गदर्शक भी रहें हैं| एक ख़ास बात मैंने यह अनुभव की कि वे लेखन और वैचारिक रूप से जितने आज प्रतिबद्ध हैं उससे भी अधिक तीस-पैंतीस वर्ष पहले थे | उनकी लोकप्रिय कवितायें जैसे कि 'देवली काण्ड' उन्होंने तब लिखी जब वे हाई स्कुल के विद्यार्थी रहे होंगें | उनकी मशहूर कविताओं में से एक कविता 'इंकलाब अब नहीं तो कब?' प्रस्तुत है |
इन्कलाब अब नहीं तो कब?
हकीकत से तुम वाकिफ नहीं हो अभी,
फुटपाथ वालों को मिलती है क्या चीज यहॉं।
फुटपाथ वालों को मिलती है क्या चीज यहॉं।
करोडों की दवा फेंकी जाती बेकार करके,
झोंपडी में मरते टी.बी. दमें के मरीज यहॉं।
भूखे बच्चों को देख अटटहास होते यहॉं,
महलों में रोटी के टुकडों को उछाला जाता।
जो गरीब की बेटी इनका हमबिस्तर न बने,
उस गरीब को बस्ती से निकला जाता ।
क्या-क्या नहीं होते रहते हैं काम यहॉं ।
कर्जे में तुमने नहीं मैंने बिकते देखें हैं,
गरीब के हल बैल होते हुये नीलाम यहॉं ।
मुझे जो देखकर हॅंसी आती है यहॉं,
जब तुम वतन को हर भरा चमन कहते हो ?
दस बरस के बच्चे को जहॉं पेट की फिक्र
उसे तुम तरककी पसन्द वतन कहते हो?
इस जुल्म ओ सितम से भी खून न खोला तो
कॉंच की तिजोरी में वो लहु को चमकायेगा।
देश के रहनुमाओं से पूछता हूँ पूछता हूँ अवाम से,
इन्कलाब अब नहीं तो फिर कब आयेगा?
अस्सी बरस की उस बुढिया से तुम नहीं मिले,
तमाम उम्र कोठियो को खुशियॉं बॉटी जिसने|
तमाम उम्र झोंपडी में काटी जिसने |
कॉंच की दीवारों में झॉंककर देखो तो सही,
अपने देश के ये तुम अजीबो गरीब तमाशे |
चौराहे पे चींखती क्या तुमने देंखी हैं कभी,
वासना की शिकार ये जिन्दा लाशें|
सडकों पे घूमते ये मासूम चेहरे,
मॉं बाप सोचते बेटा कुछ कमाकर लाये|
उम्मीद के फूल अब तो मुर्झाने लगे हैं,
खाली हाथ भूखी जवानी घर को आये।
कोठियों में चलती हैं योजनायें करोडों की,
इन नेताओं के घर में तस्करी के अडडे चले |
मदिरा में डूबे वो देखते हैं कैबरे,
और हमें दो दो गज जमीन बॉंटकर छले|
इन्कलाबी फनकार को फॉंसी पर चढा तो दोगे,
पर कब तक ये जुल्म का परचम लहरायेगा?
इन्कलाब अब नहीं तो फिर कब आयेगा?
अब इन राष्ट्रवादियों से पूछों जाकर,
किस बात पर है ये राष्ट्र वन्दन करते |
अन्न के भण्डार भरे हैं जब यहॉं पर,
तो अन्न के बिना क्यों लौग भूख से मरते?
बाजारों में क्या भूखी औरत नहीं बिकती,
क्या आज भारत में सब कुछ समान है ?
छुआछूत को कायम रखकर भी तुम कहते,
ये भारत की संस्कृति है भारत महान है ?
भूखे पेट चिल्ला रहे हैं इकटठा होकर,
हम मरने वाले हैं अरे ओ सम्हालो हमको|
घुट घुटकर मरने से तो अच्छा है यही,
अपनी भूख मिटा लो, खा लो हमको |
इतनी जददो जहद के बाद भी यहॉं
दिन पर दिन पिसती ही चली जाती है
कब उठायेगी हाथ में पत्थर जनता?
कब बनेगा इस जनता का गोल बताओ,
कब हर हाथ यहॉं पत्थर उठायेगा?
आजादी के वो शहीद पूछते हैं तुमसे
इन्कलाब अब नही तो फिर कब आयेगा?
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