शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

ग्रामीण विकास का गॉंधी पथ

               
       राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी स्वतंत्रता आन्दोलन   के नायक ही नहीं
थे वरन वे स्वतंत्र और समुन्नत भारत के स्वप्नदृष्टा ओर सर्जक भी थे।
राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण से पूर्व उन्होने  सारे भारत का भ्रमण कर उसे निकट से जानना परखना आवश्यक समझा। इसके लिये उन्होंने सारे देश  काभ्रमण कियाा जिससे उन्हें यह ज्ञात हो गया कि भारत गॉंवों कादेश है। अपनीपैनी दृष्टि और प्रखर मेधा से उन्होंनें यह जान लिया था कि भारत कीस्वतंत्रता और समृद्धि के लिये उसके ग्रामांे का समृद्ध और आत्मनिर्भर होना जरुरी है।ग्राम  जो अन्धविश्वासों और दुर्व्यवस्थाओं से ग्रस्त थे,दरिद्र थे, बदहाल थे। उन्होंने यह जान लिया कि ग्रामवासियों के दरिद्र होने का कारण उनके ग्रामोद्योगों को योजनाबद्ध तरीके से नष्ट कर दिया जाना है। गॉंधीजी समझ गये कि यदि भारतवासी आलस त्यागकर अपने ग्रामाद्योगों की उन्नति में एकजुट हो गये तो अग्रेंजों को तो बोरिया
बिस्तर समेटे कर जाना ही पडेगा, देश  भी खुशहाल और सशक्त हो जायेगा।गॉंधीजी ने इसके लिये स्वदेशी   का नारा दिया और ग्राम स्वराज की सकंप्ल्पना जनता के समक्ष रखी।ग्रामोत्थान के बारे में गॉंधीजी के निम्न विचार थे।
1- ग्रामोद्योगः- गॉंधीजी यह जानते थे कि अग्रेंज हमारे देश  में यहॉं के
ग्रामाद्योगों और हस्तकलाओं को नष्ट करके ही अपनी जड जमा सके हैं। इसी कारण से भारतवासी आलसी, अकर्मण्य और विपन्न हो गये हैं। काफी सोच विचार के बाद उन्होंनें तय किया कि सबसे पहले यहॉं के ग्रामोद्योगों को पुनर्जीवित करना होगा। इसके लिये उन्होंनें गुजरात के गॉंवों से चरखे को खोज निकाला। स्वतंत्रता संग्राम, जनजागरण और ग्रामोत्थान में चरखे,खादी और हथ्करघा का जो योगदान रहा है उसके महतव से सारी दुनियॉं परिचित है।परन्तु प्रश्न  यह है कि यदि गॉंधीजी आज होते तो क्या आज भी चरखा कातने पर बल देते जैसा कि गॉंधिनिष्ठ व्यक्ति चरखा कातकर उसके महत्व को पुर्नस्थापित करना चाहते हैं। क्या आज भी चरखा ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार का उपयुक्त और विकल्पहीन माध्यम है। आज देश  में कपडे के बडे -बडे कारखाने हैं जिनसे विपुल मात्रा में कपडे का उत्पादन होता है और विदेश को उसका निर्यात कर प्रचुर मात्रा में विदेशी  मुद्रा भी अर्जित की जाती हैं। अतः स्वदेशी  और स्वावनम्बन का लक्ष्य तो एक तरह से प्राप्त हो ही गया है । पर क्या इससे गॉंवों में समृद्धि बढी, रोजगार बढे?निष्चय ही ग्रामों में न तो समुचित समृद्धि बढी और न ही रोजगार के अवसर बढे हैं।बल्कि रोजगार के अवसर तो कम हो गये हैं।कारण स्पष्ट है कि हम वैकन्पिक रोजगार की व्यवस्था नहीं कर पाये। हमारे विकास कार्यक्रमों से ग्रामीण दस्तकारों- बुनकर,कुम्भकार,बढई, लुहार,रंगरेज से उनके हाथों का काम छीनकर
बडे बडे उद्योगपतियो को  दे दिया है। इससे गॉंवों से षहरों की ओरपलायन
बढा, असन्तुलित विकास हुआ,र्प्यावरण सम्बन्धी समस्याओं ने जन्म लिया।उदाहरण के लिये आज प्लास्टिक का उपयोग बहुत बढ गया है। इसके उपयोग सेमिटटी के बर्तन, पत्ते के दोने बनाने वाले कारीगरों का व्यवसाय ठप्प हो गया है। इसके उपयोग से मिटटी, वायु और जल प्रदूषित हो रहे हैं।यदि मिटटीऔर पेडों से बने पात्रों का उपयोग किया जाये पालीथीन प्लास्टिक के उपयोगको प्रतिबन्धित कर दिया जाये तो रोजगार के अवसर बढेंगें और पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा। एक तरफ तो वृक्ष के पत्तो के उपभोग से उसे सग्रंह करने तथा वृक्षरोपण करने जैसे कार्य से रोजगार बढेगा दूसरी तरफ वे पत्ते उपभोगके पश्चात खाद का काम करेंगें। इसके साथ-साथ यह स्थानीय सामग्री के उपभोग और रोजगार को बढाता है जिसमें कुछ भी व्यय नहीं करना पडता। हर तरफ से प्राप्ति ही प्राप्ति । इस प्रकार गॉंधीजी के स्वावलम्बी ग्राम के भी अनुरूप है।
            ग्रामीण दस्तकारों को प्रोत्साहित करने के लिये उन्हें उन्नत टूल किट उपलब्ध कराने तथा उत्पादित सामान की विपणन की समुचित
व्यवस्था करने की आवष्यकता है। इसके अतिरिक्त आधुनिक तकनीक के वे सारे कार्य जिनसे पर्यावरण सुरक्षित रहता है गॉंधीजी की विचारधारा के अनुकूलहैं।
2-ग्रामीण स्वच्छता एवं स्वास्थ्यः- गॉंधीजी ने कहा था हमारे अधिकॉंष
गॉंव घूरे के ढेर हैं।  लौग जहॉं तहॉं पाखाना फिरते दिखायी देते हैं।किसी गॉंव में चले जाईये आपको गन्दगी मिलेगी। अजनबी दर्शक  घूरे और गॉंव में भेद नहीं कर सकता।
  स्वतंत्रता के पष्चात कुछ ग्रामवासी स्वच्छता की आदर्श  स्थिति में
अवष्य पहॅंच गये हैं किन्तु जहॉं तक सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता का
सम्बन्ध है स्थिति ज्यों की त्यों है। आज भी ग्रामवासी खुले में 
शौच जाते हैं। गॉंव के बाहर आज भी घूरे के ढेर मिलते हैं। लौग घर का कूडा घर के सामने सडक पर फेंकतें हैं। घरों में शोचालय से लेकर रसोईघर तक मक्खियॉं भिनभिनाती रहती हैं।
        सरकार ने स्थिति की गम्भीरता को समझकर ही ग्रामीण स्वच्छता
कार्यक्रम पूरे जोर शौर से चलाया है। इन्दिरा आवास योजनान्तर्गत बनाये
गये आवासों में  शौचालय  बनाये गये हैं। परन्तु सरकारी कार्यक्रमों की
अपनी सीमायें हैं। वे संसाधनों की कमी के कारण समाज के सीमित वर्ग तक ही पहुच पा रही हैं। उसमें भी स्थिति यह है कि आवासों के साथ निर्मित 
शौचालयों का उपयोग नहीं किया जा रहा है। कारण यह है कि गृहस्वामि का अधिकॉंष समय खेतों में काम करते हुये गुजरता है। अतः शौच के लिये घर आकर शौचालय  का उपयोग करना व्यवहारिक नहीं है। दूसरा कारण यह है कि आवासीय भूमि सीमित है अतः शौचालय  का उपयोग वह स्नानघर के रूप में करना ज्यादा उपयुक्त समझता है। इसके लिये खुले शौच जाने की उसकी परम्परागत आदत भी जिम्मेदार है।
            गॉंधीजी ने इस समस्या का व्यवहारिक समाधान दिया था। उनका कहना था कि प्रत्येक ग्रामवासी जब शौच के लिये खेतों में जाये तो अपने साथ एक छोटी खुरपी ले जाये।  शौच के लिये एक छोटा गडढा खोदे और उसमें मल त्याग कर उसे मिटटी से ढक दे। इस प्रकार मल मिटटी में मिलकर खाद का भी कार्य करेगा और वातावरण भी स्वच्छ रहेगा। क्या ग्रामीण क्षेत्र में मानव मल निस्तारण का इससे सरल, उपयुक्त और सस्ता उपाय कोई ओर हो सकता है। वे ग्रामवासी जो खेतों में काम करते है उनके पास फावडा या खुरपी रहती ही हैवे यदि गॉंधीजी की इतनी सी सीख मान लें तो स्वच्छता और स्वास्थ्य के उच्च स्तर को हासिल कर सकते हैं। आखिर इसमें कुछ कठिनाई भी नहीं है|आवष्यकता
केवल अपने स्वभाव में मामूली परिवर्तन लाने की है। इसमें कोई सरकार या संगठन कुछ नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त मानवमल निस्तारण की जितनी भी विधियां हैं वे सब र्प्यावरण की दृष्टि से हानिकर पायी गयीं हैं।अधिकॉंषतः भूमिगत जल को प्रदूषित कर रही हैं।
3.  आज आदर्ष ग्राम में प्राथ्मिक स्वास्थ्य  केंद्र  होना जरूरी माना
जाता है। गांधीजी ग्राम में अस्पताल को आवष्यक नहीं समझते थे। उनका कहना था कि यदि ग्रामवासी स्वच्छता से रहना सीख लें तो वहॉं कोई बीमार ही न हो। बीमार होने पर भी वे दवाओं के स्थान पर प्राकृतिक उपचार पर बल देते थे। स्वयं उन्होंने प्राकृतिक चिकितसा पद्धति मिटटी एवं जल  के उपयोग से सफल उपचार किया। आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की सीमायें एवं विकृतियॉं स्पष्ट हो चुकी हैं। ऐसे में स्थानीय प्राकृतिक साधनों उपयोग से रोगों के निदान की प्राकृतिक चिकितसा पद्धति को अपना कर हम ग्रामवासियों को सस्ती औरहानि रहित चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करा सकते हैं। इसमें भी कुछ खास व्यय
नहीं होता। इस क्षेत्र में अनुसन्धान और उपयोग को बढावा दिया जाना
चाहिये। वैसे निजी ओर सार्वजनिक स्थानों की सफाई रखकर महामारियों से बचा जा सकता है। इसके लिये चीन में कुछ सफल प्रयोग किये गये। मक्खी मच्छर से बचने के लिये जिस तरह चीन ने प्रचुर जनशक्ति का प्रयोग कर उससे छुटकारा पाया वैसा हम भी कर सकते हैं। उन्होंने हाथ से उपयोग वाले एक जालीदार पंखे का उपयोग किया। मक्खी मच्छर को देखते ही वे  झपटकर उसे मार डालते हैं। इससे संसाधनों के अभाव की समस्या भी उत्पन्न नहीं होती न ही कीटनाशक के प्रयोग के दुष्प्रभाव झेलने पडते हैं। वैसे भी कीटनाश दवाओं के प्रति अपनी प्रतिरोधक शक्ति का विकास कीट करते रहे हैं। जिससे उनकी उपयोगिता पर ही प्रष्नचिहन लग गया है।
कृषि और पशु  पालनः-गॉंधीजीने कहा था देश  की खुशहाली का रास्ता खेतो और गॉंवों की पगडंडी से होकर जाता है। खेती ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार है। आजादी के बाद कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति की सफलता से गॉंवों में समृद्धि की नयी बयार बहायी है। उसके बाद श्वेत  क्रान्ति की मन्जिलें तय की जा रहीं हैं। फिर भी ग्रामों की समृद्धि की वह तस्वीर नहीं बन पायी है,जो एक खुषहाल समाज की होनी चाहिये। इसके विपरीत ग्रामवासी आजादी के इतने सालों बाद भी स्वच्छ हवा,पानी,दवा और पर्याप्त भोजन जैसी मौलिक आवष्यकताओं की पूर्ति के लिये संघर्ष कर रहे हैं।
      आजादी के बाद हरित क्रान्ति से ग्रामों में कुछ खुषहाली बढी जरूर
है पर उसका वितरण बडा ही असमान है। हरित क्रान्ति का आधार था उन्नत बीज,यंत्र,उर्वरक, कीटनाषक दवा,पानी एवं मिटटी काअधिकाधिक उपयोग। एक सीमा के बाद उत्पादन बढने के बाद घट रहा है। मिटटी का तात्विक सन्तुलन बिगड गया है।प्रदुषण बढ गया है मनुष्य,पषु,जंगल,जीव,जमीन सबको गम्भीर परिणाम भुगतान पडे हैं। सीमान्त किसानों के मजदूरों में बदलने की प्रक्रिया तेज हो गयी है अनाजों,दालों,तिलहनों की उपलब्धता घट गयी है।इसके अतिरिक्त बाजार आधारित कृषि के कारण बाजार के अप्रत्याषित उतार चढाव से किसान तबाह हो रहे हैं। कर्नाटक, पंजाब, महाराष्ट्र गुजरात उत्तरप्रदेष लगभग हर राज्य से किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें आरहीं हैं।
चीन में खेती का परम्परागत विकास ही किया गया। भारत के सन्दर्भ में चीन का उदाहरण सबसे उपयुक्त है। चीन में टिडिडयों से बचने के लिये मुर्गों की फौज प्रषिक्षित की गई। जैसे ही टिडियॉं का दल किसी क्षेत्र में उतरता है मुर्गों की फौज को छोड दिया जाता है । वह थोडी ही देर में टिडिडयों को चट कर जाते हैं। इससे कीटनाषको के दुष्प्रभाव भी नहीं झेलने पडते और मुर्गे मुफ्त में बढिया भोजन पा जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार,पोष्टिक भोजन के साथ-साथ पर्यावरण सरंक्षरण का इससे बढिया उपाय ओर क्या हो सकताहै?
 इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्र में बायोगैस संयत्र का निर्माण बहु उपयोगी
तथा पर्यावरण को सन्तुलित बनाये रखने वाला है। इससे कृषि को उपयोगी खाद प्राप्त होती है, धुंआ रहित ईधन प्राप्त होता है जिससे घर की स्त्रियों का स्वास्थ्य ठीक रहता है।
 पशु  पालन ग्रामीण क्षेत्र में सहायक रोजगार का सबसे महत्वपूर्ण साधन
है। किसान हो या मजदूर अतिरिक्त आय के लिये पषुपालन ही सहज साधन है।गॉंधीजी ने इस सम्बन्ध में भी क्रान्तिकारी प्रयोग किये । उन्होंनें पषुओं की उन्नत नस्ल तैयार करने का कार्य किया। उन्होंने अपने आश्रम में गौषाला के साथ साथ एक चर्मषाला भी खोली। गॉंधीजी का कहना था एक मरा हुआ जानवर एक जिन्दा गाय को बचाता है। गॉंधी के वर्धा आश्रम में एक ऋग्वेदी ब्राहण श्री बालुषंकर ने मृत पषु के पूर्ण उपयोग का कार्य करते थे।
      गॉंधीजी ने समग्र विकास के लिये श्रमदान की महत्ता पर जोर दिया।
संसाधनों की कमी के इस दौर में आज फिर गॉंधीजी  के बताये हुये मार्ग पर बढने की आवष्यकता है। इस का अर्थ यह नहीं है कि विज्ञान और तकनीक के विकास का उपयोग न किया जाये। इसका अर्थ इतना ही है कि पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुये ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार बढाने वाले नये पुराने सभी व्यवसाय अपनाये जायें। सौर उर्जा, पवन उर्जा, जलषक्ति आदि का उपयोग कितनी भी आधुनिक तकनीक अपनाकर किया जाये वह गॉंधी दर्षन के अनुकूल है।गॉंधीजी ने आत्मनिर्भर ग्राम की कल्पना कीथी,ऐसागॉंवजोअपनीसभीआवष्यकतायेंअपनेसंसाधनोंसेपूर्णकरताहैशिक्षा,स्वास्थ्य,न्यायआदि का प्रबन्ध करता है और हर काम के लिये सरकार की ओर निगाह उठाकर नहीं देखता। आज तो वह हर बात के लिये सरकार पर निर्भर है।  सरकार घर साफ करे,सरकार रास्ते बनाये, सरकार कंए बनाये तालाब साफ करें, सरकार लडकों को पढाये, सरकार बाघ भालू पकडे, मरने से बचाये, सरकार हमारे धन दौलत की हिफाजत करें। इस भावना ने हमें अपाहिज बना दिया है। और यह अपाहिजी बढती ही जाती है। हमें इससे छुटकारा पाना होगा। आज विकास का नेहरूवादी मॉडल विषैला हो गया है। सरकार नियंत्रित विकास की अपनी सीमाये हैं। इस कटु सत्य को जानकर कि हमें स्वयं अपना विकास करना है,अपने समुदाय,देष का विकास करना है। विकास का केवल एक गॉंधी पथ ही ऐसा है जो हमारी सामर्थ्यकेअन्दर है और जनहित में भी है। आवष्यकता केवल गॉंधी दृष्टि के विस्तार
को पहचानने की है ।

                                                                अमरनाथ मधुर

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