शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

समलैंगिकता: कमरे से कटघरे तक -कुमार पंकज



सुप्रीम कोर्ट ने अभी भारत सरकार से पूछा है कि समलैंगिकता अपराध् कैसे है ? भारत सरकार ने बताया है कि यह अनैतिक है। नैतिकता की सही परिभाषा क्या है, इसे आज तक दुनिया में कोई नहीं बता सका। 02 जुलाई, 2009.....हिन्दुस्तान के स्वर्णिम न्यायिक इतिहास में, मानसिक अकुलाहट से भर देने वाला एक तवारीख़ी फैसला। हाईकोर्ट ने नाज़ फाउंडेशन की याचिका पर दिए निर्णय में परस्पर सहमति से बनाए गए समलैंगिक सम्बन्ध का अनपराधीकरण (Decriminalization) कर दिया। यदि दो बालिग व्यक्ति परस्पर सहमति से समलैंगिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो वो फानूनन अपराध नहीं हैं। इस बौद्धिक फैसले के आते ही पूरे मुल्क में बहस का एक दौर शुरु हो गया। धर्मगुरू, मठाधीश , नैतिकतावादी और परम्परावादी लोग एक भभकते हुए ख़ेमे में इकट्ठा हो गए। मानवाधिकार, स्वतंत्रता और परिवर्तनवादी सोच रखने वाले लोग दूसरे दहकते पाले में। तर्क, तथ्यों अधिकार और हठधर्मिता भरी चर्चाएँ सार्वजनिक मंचों पर आग उगलने लगीं। दिलचस्प बात ये कि इस एक फ़ैसले ने कुछ और किया हो या न किया हो लेकिन मुल्क को साम्प्रदायिक सौहार्द से ज़रूर भर दिया। वो मौलाना, वो पुजारी, वो चर्च के फादर जो कभी एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते थे....अब एक ही मंच पर एक-दूसरे के साथ सहमत होकर आ गए। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। ये होता रहा है, होता है और होता रहेगा। हाँ, हर परिवर्तन कष्टकारक होता है। हर परिवर्तन अपने अन्तस में एक गहन प्रसव-पीड़ा लिए होता है। दुनिया में आज तक ऐसा एक भी परिवर्तन नहीं हुआ, जिसके साथ सौ प्रतिशत लोग सहमत हो गए हों। समाज का कोई न कोई वर्ग हर परिवर्तन के बाद असंतुष्ट और पीड़ा में रह ही जाता है। यह पीड़ा उन लोगों को सहन करनी ही होती है। क्योंकि विकास के पहिये की इस्पाती ‘गरारी’ उसे कभी उल्टा नहीं घूमने देती। वो सदैव एक ही दिशा में घूमता है। आगे-आगे और आगे.....।
वो चाहे रूस की "मज़दूर-क्रांति" के बाद आया पसीने से भरा नमकीन परिवर्तन हो। जिसमें करोड़ों लोग ख़ुश थे तो लाखों नाख़ुश। या भारत में "विधवा-विवाह" को शुरु करने की विवादस्पद बात हो......करोड़ो लोग प्रसन्न थे तो जाने कितने ही इसे घोर पापकर्म की संज्ञा दे रहे थे। विध्वा का विवाह....!!! विधवा का विवाह....! उनकी नज़र में इस से गिरा हुआ और गलीज़ काम दूसरा हो ही नहीं सकता था। अगर अस्सी साल के बूढ़े के पल्ले बीस साल की जवान युवती बाँध दी गई और बूढ़ा दो साल बाद परलोक सिधर गया, तो इसमें उस लड़की का अपराध् है, समाज का नहीं ? इस अपराध् के लिए या तो वो आजीवन सिर मुँडाकर....सारे रंग त्यागकर....अस्वाद व्रत लेकर एक काल-कोठरी में अपने इस जघन्य पाप का प्रायश्चित करे या फिर उस अस्थिशेष तथाकथित पति-परमेश्वर की लाश के साथ सती हो जाए। सती होने से पहले निरन्तर किया गया धर्मिक ब्रेनवाश सर्वविदित है। सती की चिता के चारों तरफ लम्बे-लम्बे बाँस लेकर खड़ी होने वाली उन्मादी भीड़.......बड़े-बड़े ढ़ोल-नगाड़े लेकर चीखने वाले धर्मोन्मादी लोग, जो इस प्रतीक्षा में रहते थे कि यदि किसी वजह से वो अबला आग की तपिश सहन न कर पाने के कारण चिता से भागना चाहे, तो उसे उन लम्बे बाँसों से कोंचकर दोबारा चिता में धकेल दिया जाए। "कल सती न होना पाप था। विधवा न रहना पाप था।" मगर बदलाव की हवा ने इन सब पापों की परिभाषाओं को ठेंगा दिखा दिया। बदलाव,धर्म के साहूकार की ड्योढ़ी का चाकर नहीं है। वो होता ही है......आप चाहे उसे चीखकर-रोकर स्वीकृत कर लो या फिर हँसकर.....मुस्कराकर। चुनाव की स्वतंत्राता आप की है। बदलाव तो होगा, ज़रूर होगा।
कल शूद्र का मन्दिर में प्रवेश अपराध् था...........अनैतिक था। शूद्र देवालय में घुसा कि धर्म की चूलें हिलीं। उसको सिरहाना देना...उसको बराबरी का हक देना....उसे राजा बनाना....ये तो कल्पनातीत था। अगर ऐसा हो तो मानो बस प्रलय दो-चार कदम ही दूर है। मगर परिवर्तन की एक मामूली सी करवट। वो आज सम्मान के साथ मन्दिरों में खड़े हंै....वो आज बराबर में बैठे हैं....वो राजा हैं। सम्राट बन चुके हैं...मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री. राष्ट्रपतिहैं....हैं। पीटते रहिए छाती...करते रहिए पुरातन नियमों की लाश पर स्यापा। मगर आप बदलाव को नहीं रोक सकते। वो भी समय था कि शूद्र के कानों में यदि वेद-वाक्य पड़ जाए तो उसके कानों में पिघला हुआ शीशा भर देना चाहिए। अब कोशिश करके देख लीजिए......सारा धर्म और उसकी ठेकेदारी नाक के राह बाहर आ जाएगी। पाप की परिभाषा, अपराध् की परिभाषा हर युग में परिवतर्तित होती है। कल तक आप बाल-विवाह को अपराध् नहीं मानते थे। आज आपको बाल-विवाह की अपराध्-श्रेणी स्वीकृत करनी पड़ी। कोई भी मुल्क के क़ानून और संविधन से ऊपर नहीं है। ये अलग बात है कि आप नदिया भर खारे आँसुओं के साथ उसे मंज़ूर करें या फिर प्रसन्नचित्त होकर....... क्रोध् और आक्रोश का ज्वालामुखी बनकर उसके साथ सहमति दें या फिर शांत समझदारी के साथ। आप गंगा को उसी रास्ते से वापस अब हिमालय नहीं भेज सकते। वो केवल आगे बढ़ सकती है। ज़्यादा से ज़्यादा इतना कर सकते हो कि बाँध् बनाकर उसकी अजस्र धारा को कुछ समय के लिए रोक लो....मगर अधिक कोशिश की तो सब बह जाएँगे। यही बदलाव के साथ है। आप सीखे हुए को अनसीखा नहीं कर सकते। आप जाने हुए को अजाना नहीं कर सकते।
अभी ये सहन करना कठिन है कि दो महिलाएँ या दो पुरुष आपसी सहमति से सम्बन्ध् स्थापित करें। अभी ये अमावस्या सा काला पाप दिखता है....अभी ये परम अनैतिक दिखता है...अभी ये चरम चारित्रिक हनन दृष्टिगत होता है। मगर वक्त की बदलती ज़ाफरानी ख़ुशबूदार हवा के साथ ये परिभाषाएँ बदल जाएँगीं। होमोसेक्सुअलिटी और लैस्बियनिज़्म हमारे समाज के अंधेरे कुएँ की दृष्टिवान सच्चाईयाँ हैं। आज से नहीं सदियों से......शायद मानव सभ्यता के साथ से ये भी हैं और यह केवल भारतीय समाज या किसी धर्म विशेष की बात नहीं है। हर धर्म , हर सभ्यता और प्रत्येक मुल्क के नागरिकों के बीच का रेतीला सच है । दुनिया के ज़्यादातर धर्मों और देशों में होमो और लैस्बियन होते रहे हैं। मनुस्मृति में लैस्बियन सम्बन्धें के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है। ये दण्ड कहाँ से आया.......? यदि समाज में ये अपराध् ही नहीं था, तो दण्ड भी नहीं होना चाहिए था। ये सज़ा वहाँ थी, जो बताती है कि उस वक्त के समाज में ये प्रकृति विद्यमान थी.....ऐसे लोग उपस्थित थे...बेशक वो दण्डनीय ही थे, मगर वो थे। दण्ड-विधान कहता है कि-
कन्यैव कन्यां या कुर्यात्तस्याः स्याद्दिृशतो दमः।
शुल्कं च द्विगुणं दद्याच्छिपफा श्चैवाप्नुश्याद्दश।।
या तु कन्यां प्रकुर्यात्स्त्राी सा सद्यो मौण्डड्ढमर्हति।
अंगुल्योरेव वा छेदं खरेणोद्वहनं तथा।।
-अष्टम अध्याय, मनुस्मृति
उपरोक्त श्लोक का हिन्दी अनुववाद बहुत अश्लील हो जाएगा ऐसा मेरे मित्रों का कहना है। इसलिए बिना हिन्दी अनुवाद के लिख रहा हूँ, ये वही विख्यात दण्ड-विधान हैं, जो शूद्र को धर्मस्थल में प्रवेश पर बेरहम दण्ड की व्यवस्था देते हैं....जो विधवा के विवाह पर कंटीली सज़ा का प्रावधान करते हैं, जो सती-प्रथा को प्रोत्साहित करते हैं। इनकी इतनी बातों को आधुनिक समाज और विधान मानवता के विरुद्ध, नागफनिया-अपराध मानकर अस्वीकृत कर चुका है। उन क्रूर दण्डों को मानवाधिकार का उल्लंघन माना जाता है, तो यकीनन समलैंगिकता और लैस्बियनिज़्म पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि मुम्बई और बैंगलोर की ‘गे परेड’ में लाखों की तादाद में सड़कों पर आने वाले लोग अचानक चाँद से उतर आए थे। नहीं....वो हमारे बीच का हिस्सा थे...वो किन्हीं कारणों से सामने नहीं आए थे और जब अवसर आया, तो वो लाखों में एकत्र होकर चैराहों और सड़कों पर आ गए। आपको उनका उल्लेख हर युग में मिलता है- वो चाहे कोई भी कालखण्ड और युग क्यों न रहा हो-

तथा नागरकाः केचिदन्योन्यस्य हितैषिणः।
कुर्वन्ति रूढवि श्वासाः परस्परपरिग्रहम्।।
-36 -नवम अध्याय कामसूत्र
दुनिया में होमोसेक्सुअलिटी का सबसे पहला प्रमाणिक उल्लेख 2400 ब.सी के आसपास, मिश्र के दो पुरुष-युगल Khnumhotep and Niankhkhnum के बीच प्राप्त होता है। आधुनिक युग में होमोसेक्सुअलिटी का सबसे पहला प्रकाशित उल्लेख 1869 में एक जर्मन पेम्पफलेट में आस्ट्रिया में जन्में उपन्यासकार कार्ल मारिया कर्टबेनी के द्वारा मिलता है। चीन में 600 ब.सी के आसपास होमोसेक्सुअलिटी के लिए कुछ अलग तरह के शब्दों का प्रयोग मिलता है जैसे pleasures of the bitten peach, the cut sleeve, or the southern custom थायलैंड में राजा के प्रेमियों में ‘कैथोय’ और ‘लेडी ब्वाय’Kathoey, or "Ladyboys का ज़िक्र हर जगह पर है। बायबिल में बाकायदा अमोरा और सोडोम नाम के दो शहरों का ज़िक्र है जहाँ के नागरिक पूरी तरह से ऐसे सम्बन्धें में लिप्त थे। बाद में परमेश्वर ने नाराज़ होकर उन दोनों शहरों को ही नष्ट कर दिया-
‘‘उनके सो जाने से पहले सोडोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन् चारों ओर से सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया, और लूत को पुकारकर कहने लगे कि जो पुरुष आज रात तेरे घर आए हैं, वे कहां हैं ? उनको हमारे पास बाहर ले आ, कि हम उनसे भोग करें।’’(बायबिल उत्पत्ति- 19/4 व 19/5) चिकित्सा विज्ञान का शब्द 'सॉडमी' जो पुरुष-पुरुष के शारीरिक सम्बन्ध् के रूप में प्रयोग किया जाता है, वो इसी सोडोम नगर से लिया गया है। नारी स्वतंत्राता की हिमायती विश्व प्रसिद्ध लेखिका सीमोन द बोउवार अपनी विश्व विख्यात कृति ‘द सेकण्ड सेक्स’ में लिखती हैं-‘‘जो स्त्री अपने स्त्रीत्व को स्त्री की बाँहों में सौंपकर आनन्द प्राप्त करना चाहती है, उसमें यह गर्व होता है कि वह किसी स्वामी की आज्ञा नहीं मानेगी। ........इन प्रेमियों का प्रेम बड़ा ही मार्मिक, निष्कपट व सच्चा होता है, क्योंकि यह प्रेम-बन्ध्न किसी संस्था, रीति-रिवाज या परम्परा द्वारा नहीं बाँध जाता।’’ --सीमोन द बोउवार (द सेकेण्ड सेक्स)
मठाधीशों का तर्क है कि समलैंगिकता एक बीमारी है और आयुर्वेद में इसका इलाज़ मौज़ूद है। इस बात से और कुछ साबित होता हो या न होता हो मगर एक बात ज़रूर साबित हो जाती है कि हिन्दुस्तान में समलैंगिकता का वज़ूद वैदिक काल से है। क्योंकि आयुर्वेद भी चारों वेदों का ही एक भाग माना जाता है। यह भी वेद का एक उपांग ही है। अगर आयुर्वेद में इसका ज़िक्र उन्होंने कहीं पढ़ा है, तो ये पक्का है कि ये स्वभाव सनातनकाल से भारत में उपस्थित रहा है। ये बीमारी है या नहीं इसे साबित करने के लिए, भावुक-हृदय धर्म-शास्त्री की आवश्यकता नहीं है वरन् प्रमाणिक विशेषज्ञ की ज़रूरत है। कोई लक्षण बीमारी हैं या नहीं इसे मान्यता देने के लिए विशेष चिकित्सीय मापदण्डों और शोधसिद्ध तथ्यसंगत कसौटियों की आवश्यकता होती है। ऐसा नहीं है कि आप किसी भी बात को खड़ा होकर कह देंगे की ये ‘बीमारी’ है और वो बीमारी मान ली जाएगी। दुनिया के जाने माने मनोवैज्ञानिक हैवलाक एलिस ने 1896 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘सेक्सुअल इनवर्जन’ में उन सभी बेहूदा मान्यताओं को चुनौती दी, जो ये कहती थीं कि समलैंगिकता एक असामान्य, अप्राकृति व्यवहार है। आस्ट्रेलियन सायक्लोजिकल सोसायटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि- ‘‘समलैंगिक व्यवहार कोई मानसिक बीमारी नहीं है, ऐसा कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है जिसके लिए किसी ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ को ‘हैट्रोसेक्सुअल’ में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाए। ‘‘दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्था ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने 17 मई 1990 को 43 वीं वर्ल्ड हैल्थ असेंबली में आर्टीकल ICD-10 में ये साफ कर दिया कि समलैंगिकता कोई मानसिक बीमारी नहीं है।’’ ये बिल्कुल एक सामान्य व्यवहार है और पूरी तरह से आपसी ‘चयन’ का मामला है। यह बात केवल मनुष्य के व्यवहार तक ही सीमित नहीं है। एनीमल किंगडम के शोधकर्ता ब्रूस बैगमिल ने 1999 में अपनी शोध् रिव्यू में प्रकाशित किया है कि जानवरों की लगभग 1500 प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार देखा गया है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कहीं भी इस व्यवहार को अप्राकृतिक नहीं समझा गया है। अब सवाल उठता है क्या धर्मिक पुरातन कसौटियों पर यह ख़रा उतर पाएगा ? यहाँ कठिनाई ज़्यादा है...धर्म, शाब्दिक और अनुभूतिगत व्याख्या का मामला है। विज्ञान प्रमाण का विषय है, तर्क का विषय है। ब्रह्मचारी मठाधीश का तर्क यह है कि यदि दो समलैंगिकों के माता-पिता भी समलैंगिक होते तो वो लोग कहाँ से आते ? प्रतितर्क यह कहता है कि- यदि ब्रह्मचारी मठाधीश के माता-पिता भी उनकी तरह ब्रह्मचारी होते तो वो कहाँ से आते ? यदि समलैंगिकता अप्राकृतिक है.....ब्रह्मचर्य भी प्राकृतिक कैसे हो सकता है ? वीर्य को देह के नश्वर परकोटे में कैद करना ठीक ऐसे है जैसे कोई व्यक्ति यह कसम खा ले कि वह मूत्रत्याग नहीं करेगा और मूत्र को जिस्म में ही रोके रखेगा क्योंकि ऐसा करने से धर्मिकता आती है...धर्म की प्राप्ति होती है। जैसे कोई यह पाषाण-सौगन्ध् उठा ले कि वह भूख लगने पर भोजन नहीं करेगा.......जैसे कोई व्यक्ति यह लौह-शपथ ले ले कि दुःख होने पर भी वह अपने आँसुओं को अपनी आँखों में ही रोके रखेगा उन्हें बाहर नहीं आने देगा। क्योंकि आँसू आँखों में रोकने से धर्म प्राप्त होता है। हो सकता है कल कोई नई धर्मिकता आकर यह कह दे कि मल-त्याग करना गलत बात है, इसे देह में रोकने से धर्म की प्राप्ति होती है तो हो सकता है ये उसे भी सहमति दे दें। ये धर्मिता नहीं हठधर्मिता है। दोनों में भारी फर्क है। अर्थात, प्रकृति बेवकूफ है जिसने आपकी देह में वीर्य जैसा फालतू द्रव्य उत्पन्न कर दिया, और आप महा बुद्धिमान हैं, जो उसकी व्यर्थता को समझकर उसका प्रयोग नहीं कर रहे।
नैतिकता के कागभगोड़े एक और तोतारटंत रोज़ दोहराते हैं। ये पाश्चात्य संस्कृति है, ये पश्चिमी सभ्यता का व्यवहार है, ये हमारी परम्परा नहीं है। पश्चिम ने सत्यानाश कर दिया......पश्चिम की संस्कृति हम क्यों अपनाएँ ? ऐसे लक्ष्मी-वाहन जिस पश्चिम को दूषित पानी पी-पीकर कोसते हैं.....जिस पाश्चात्य संस्कृति को अछूत मानते हैं उसने जीना सिखा दिया। आप पश्चिम के ईजाद किए गए मोबाईल फोन को अपने काठ-कमण्डल में रखकर घूमते हैं। आप पश्चिम में निर्मित की गई मोटर गाड़ियों में सफर करते हैं। आप पश्चिम में बनाई गई रेल में मधुमक्खियों के छत्ते की तरह भरे रहते हैं। आप पश्चिम में अविष्कृत टी॰ वी॰ पर तमाम तरह की दिलचस्प क्रीड़ाएँ चटखारे ले-लेकर देखते हैं। आप पश्चिम में बनाएँ गए वायुयानों में यात्रा करते हैं....आप पश्चिम में ईजाद किए गए लाउडस्पीकर और आडियो प्लेयर्स को रात-दिन अपने मन्दिरों-मस्जि़दों में प्रयोग करते हैं। आप पश्चिम में ईजाद किए गए मैटलडिटेक्टर्स को अपने धर्म स्थलों के द्वार पर रखते हैं ताकि आप उनके अंदर सुरक्षित उपासना कर सकें। आपकी आँखों पर चढ़ा नज़र का चश्मा उसी निन्दित और तथाकथित अनैतिक पश्चिम की देन है। विश्व एक गाँव बन चुका है। अब खाली इन गलगपोड़ों से काम नहीं चलेगा कि हमारे पास पुष्पक विमान था...हमारी पास आकाशवाणी थी....हमारे पास ब्रह्मास्त्रा था.......हमारे पास दिव्य-दृष्टि थी......................ये ‘‘थी’’ का खटराग बहुत हो चुका। ‘‘अब क्या है’’ ये कहने वाली बात है। अपनी हार को पुरखों की विजय से ढँकने का प्रयास कायरता है। मुझे किसी बुज़ुर्ग शायर की पंक्तियाँ स्मरण होती हैं-

वो अपनी मुफलिसी जब भी छिपाने लगता है।
तो बाप-दादा के किस्से सुनाने लगता है।।

जब भी दो सभ्यताएँ परस्पर सम्पर्क में आती हैं...वो एक-दूसरे से अप्रभावित नहीं रह सकतीं। आप वहाँ चुनाव नहीं कर सकते कि हम ये-ये अपनाएँगे और ये-ये चीज़ नहीं अपनाएँगे। आप ये नहीं कह सकते कि हम केवल तकनीक स्वीकृत करेंगे......उनकी परम्पराएँ नहीं...हम केवल उनसे टैक्नोलाजी प्राप्त करेंगे उनकी मान्यताएँ और सांस्कृतिक मूल्य नहीं। आपको बहुत सारी चीज़ चाहे-अनचाहे स्वीकार करनी ही होती हैं। आप यदि मुगल सभ्यता के सम्पर्क में आए तो आपकी भाषा ने हज़ारों रोज़मर्रा के उर्दू-अरबी के शब्द पीकर पचा लिए। आपको ख़ुद भी नहीं पता कि दिन भर में उर्दू और प़फारसी के कितने आम शब्द आप प्रयोग करते हैं। चाहे वो शिकायत हो या सुहागरात, मकान हो या मुहब्बत, क़लम हो या काग़ज़. ज़िंदगी हो या ज़मीन, दवा हो या दुल्हन। आप इस तरह से उस संस्कृति से विदेह नही रह सकते। बायबिल में लिखा है कि ईश्वर ने छः दिन तक दुनिया बनाई और सातवें दिन आराम किया। यह पवित्र दिन माना गया.......यानी ‘होली-डे’। इस दिन कोई काम नहीं होगा क्योंकि जब ईश्वर ने भी इस दिन आराम किया, तो उसका बनाया आदमी कैसे काम करेगा ? आज सारा विश्व ‘सण्डे’ की छुट्टी मना रहा है। आप उसे भी मना कर दीजिए कि ये तो ईसाई संस्कृति है हम सण्डे का अवकाश नहीं रखेंगे। आप अंग्रेजों के सम्पर्क में आए...तो उन्होंने आपको पेंट-शर्ट पहनना सिखा दिया। आपका पहनावा तो धोती-कुर्ता था। उसे भी मना कर दीजिए कि ये पाश्चात्य परम्परा है हम इसे नहीं पहनेंगे। लेबोरेटरीज़ में.....कारपोरेट मीटिंग्स में......कंस्ट्रक्शन साइट्स पर.....विदेश-यात्रा में....जाइए हर स्थान पर धोती-कुर्ता पहनकर...केवल हठधर्मिता के कनकव्वे उड़ाने से काम नहीं चलेगा। वर्तमान की तथ्यसंगतता को भी आपको देखना ही होगा। विवाहित जीवन जीने वाले ज़्यादातर लोग इस सच्चाई को स्वीकृत करें या न करें मगर उनका अंतःकरण जानता है कि कभी न कभी वो अपने शयनकक्ष में इस अप्राकृतिक कहे जाने वाले तरीके को आजमाने का प्रयास करते हैं। विपरीतलिंगी विवाहित जोड़े भी बड़ी संख्या में, परिवर्तन के तौर पर, या किसी दूसरे कारण से कभी न कभी धरा 377 के अन्र्तगत अपराधी हो जाते हैं। ये दीगर बात है कि अंधेरे कमरों से ये सच बाहर नहीं निकलता। मगर वो ख़ुद तो सच से वाकिफ़ होंगे ही.......स्वीकार करें या न करें ये बड़ी बात नहीं है।
नैतिकता के अलम्बरदार, एक और तर्क को अपनी कंठनलिका के आखिरी छोर से शक्ति एकत्र कर चिल्ला रहे हैं। समलैंगिकता यदि अपनी पंसद का विषय है तो पिफर कल कोई कहने लगेगा कि मुझे तो कुत्ते-बिल्लियों के साथ सम्बन्ध् स्थापित करने हैं। मुझे तो पशु-पक्षियों के साथ समागम करना है। तब क्या उन्हें भी इस बात की अनुमति दे दी जाए कि वो पशु-समागम करें ? मगर मेरी समझ में ये केवल बोलने की जल्दबाजी और उतावलेपन से निकला वक्तव्य है। क़ानून की धारा में लिखा एक शब्द सारा अर्थ परिवर्तित कर सकता है। वहाँ साफ लिखा है Consenting Adult कन्सेंटिंग अडल्ट ऐसा बालिग व्यक्ति जो सहमति दे रहा है। पशु को भारतीय संविधन ने बालिग या नाबालिग की श्रेणी में नहीं रखा है। दूसरी बात पशु सहमति नही दे सकता। आप उसे आग के गोले से कूदना, बाल उठाकर लाना तो सिखा देंगे लेकिन ये नहीं कह सकते कि ये काम वो सहमति से कर रहा है। दूसरी बात यदि वो पशु-क्रूरता के अन्तर्गत आ गया तो आप जेल भी जाएँगे। किसी काम को सीखकर करना और किसी काम के लिए सहमति देना अलग बात हैं। पशु की सहमति के लिए भारतीय विधान में अभी तक तो कोई धारा-उपधारा नहीं है। जब हो जाए तब ये मामला उठाया जाए तो ठीक रहेगा। रही बात ये कि ये विवाह कितने दिन चल पाएँगे ? आप अदालतों में जाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि विपरीतलिंगियों ने जो विवाह अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर किए, उनकी तलाक़ की अर्ज़ियों से कोर्ट भरे हुए हैं। भारतीय तलाक़ की सर्वे रिर्पोटर्स बताती हैं कि केवल दिल्ली में ही वर्ष 2006 के मुकाबले 2008 में तलाक की दर दो गुनी हो गई है। पंजाब और हरियाणा में पिछले एक दशक में तलाक दर 150% बढ़ गई है। भारत के सर्वाधिक शिक्षित राज्य केरल में तलाक की दर पिछले एक दशक में 350% बढ़ गई है। आप किन्हीं भी दो व्यक्तियों को उनकी सहमति के खिलाफ साथ रहने को विवश नहीं कर सकते बेशक वो समलिंगी हों या विपरीतलिंगी। जब विपरीतलिंगी तलाक ले सकते हैं तो केवल समलैंगिकों के तलाक पर ही आदिवासी नृत्य करके हो-हल्ला क्यों ? ज़रूरत चिन्ता की नहीं चिन्तन की है। आवश्यकता बौद्धिक-सोच की है, बौद्धिक-शौच की नहीं। उनके साथ परग्रहवासी जैसा व्यवहार करने की नहीं वरन् समझने की बात है। बाकी काम न्यायालय का है....देर-सबेर फैसला आ जाएगा.....वो पक्ष में हो या विपक्ष में सभी को स्वीकृति देनी ही होगी। 

                                                                                     -कुमार पंकज

سپریم کورٹ نے ابھی حکومت ہند سے پوچھا ہے کہ ہم جنس اپرادھ کیسے ہے؟ ہندوستان کی حکومت نے بتایا ہے کہ یہ غیر اخلاقی ہے. اخلاق کی صحیح تعریف کیا ہے، اسے آج تک دنیا میں کوئی نہیں بتا سکا. 02 جولائی، 2009 ..... ہندوستان کے سنہری عدالتی تاریخ میں، ذہنی اكلاهٹ سے بھر دینے والا ایک تواريخي فیصلہ. ہائی کورٹ نے ناز فاؤنڈیشن کی درخواست پر دیے فیصلہ میں باہمی اتفاق رائے سے بنائے گئے ہم جنس تعلق کا انپرادھيكر (Decriminalization) کر دیا. اگر دو بالغ شخص باہمی رضامندی سے ہم جنس پرست تعلق قائم کرتے ہیں تو وہ پھانونن جرم نہیں ہیں. اس شعوری فیصلے کے آتے ہی پورے ملک میں بحث کا ایک دور شروع ہو گیا. دینی عالم، مٹھادھيش، نےتكتاوادي اور پرمپراوادي لوگ ایک بھبھكتے ہوئے خیمہ میں جمع ہو گئے. انسانی حقوق، آزادی اور تبدیلی کے سوچ رکھنے والے لوگ دوسرے دہکتے پالے میں. دلیل، حقائق حق اور هٹھدھرمتا بھری چرچاے عوامی پلیٹ فارموں پر آگ اگلنے لگیں. دلچسپ بات یہ کہ اس ایک فیصلے نے کچھ اور کیا ہو یا نہ کیا ہو لیکن ملک کو فرقہ وارانہ ہم آہنگی سے ضرور بھر دیا. وہ مولانا، وہ پجاری، وہ چرچ کے فادر جو کبھی ایک - دوسرے کو پھوٹی آنکھ نہیں سهاتے تھے .... اب ایک ہی پلیٹ فارم پر ایک - دوسرے کے ساتھ متفق ہو کر آ گئے. تبدیلی فطرت، قدرت کا قانون ہے. یہ ہوتا رہا ہے، ہوتا ہے اور ہوتا رہے گا.ہاں، ہر تبدیلی كشٹكارك ہوتا ہے. ہر تبدیلی اپنے انتس میں ایک جامع زچگی - درد لئے ہوتا ہے. دنیا میں آج تک ایسا ایک بھی تبدیلی نہیں ہوئی، جس کے ساتھ سو فیصد لوگ متفق ہو گئے ہوں. سماج کا کوئی نہ کوئی طبقہ ہر تبدیلی کے بعد غیر مطمئن اور درد میں رہ ہی جاتا ہے. یہ درد ان لوگوں کو برداشت کرنی ہی ہوتی ہے. کیونکہ ترقی کے پهيے کی اسپاتي 'گراري' اسے کبھی الٹا نہیں گھومنے دیتی. وہ ہمیشہ ایک ہی سمت میں گھومتا ہے.آگے - آگے اور آگے ...... وہ چاہے روس کی "مزدور - انقلاب" کے بعد آیا پسینے سے بھرا نمکین تبدیلی ہو. جس میں کروڑوں لوگ خوش تھے تو لاکھوں ناخش. یا بھارت میں "بیوہ - شادی" کو شروع کرنے کی ووادسپد بات ہو ...... كروڑو لوگ خوش تھے تو جانے کتنے ہی اسے سخت پاپكرم قرار دے رہے تھے. بیوہ عورت کی شادی ...!!! بیوہ کی شادی ...! ان کی نظر میں اس سے گرا ہوا اور گليذ کام دوسرا ہو ہی نہیں سکتا تھا. اگر اسی سال کے بوڑھے کے پلے بیس سال کی جوان لڑکی باندھ دی گئی اور بوڑھا دو سال بعد آخرت سدھر گیا، تو اس میں اس لڑکی کا اپرادھ ہے، سماج کا نہیں؟ اس اپرادھ کے لئے یا تو وہ عمر سر مڈاكر .... سارے رنگ تياگكر .... اسواد ورت لے کر ایک دور - کوٹھری میں اپنے اس جگھني گناہ کا تائب کرے یا پھر اس استھشےش مبینہ شوہر - خدا کی لاش کے ساتھ ستی ہو جائے.ستی ہونے سے پہلے مسلسل کیا گیا دھرمك برےنواش سروودت ہے. ستی کی چتا کے چاروں طرف لمبے - لمبے بانس لے کر کھڑی ہونے والی انمادي بھیڑ ....... بڑے - بڑے ڑھول - نگاڑے لے کر چيكھنے والے دھرمونمادي لوگ، جو اس انتظار میں رہتے تھے کہ اگر کسی وجہ سے وہ ابلا آگ کی تپش برداشت نہ کر پانے کی وجہ سے چتا سے بھاگنا چاہے، تو اسے ان طویل باسو سے كوچكر دوبارہ چتا میں دھکیل دیا جائے. "کل ستی نہ ہونا گناہ تھا. بیوہ نہ رہنا گناہ تھا." مگر تبدیلی کی ہوا نے ان سب گناہوں کی تعریفوں کو ٹھینگا دکھا دیا. تبدیلی، مذہب کے ساہوکار کی ڈيوڑھي کا چاكر نہیں ہے. وہ ہوتا ہی ہے ...... آپ چاہے اسے چیخ کر - رو کر قبول کر لو یا پھر هسكر ..... مسکرا کر. انتخابات کی سوتتراتا آپ کی ہے. تبدیلی تو ہوگا، ضرور ہوگا. کل شودر کا مندر میں داخل اپرادھ تھا ........... غیر اخلاقی تھا. شودر دےوالي میں گھسا کہ مذہب کی چولے هلي. اس کو سرهانا دینا ... اس کو برابری کا حق دینا .... اسے بادشاہ بنانا .... یہ تو كلپناتيت تھا. اگر ایسا ہو تو گویا بس پرلي دو - چار قدم ہی دور ہے. مگر تبدیلی کی ایک معمولی سی کروٹ. وہ آج احترام کے ساتھ مندروں میں کھڑے هے .... وہ آج برابر میں بیٹھے ہیں .... وہ بادشاہ ہیں. بادشاہ بن چکے ہیں ... وزیر اعلی، وزیر اعظم.راشٹرپتهے .... ہیں. پیٹتے رہیں چھاتی ... کرتے رہیے پراتن قوانین کی لاش پر سياپا.مگر آپ تبدیلی کو نہیں روک سکتے. وہ بھی وقت تھا کہ شودر کے کانوں میں اگر وید - جملہ پڑ جائے تو اس کے کانوں میں پگھلا ہوا شیشہ بھر دینا چاہئے. اب کوشش کر کے دیکھ لیجئے ...... سارا مذہب اور اس کی ٹھیکیداری ناک کے راہ باہر آ جائے گی. گناہ کی تعریف، اپرادھ کی تعریف ہر دور میں پروترتت ہوتی ہے. کل تک آپ بال - شادی کو اپرادھ نہیں مانتے تھے. آج آپ کو بال - شادی کی اپرادھ - زمرہ منظور کرنی پڑی. کوئی بھی ملک کے قانون اور سودھن سے اوپر نہیں ہے. یہ الگ بات ہے کہ آپ نديا بھر کھارے آنسوؤں کے ساتھ اسے منظور کریں یا پھر پرسننچتت ہو کر ....... كرودھ اور غم وغصہ کا آتش فشاں بن کر اس کے ساتھ اتفاق رائے دیں یا پھر خاموش سمجھداری کے ساتھ. آپ گنگا کو اسی راستے سے واپس اب ہمالیہ نہیں بھیج سکتے. وہ صرف آگے بڑھ سکتی ہے. زیادہ سے زیادہ اتنا کر سکتے ہو کہ بادھ بنا کر اس کی اجسر دفعہ کو کچھ وقت کے لئے روک لو .... مگر زیادہ کوشش کی تو سب بہہ جائیں گے. یہی تبدیلی کے ساتھ ہے. آپ سیکھے ہوئے کو انسيكھا نہیں کر سکتے. آپ جانے ہوئے کو اجانا نہیں کر سکتے. ابھی یہ برداشت کرنا مشکل ہے کہ دو خواتین یا دو مرد باہمی رضامندی سے سمبندھ قائم لوڈ، اتارنا. ابھی یہ اماوسيا سا سیاہ گناہ نظر اتا ہے .... ابھی یہ آخری غیر اخلاقی لگ رہا ہے ... ابھی یہ انتہائی چارترك خلاف ورزی پیش نظر ہوتا ہے. مگر وقت کی بدلتی ذاپھراني خشبودار ہوا کے ساتھ یہ تعریف بدل جائے گا. هوموسےكسلٹي اور لےسبينذم ہمارے سماج کے اندھیرے کنوئیں کی درشٹوان حقیقتیں ہیں. آج سے نہیں صدیوں سے ...... شاید انسانی تہذیب کے ساتھ سے یہ بھی ہیں اور یہ صرف ہندوستانی سماج یا کسی مذہب خاص کی بات نہیں ہے. ہر مذہب، ہر تہذیب اور ہر ملک کے شہریوں کے درمیان کا رےتيلا سچ ہے. دنیا کے زیادہ تر مذاہب اور ممالک میں هومو اور لےسبين ہوتے رہے ہیں. منسمرت میں لےسبين سمبندھے کے لئے سخت سزا کا انتظام کیا ہے. یہ سزا کہاں سے آیا .......؟ اگر سماج میں یہ اپرادھ ہی نہیں تھا، تو سزا بھی نہیں ہونا چاہئے تھا. یہ سزا وہاں تھی، جو بتاتی ہے کہ اس وقت کے سماج میں یہ فطرت، قدرت موجود تھی ..... ایسے لوگ موجود تھے ... بے شک وہ دڈنيي ہی تھے، مگر وہ تھے. سزا - قانون ساز کہتا ہے کہ - كنيےو كنيا یا كرياتتسيا سياددرشتو دم. شلك چ دوگ ددياچچھپپھا श्चैवाप्नुश्याद्दश .. یا تو كنيا प्रकुर्यात्स्त्राी سا سديو موڈڈڈھمرهت. اگليورےو وا چھےد كھرےودوهن اور .. - اشٹم باب، منسمرت مندرجہ بالا شلوک کا ہندی انوواد بہت فحش ہو جائے گا ایسا میرے دوستوں کا کہنا ہے.اس لئے بغیر ہندی ترجمہ کے لکھ رہا ہوں، یہ وہی مشہور سزا - قانون ساز ہیں، جو شودر کو دھرمستھل میں داخلہ پر بےرهم انتقام کا انتظام دیتے ہیں .... جو بیوہ کی شادی پر كٹيلي سزا کا قانون کرتے ہیں، جو ستی - رواج کی حوصلہ افزائی کرتے ہیں. ان کی اتنی باتوں کو جدید معاشرے اور قانون ساز انسانیت کے خلاف، ناگپھنيا - جرم مان کر مسترد کر چکا ہے. ان ظالم دڈو کو انسانی حقوق کی خلاف ورزی تصور کیا جاتا ہے، تو یقینا ہم جنس اور لےسبينذم پر بھی نظر ثانی کی ضرورت ہے. ایسا نہیں ہے کہ ممبئی اور بنگلور کی 'گے پریڈ' میں لاکھوں کی تعداد میں سڑکوں پر آنے والے لوگ اچانک چاند سے اتر آئے تھے. نہیں .... وہ ہمارے درمیان کا حصہ تھے ... وہ کسی وجہ سے سامنے نہیں آئے تھے اور جب موقع آیا، تو وہ لاکھوں میں جمع ہو کر چےراهو اور سڑکوں پر آ گئے. آپ ان کا ذکر ہر دور میں ملتا ہے - وہ چاہے کوئی بھی كالكھڈ اور دور کیوں نہ رہا ہو -
اور ناگركا كےچدنيونيسي هتےش. كرونت روڈھو شواسا پرسپرپرگرهم .. -36 - نوم باب کام سوتر دنیا میں هوموسےكسلٹي کا سب سے پہلا پرماك ذکر 2400 ب. سی کے آس پاس، مشرا کے دو مرد - ڈبلز Khnumhotep and Niankhkhnum کے درمیان حاصل ہوتا ہے.جدید دور میں هوموسےكسلٹي کا سب سے پہلا شائع ذکر 1869 میں ایک جرمن پےمپپھلےٹ میں اسٹريا میں پیدا اپنیاسکار کارل ماریا كرٹبےني کے ذریعے ملتا ہے. چین میں 600 ب. سی کے ارد گرد هوموسےكسلٹي کے لئے کچھ الگ طرح کے الفاظ کا استعمال ملتا ہے جیسے pleasures of the bitten peach، the cut sleeve، or the southern custom تھايلےڈ میں بادشاہ کے شائقین میں 'كےتھوي' اور 'لیڈی بوائے' Kathoey ، or "Ladyboys کا ذکر ہر جگہ پر ہے. بايبل میں باقاعدہ امورا اور سوڈوم نام کے دو شہروں کا ذکر ہے جہاں کے شہری پوری طرح سے ایسے سمبندھے میں ملوث تھے. بعد میں خدا نے ناراض ہو کر ان دونوں شہروں کو ہی تباہ کر دیا '' ان کے سو جانے سے پہلے سوڈوم شہر کے مردوں نے، جوانوں سے لے کر بوڑھو تک، بلکہ چاروں طرف سے سب لوگوں نے آ کر اس گھر کو گھیر لیا، اور لوط کو پكاركر کہنے لگے کہ جو مرد آج رات تیرے گھر آئے ہیں، وہ کہاں ہیں؟ ان کو ہمارے پاس باہر لے آ، کہ ہم ان سے بھوگ لوڈ، اتارنا.'' (بايبل نکالنے - 19/4 اور 19/5) طبی سائنس کا لفظ 'سڈمي' جو مرد - مردوں کے جسمانی سمبندھ کے طور پر استعمال کیا جاتا ہے، وہاسی سوڈوم نگر سے لیا گیا ہے. خاتون سوتتراتا کی حامی دنیا کے مشہور مصنفہ سيمون دی بووار اپنی دنیا مشہور تحریر میں 'سیکنڈز سیکس' میں لکھتی ہیں -'' جو عورت اپنے ستريتو کو عورت کی بانہوں میں سوپكر خوشی حاصل کرنا چاہتی ہے، اس میں یہ فخر ہوتا ہے کہ وہ کسی مالک حکم نہیں مانے گی. ........ ان کے پرستاروں کی محبت بڑا ہی مارمك، مرے اور سچا ہوتا ہے، کیونکہ یہ محبت - بندھن کسی تنظیم، رسم - رواج یا روایت کی طرف سے نہیں باندھ جاتا.'' - سيمون دی بووار (دی سےكےڈ جنس) مٹھادھيشو کی دلیل ہے کہ ہم جنس ایک بیماری ہے اور ايروےد میں اس کا علاج موجود ہے. اس بات سے اور کچھ ثابت ہوتا ہو یا نہ ہوتا ہو مگر ایک بات ضرور ثابت ہو جاتی ہے کہ ہندوستان میں ہم جنس کا وجود ویدک دور سے ہے. کیونکہ ايروےد بھی چاروں ویدوں کا ہی ایک حصہ تصور کیا جاتا ہے. یہ بھی وید کا ایک اپاگ ہی ہے. اگر ايروےد میں اس کا ذکر انہوں نے کہیں پڑھا ہے، تو یہ پکا ہے کہ یہ مزاج سناتنكال سے بھارت میں موجود رہا ہے. یہ بیماری ہے یا نہیں اسے ثابت کرنے کے لئے، جذباتی - دل مذہب - شاستری کی ضرورت نہیں ہے بلکہ پرماك ماہرین کی ضرورت ہے. کوئی علامت بیماری ہے یا نہیں اسے منظوری دینے کے لیے خصوصی طبی ماپدڈو اور شودھسددھ تتھيسگت كسوٹيو کی ضرورت ہوتی ہے. ایسا نہیں ہے کہ آپ کسی بھی بات کو کھڑا ہو کر کہہ دیں گے کی یہ 'بیماری' ہے اور وہ بیماری مان لی جائے گی. دنیا کے جانے مانے نفسیاتی هےولاك اےلس نے 1896 میں شائع اپنی کتاب 'سےكسل انورجن' میں ان تمام ناشائستہ عقائد کو چیلنج کیا، جو یہ کہتی تھیں کہ ہم جنس ایک غیر معمولی، اپراكرت رویہ ہے.آسٹرےلےن سايكلوجكل سوسائٹی نے اپنی رپورٹ میں کہا ہے کہ -'' ہم جنس پرست رویہ کوئی ذہنی بیماری نہیں ہے، ایسا کوئی سائنسی وجہ نہیں ہے جس کے لئے کسی 'گے' یا 'لےسبين' کو 'هےٹروسےكسل' میں تبدیل کرنے کی کوشش کی جائے. '' دنیا کی سب سے بڑی صحت کی تنظیم عالمی ادارہ صحت 'نے 17 مئی 1990 کو 43 ویں ورلڈ ہیلتھ اسمبلی میں ارٹيكل ICD-10 میں یہ صاف کر دیا کہ ہم جنس کوئی ذہنی بیماری نہیں ہے.'' یہ بالکل ایک عام رویہ ہے اور پوری طرح سے باہمی 'انتخاب' کا معاملہ ہے. یہ بات صرف انسان کے رویہ تک ہی محدود نہیں ہے. اےنيمل برطانیہ کے محقق بروس بےگمل نے 1999 میں اپنی شودھ ریویو میں شائع کیا ہے کہ جانوروں کی تقریبا 1500 پرجاتیوں میں ہم جنس پرست رویہ دیکھا گیا ہے. سائنسی نقطہ نظر سے کہیں بھی اس طرز عمل کو اپراكرتك نہیں سمجھا گیا ہے. اب سوال اٹھتا ہے کیا دھرمك پراتن كسوٹيو پر یہ خرا اتر سکے گا؟ یہاں مشکل زیادہ ہے ... مذہب، لغوی اور انبھوتگت وضاحت کا معاملہ ہے. سائنس ثبوت کا موضوع ہے، دلیل کا موضوع ہے. برهمچاري مٹھادھيش کی دلیل یہ ہے کہ اگر دو ہم جنس پرستی کے ماں - باپ بھی ہم جنس پرست ہوتے تو وہ لوگ کہاں سے آتے؟ پرتترك یہ کہتا ہے کہ - اگر برهمچاري مٹھادھيش کے ماں - باپ بھی ان کی طرح برهمچاري ہوتے تو وہ کہاں سے آتے؟ اگر ہم جنس اپراكرتك ہے ..... برہمچرے بھی قدرتی کیسے ہو سکتا ہے؟ ویرے کو جسم فروشی کے فانی پركوٹے میں قید کرنا ٹھیک ایسے ہے جیسے کوئی شخص یہ قسم کھا لے کہ وہ موترتياگ نہیں کرے گا اور پیشاب کو جسم میں ہی روکے رکھے گا کیونکہ ایسا کرنے سے دھرمكتا آتی ہے ... مذہب کے حصول ہوتی ہے. جیسے کوئی یہ پاشا - سوگندھ اٹھا لے کہ وہ بھوک لگنے پر کھانا نہیں کرے گا ....... جیسے کوئی شخص یہ لوہے - حلف لے لے کہ دکھ ہونے پر بھی وہ اپنے آنسوؤں کو اپنی آنکھوں میں ہی روکے رکھے گا انہیں باہر نہیں آنے دے گا. کیونکہ آنسو آنکھوں میں روکنے سے مذہب حاصل ہوتا ہے. ہو سکتا ہے کل کوئی نئی دھرمكتا آ کر یہ کہہ دے کہ مل - ترک کرنا غلط بات ہے، اسے جسم میں روکنے سے مذہب کے حصول ہوتی ہے تو ہو سکتا ہے یہ اسے بھی منظوری دے دیں. یہ دھرمتا نہیں هٹھدھرمتا ہے. دونوں میں بھاری فرق ہے. یعنی، فطرت، قدرت بیوقوف ہے جس نے آپ کی جسم میں ویرے جیسا فالتو دروي پیدا کر دیا، اور آپ مہا ذہین ہیں، جو اس کی ويرتھتا کو سمجھ کر اس کا استعمال نہیں کر رہے. اخلاقیات کے كاگبھگوڑے ایک اور توتارٹت روز اعادہ کرتے ہیں. یہ پاشچاتي ثقافت ہے، یہ مغربی تہذیب کا رویہ ہے، یہ ہماری روایت نہیں ہے. مغربی نے ستیاناس کر دیا ...... مغرب کی تہذیب ہم کیوں اپناے؟ ایسے لکشمی - گاڑی جس مغرب کو آلودہ پانی پی - پیکر کوستے ہیں ..... جس پاشچاتي ثقافت کو اچھوت سمجھتے ہیں اس نے جینا سکھا دیا. آپ مغرب کے ایجاد کئے گئے موبائل فون کو اپنے كاٹھ - كمڈل میں رکھ کر گھومتے ہیں. آپ مغرب میں تیار کی گئی موٹر گاڑیوں میں سفر کرتے ہیں. آپ مغرب میں بنائی گئی ریلوے میں مدھمككھيو کے چھتتے کی طرح بھرے رہتے ہیں. آپ مغرب میں اوشكرت ٹی وی پر تمام طرح کے دلچسپ كريڑاے چٹخارے لے - لے کر دیکھتے ہیں. آپ مغرب میں بنائیں گئے واييانو میں سفر کرتے ہیں .... آپ مغرب میں ایجاد کیا گیا لاڈسپيكر اور آڈیو پلیئرز کو رات - دن اپنے مندروں - مسج़دو میں استعمال کرتے ہیں. آپ مغرب میں ایجاد کیا گیا مےٹلڈٹےكٹرس کو اپنے مذہب مقامات کے دروازے پر رکھتے ہیں تاکہ آپ ان کے اندر محفوظ عبادت کر سکیں. آپ کی آنکھوں پر چڑھا نظر کا چشمہ اسی نندت اور نام نہاد غیر اخلاقی مغرب کی دین ہے. دنیا ایک گاؤں بن چکا ہے. اب خالی ان گلگپوڑو سے کام نہیں چلے گا کہ ہمارے پاس پشپك طیارہ تھا ... ہماری پاس اكاشواي تھی .... ہمارے پاس برهماسترا تھا ....... ہمارے پاس خدا - نظر تھی ........ .............. یہ'' تھی'' کا كھٹراگ بہت ہو چکا. '' اب کیا ہے'' یہ کہنے والی بات ہے. اپنی ہار کو پركھو کی وجے سے ڈھكنے کی کوشش بزدلی ہے. مجھے کسی بزرگ شاعر کی سطریں یاد ہوتی ہیں -
وہ اپنی مپھلسي جب بھی چھپانے لگتا ہے. تو باپ - دادا کے قصے سنانے لگتا ہے ..
جب بھی دو سبھيتاے باہمی رابطہ میں آتی ہیں ... وہ ایک - دوسرے سے اپربھاوت نہیں رہ سکتیں. آپ وہاں انتخابات نہیں کر سکتے کہ ہم یہ - یہ اپناےگے اور یہ - یہ چیز نہیں اپناےگے. آپ یہ نہیں کہہ سکتے کہ ہم صرف ٹیکنالوجی منظور کریں گے ...... ان کی پرمپراے نہیں ... ہم صرف ان سے ٹےكنولاجي حاصل کریں گے ان کی مانيتاے اور ثقافتی قیمت نہیں. آپ کو بہت ساری چیز چاہے - ان چاہے قبول کرنی ہی ہوتی ہیں. آپ اگر مغل تہذیب کے رابطہ میں آئے تو آپ کی زبان نے ہزاروں روزمرہ کے اردو - عربی کے لفظ پی کر پچا لئے. آپ خود بھی نہیں پتہ کہ دن بھر میں اردو اور پ़پھارسي کے کتنے عام لفظ آپ استعمال کرتے ہیں. چاہے وہ شکایت ہو یا سہاگرات، مکان ہو یا محبت، قلم ہو یا کاغذ. زندگی ہو یا زمین، دوا ہو یا دلہن. آپ اس طرح سے اس ثقافت سے ودےه نہیں رہ سکتے. بايبل میں لکھا ہے کہ خدا نے چھ دن تک دنیا بنائی اور ساتویں دن آرام کیا. یہ مقدس دن مانا گیا ....... یعنی 'ہولی - ڈے'. اس دن کوئی کام نہیں ہوگا کیونکہ جب خدا نے بھی اس دن آرام کیا، تو اس کا بنایا آدمی کیسے کام کرے گا؟ آج سارا دنیا 'سڈے' کی چھٹی منا رہا ہے. آپ اسے بھی منع کر دیجئے کہ یہ تو عیسائی ثقافت ہے ہم سڈے کا فرصت نہیں رکھیں گے. آپ انگریزوں کے رابطہ میں آئے ... تو انہوں نے آپ کو پینٹ - شرٹ پہننا سکھا دیا. آپ کا پهناوا تو دھوتی - کرتا تھا. اسے بھی منع کر دیجئے کہ یہ پاشچاتي روایت ہے ہم اسے نہیں پہنیں گے. لےبورےٹريذ میں ..... کارپوریٹ ميٹگس میں ...... کنسٹرکشن سائٹ پر ..... وزیر - سفر میں .... جائیے ہر جگہ پر دھوتی - کرتا پہن کر ... صرف هٹھدھرمتا کے كنكووے اڑانے سے کام نہیں چلے گا. موجودہ کی تتھيسگتتا کو بھی آپ کو دیکھنا ہی ہوگا. شادی شدہ زندگی جینے والے زیادہ تر لوگ اس حقیقت کو قبول کریں یا نہ کریں مگر ان کا اتكر جانتا ہے کہ کبھی نہ کبھی وہ اپنے شينككش میں اس اپراكرتك کہے جانے والے طریقے کو آزمانے کی کوشش کرتے ہیں. وپريتلگي شادی شدہ جوڑے بھی بڑی تعداد میں، تبدیلی کے طور پر، یا کسی دوسرے کی وجہ سے کبھی نہ کبھی دھرا 377 کے انرتگت مجرم ہو جاتے ہیں. یہ دیگر بات ہے کہ اندھیرے کمروں سے یہ سچ باہر نہیں نکلتا. مگر وہ خود تو سچ سے واقف ہوں گے ہی ....... قبول کریں یا نہ کریں یہ بڑی بات نہیں ہے. اخلاقیات کے المبردار، ایک اور دلیل کو اپنی كٹھنلكا کے آخری کنارے سے طاقت جمع کر چلا رہے ہیں. ہم جنس اگر اپنی پسند کا موضوع ہے تو پپھر کل کوئی کہنے لگے گا کہ مجھے تو کتے - بلیوں کے ساتھ سمبندھ قائم کرنے ہیں. مجھے تو جانوروں کی - پرندوں کے ساتھ جماع کرنا ہے. تب کیا انہیں بھی اس بات کی اجازت دے دی جائے کہ وہ جانوروں کی - جماع لوڈ، اتارنا؟ مگر میری سمجھ میں یہ صرف بولنے کی پلفباجی اور اتاولےپن سے نکلا بیان ہے. قانون کی دفعہ میں لکھا ایک لفظ سارا مطلب تبدیل کر سکتا ہے. وہاں صاف لکھا ہے Consenting Adult كنسےٹگ اڈلٹ ایسا بالغ شخص جو منظوری دے رہا ہے. جانوروں کو بھارتی سودھن نے بالغ یا نابالغ کے زمرے میں نہیں رکھا ہے. دوسری بات جانوروں اتفاق نہیں دے سکتا. آپ اسے آگ کے گولے سے كودنا، بال اٹھا کر لانا تو سکھا دیں گے لیکن یہ نہیں کہہ سکتے کہ یہ کام وہ اتفاق سے کر رہا ہے. دوسری بات اگر وہ جانور - كرورتا کے تحت آ گیا تو آپ جیل بھی جائیں گے. کسی کام کو سيكھكر کرنا اور کسی کام کے لئے اتفاق رائے دینا الگ بات ہے. جانوروں کی رضامندی کے لئے ہندستانی اسمبلی میں ابھی تک تو کوئی دفعہ - اپدھارا نہیں ہے. جب ہو جائے تب یہ معاملہ اٹھایا جائے تو ٹھیک رہے گا. رہی بات یہ کہ یہ شادی کتنے دن چل سکیں گے؟ آپ عدالتوں میں جا کر دیکھیں گے تو پتہ چلے گا کہ وپريتلگيو نے جو شادی آگ کے سامنے سات پھیرے لے کر کئے، ان کی طلاق کی ارذيو سے کورٹ بھرے ہوئے ہیں. بھارتی طلاق کی سروے ررپوٹرس بتاتی ہیں کہ صرف دہلی میں ہی سال 2006 کے مقابلے 2008 میں طلاق کی شرح دو گنی ہو گئی ہے. پنجاب اور ہریانہ میں گزشتہ ایک دہائی میں طلاق کی شرح 150٪ اضافہ ہو گیا ہے. بھارت کے سب سے زیادہ تعلیم یافتہ ریاست کیرالہ میں طلاق کی شرح گزشتہ ایک دہائی میں 350٪ اضافہ ہو گیا ہے. آپ کسی بھی دو افراد کو ان کی رضامندی کے خلاف ساتھ رہنے کو مجبور نہیں کر سکتے بے شک وہ سملگي ہوں یا وپريتلگي. جب وپريتلگي طلاق لے سکتے ہیں تو صرف ہم جنس پرستی کے طلاق پر ہی قبائلی رقص کرکے ہو - ہلا کیوں؟ ضرورت تشویش کی نہیں چنتن کی ہے. ضرورت املاک - سوچ کی ہے، دماغی - شوچ کی نہیں. ان کے ساتھ پرگرهواسي جیسا سلوک کرنے کی نہیں بلکہ سمجھنے کی بات ہے. باقی کام عدالت کا ہے .... دیر - سبےر فیصلہ آ جائے گا ..... وہ حق میں ہو یا اپوزیشن میں تمام کو منظوری دینی ہی ہوگی.
                                                                        
- کمار پنکج ...
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