मंगलवार, 6 सितंबर 2011

दो कवितायें 'प्रदीप सरावा'



जीवन की कडवी सच्चाई देख देख कर अकुलाता  हूँ                   
तुलना करने लगता हूँ  तो खुद को कहीं नहीं पाता हूँ |
अभिलाषायें धूल धूसरित,स्वप्न अधूरे से हैं सारे,
ऑंख मिचौली खेल रहे हैं,मुझसे मेरे भाग्य सितारे।

आशा  और  निराशा  में ही, जैसे  ये  दिन रात कटे हैं,
असंमंजस ओर संकल्पों में ज्यादातर इन्सान बॅंटे हैं।
जीवन  की लम्बी यात्रा में दूर बहुत अब निकल गया हूँ  
कितने शिखर चढा मैं लेकिन चढते चढते फिसल गयाहूँ |

पागल मन की बात तो देखो आकॉंक्षी नूतन अभिनव का।
हर फिसलन पर पछतावा और ,नाम दिया उसको अनुभव का।
जिसके बाद सूर्य ना निकले,ऐसी कोई निशा नहीं है 
किन्तु मैं दिग्भ्रमित पथिक हूँ मेरी कोई दिशा नहीं है|

इसे मेरा नैराश्य न समझो सत्य है,जो स्वीकार किया है। 
संघर्षो में रह कर भी जीवन मैंने भरपूर जिया है। 

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कैसा ये अभिशाप लग गया अब तक भी मैं हुआ न पूरा। 
मैंने जिसको दी परिभाषा,उसने मुझको कहा अधूरा।
जीवन है अनबूझ पहेली,अब तक नहीं समझ पाया हूँ,
 कभी कभी लगता है भ्रम हूँ,कभी कभी लगता साया हूँ।

कभी स्वयं को सिद्ध समझकर इठलाने को जी करता है,                                        
कभी किसी चौराहे जाकर, बिक जाने को जी करता है।
कभी चाहता हूँ दुनिया की दशा बदल दूँ  दिशा बदल दूँ ,
चन्दा बदलूँ,सूरज बदलूँ,दिन बदलूँऔर निशा बदल दूँ ।

लेकिन गोरख धन्धों में ही फंस  कर हर संकल्प खो गया।                 
नियति के हाथों  अब मेरा हर पल जैसे कल्प हो गया।                 

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