शनिवार, 17 दिसंबर 2011

कवि- भारत भूषण


हिंदी काव्य जगत में गीत ऋषि कहे जाने वाले कवि भारत भूषण का 82वर्ष की अवस्था में दिनांक 17-12-2011 को निधन हो गया | वे भावप्रवन  और सवेंदनशील गीतकार थे |
वे कहते थे 'मनुष्य के आँसू कविता बनते हैं किन्तु जब कविता का मन भी उदास हो जाए तो उस समय गीत का जन्म होता है |'
   प्रेम, सौन्दर्य और दार्शनिकता से सम्रद्ध उनके गीतों का
संकलन   है 'सागर के सीप '| इस पुस्तक में हरेक गीत को प्रख्यात चित्रकार योगेन्द्र 'लल्ला' ने अपने सजीव चित्रों  से सजाया है  | गीतों की रस गंगा में डूबने वालों ने ये पुस्तक अवश्य ही पढ़ी  होगी | इसके अतिरिक्त उनकी प्रसिद्ध कविता है 'राम की जल समाधि'| यह सरयू  में राम के अवसान की कथा है | भारत भूषण बताते  थे कि मैं पूरी कविता लिखा चुका लेकिन अंत  में राम द्वारा पानी में सर डुबोने यानी की अंतिम समय को नहीं लिखा पा रहाथा | मेरे मन में द्वन्द था की  राम को  आत्मा हत्या के कलंक से बचाकर  कैसे चित्रित करूँ |  मैंने सोचा की राम अपने अंतिम समय में सीता  स्वंयवर   को याद   कर  रहे  हैं |उन्हें ऐसा लगता है कि सरयू के जल में  से  सीता वरमाला डालने के लिए हाथ ऊँचे करती   है राम सर नीचे को झुका देते हैं - राम  डूब जाते हैं, ऊपर बस सरयू का जल है | कविता पढ़ें और उसके रचियता को श्रद्धा सुमन अर्पित करें |



राम की जल समाधि
पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता।

किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूं, धरती मुझको किसलिए सहे।
तू कहां खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहां,
मुरझे राजीव नयन बोले, कांपी सरयू, सरयू कांपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए, अब सांस-सांस संग्राम हुई।

ये राजमुकुट, ये सिंहासन, ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन जीवन मेरा, सामने नदी की अगम धार,
मांग रे भिखारी, लोक मांग, कुछ और मांग अंतिम बेला,
इन अंचलहीन आंसुओं में नहला बूढ़ी मर्यादाएं,
आदर्शों के जल महल बना, फिर राम मिले न मिले तुझको,
फिर ऐसी शाम ढले न ढले।
ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, किस ठौर कहां तुझको जोडूं,
कब तक पहनूं ये मौन धैर्य, बोलूं भी तो किससे बोलूं,
सिमटे अब ये लीला सिमटे, भीतर-भीतर गूंजा भर था,
छप से पानी में पांव पड़ा, कमलों से लिपट गई सरयू,
फिर लहरों पर वाटिका खिली, रतिमुख सखियां, नतमुख सीता,
सम्मोहित मेघबरन तड़पे, पानी घुटनों-घुटनों आया,
आया घुटनों-घुटनों पानी। फिर धुआं-धुआं फिर अंधियारा,
लहरों-लहरों, धारा-धारा, व्याकुलता फिर पारा-पारा।

फिर एक हिरन-सी किरन देह, दौड़ती चली आगे-आगे,
आंखों में जैसे बान सधा, दो पांव उड़े जल में आगे,
पानी लो नाभि-नाभि आया, आया लो नाभि-नाभि पानी,
जल में तम, तम में जल बहता, ठहरो बस और नहीं कहता,
जल में कोई जीवित दहता, फिर एक तपस्विनी शांत सौम्य,
धक्‌ धक्‌ लपटों में निर्विकार, सशरीर सत्य-सी सम्मुख थी,
उन्माद नीर चीरने लगा, पानी छाती-छाती आया,
आया छाती-छाती पानी।

आगे लहरें बाहर लहरें, आगे जल था, पीछे जल था,
केवल जल था, वक्षस्थल था, वक्षस्थल तक केवल जल था।
जल पर तिरता था नीलकमल, बिखरा-बिखरा सा नीलकमल,
कुछ और-और सा नीलकमल, फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहर,
धरती से नभ तक जगर-मगर, दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे,
जैसे सूरज के हस्ताक्षर, बांहों के चंदन घेरे से,
दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका, लो शून्य राम लो राम लहर,
फिर लहर-लहर, सरयू-सरयू, लहरें-लहरें, लहरें- लहरें,
केवल तम ही तम, तम ही तम, जल, जल ही जल केवल,
हे राम-राम, हे राम-राम
हे राम-राम, हे राम-राम ।

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