सुप्रीम कोर्ट ने अभी भारत सरकार से पूछा है कि समलैंगिकता अपराध् कैसे है ? भारत सरकार ने बताया है कि यह अनैतिक है। नैतिकता की सही परिभाषा क्या है, इसे आज तक दुनिया में कोई नहीं बता सका। 02 जुलाई, 2009.....हिन्दुस्तान के स्वर्णिम न्यायिक इतिहास में, मानसिक अकुलाहट से भर देने वाला एक तवारीख़ी फैसला। हाईकोर्ट ने नाज़ फाउंडेशन की याचिका पर दिए निर्णय में परस्पर सहमति से बनाए गए समलैंगिक सम्बन्ध का अनपराधीकरण (Decriminalization) कर दिया। यदि दो बालिग व्यक्ति परस्पर सहमति से समलैंगिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो वो फानूनन अपराध नहीं हैं। इस बौद्धिक फैसले के आते ही पूरे मुल्क में बहस का एक दौर शुरु हो गया। धर्मगुरू, मठाधीश , नैतिकतावादी और परम्परावादी लोग एक भभकते हुए ख़ेमे में इकट्ठा हो गए। मानवाधिकार, स्वतंत्रता और परिवर्तनवादी सोच रखने वाले लोग दूसरे दहकते पाले में। तर्क, तथ्यों अधिकार और हठधर्मिता भरी चर्चाएँ सार्वजनिक मंचों पर आग उगलने लगीं। दिलचस्प बात ये कि इस एक फ़ैसले ने कुछ और किया हो या न किया हो लेकिन मुल्क को साम्प्रदायिक सौहार्द से ज़रूर भर दिया। वो मौलाना, वो पुजारी, वो चर्च के फादर जो कभी एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते थे....अब एक ही मंच पर एक-दूसरे के साथ सहमत होकर आ गए। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। ये होता रहा है, होता है और होता रहेगा। हाँ, हर परिवर्तन कष्टकारक होता है। हर परिवर्तन अपने अन्तस में एक गहन प्रसव-पीड़ा लिए होता है। दुनिया में आज तक ऐसा एक भी परिवर्तन नहीं हुआ, जिसके साथ सौ प्रतिशत लोग सहमत हो गए हों। समाज का कोई न कोई वर्ग हर परिवर्तन के बाद असंतुष्ट और पीड़ा में रह ही जाता है। यह पीड़ा उन लोगों को सहन करनी ही होती है। क्योंकि विकास के पहिये की इस्पाती ‘गरारी’ उसे कभी उल्टा नहीं घूमने देती। वो सदैव एक ही दिशा में घूमता है। आगे-आगे और आगे.....।
वो चाहे रूस की "मज़दूर-क्रांति" के बाद आया पसीने से भरा नमकीन परिवर्तन हो। जिसमें करोड़ों लोग ख़ुश थे तो लाखों नाख़ुश। या भारत में "विधवा-विवाह" को शुरु करने की विवादस्पद बात हो......करोड़ो लोग प्रसन्न थे तो जाने कितने ही इसे घोर पापकर्म की संज्ञा दे रहे थे। विध्वा का विवाह....!!! विधवा का विवाह....! उनकी नज़र में इस से गिरा हुआ और गलीज़ काम दूसरा हो ही नहीं सकता था। अगर अस्सी साल के बूढ़े के पल्ले बीस साल की जवान युवती बाँध दी गई और बूढ़ा दो साल बाद परलोक सिधर गया, तो इसमें उस लड़की का अपराध् है, समाज का नहीं ? इस अपराध् के लिए या तो वो आजीवन सिर मुँडाकर....सारे रंग त्यागकर....अस्वाद व्रत लेकर एक काल-कोठरी में अपने इस जघन्य पाप का प्रायश्चित करे या फिर उस अस्थिशेष तथाकथित पति-परमेश्वर की लाश के साथ सती हो जाए। सती होने से पहले निरन्तर किया गया धर्मिक ब्रेनवाश सर्वविदित है। सती की चिता के चारों तरफ लम्बे-लम्बे बाँस लेकर खड़ी होने वाली उन्मादी भीड़.......बड़े-बड़े ढ़ोल-नगाड़े लेकर चीखने वाले धर्मोन्मादी लोग, जो इस प्रतीक्षा में रहते थे कि यदि किसी वजह से वो अबला आग की तपिश सहन न कर पाने के कारण चिता से भागना चाहे, तो उसे उन लम्बे बाँसों से कोंचकर दोबारा चिता में धकेल दिया जाए। "कल सती न होना पाप था। विधवा न रहना पाप था।" मगर बदलाव की हवा ने इन सब पापों की परिभाषाओं को ठेंगा दिखा दिया। बदलाव,धर्म के साहूकार की ड्योढ़ी का चाकर नहीं है। वो होता ही है......आप चाहे उसे चीखकर-रोकर स्वीकृत कर लो या फिर हँसकर.....मुस्कराकर। चुनाव की स्वतंत्राता आप की है। बदलाव तो होगा, ज़रूर होगा।
कल शूद्र का मन्दिर में प्रवेश अपराध् था...........अनैतिक था। शूद्र देवालय में घुसा कि धर्म की चूलें हिलीं। उसको सिरहाना देना...उसको बराबरी का हक देना....उसे राजा बनाना....ये तो कल्पनातीत था। अगर ऐसा हो तो मानो बस प्रलय दो-चार कदम ही दूर है। मगर परिवर्तन की एक मामूली सी करवट। वो आज सम्मान के साथ मन्दिरों में खड़े हंै....वो आज बराबर में बैठे हैं....वो राजा हैं। सम्राट बन चुके हैं...मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री. राष्ट्रपतिहैं....हैं। पीटते रहिए छाती...करते रहिए पुरातन नियमों की लाश पर स्यापा। मगर आप बदलाव को नहीं रोक सकते। वो भी समय था कि शूद्र के कानों में यदि वेद-वाक्य पड़ जाए तो उसके कानों में पिघला हुआ शीशा भर देना चाहिए। अब कोशिश करके देख लीजिए......सारा धर्म और उसकी ठेकेदारी नाक के राह बाहर आ जाएगी। पाप की परिभाषा, अपराध् की परिभाषा हर युग में परिवतर्तित होती है। कल तक आप बाल-विवाह को अपराध् नहीं मानते थे। आज आपको बाल-विवाह की अपराध्-श्रेणी स्वीकृत करनी पड़ी। कोई भी मुल्क के क़ानून और संविधन से ऊपर नहीं है। ये अलग बात है कि आप नदिया भर खारे आँसुओं के साथ उसे मंज़ूर करें या फिर प्रसन्नचित्त होकर....... क्रोध् और आक्रोश का ज्वालामुखी बनकर उसके साथ सहमति दें या फिर शांत समझदारी के साथ। आप गंगा को उसी रास्ते से वापस अब हिमालय नहीं भेज सकते। वो केवल आगे बढ़ सकती है। ज़्यादा से ज़्यादा इतना कर सकते हो कि बाँध् बनाकर उसकी अजस्र धारा को कुछ समय के लिए रोक लो....मगर अधिक कोशिश की तो सब बह जाएँगे। यही बदलाव के साथ है। आप सीखे हुए को अनसीखा नहीं कर सकते। आप जाने हुए को अजाना नहीं कर सकते।
अभी ये सहन करना कठिन है कि दो महिलाएँ या दो पुरुष आपसी सहमति से सम्बन्ध् स्थापित करें। अभी ये अमावस्या सा काला पाप दिखता है....अभी ये परम अनैतिक दिखता है...अभी ये चरम चारित्रिक हनन दृष्टिगत होता है। मगर वक्त की बदलती ज़ाफरानी ख़ुशबूदार हवा के साथ ये परिभाषाएँ बदल जाएँगीं। होमोसेक्सुअलिटी और लैस्बियनिज़्म हमारे समाज के अंधेरे कुएँ की दृष्टिवान सच्चाईयाँ हैं। आज से नहीं सदियों से......शायद मानव सभ्यता के साथ से ये भी हैं और यह केवल भारतीय समाज या किसी धर्म विशेष की बात नहीं है। हर धर्म , हर सभ्यता और प्रत्येक मुल्क के नागरिकों के बीच का रेतीला सच है । दुनिया के ज़्यादातर धर्मों और देशों में होमो और लैस्बियन होते रहे हैं। मनुस्मृति में लैस्बियन सम्बन्धें के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है। ये दण्ड कहाँ से आया.......? यदि समाज में ये अपराध् ही नहीं था, तो दण्ड भी नहीं होना चाहिए था। ये सज़ा वहाँ थी, जो बताती है कि उस वक्त के समाज में ये प्रकृति विद्यमान थी.....ऐसे लोग उपस्थित थे...बेशक वो दण्डनीय ही थे, मगर वो थे। दण्ड-विधान कहता है कि-
कन्यैव कन्यां या कुर्यात्तस्याः स्याद्दिृशतो दमः।
शुल्कं च द्विगुणं दद्याच्छिपफा श्चैवाप्नुश्याद्दश।।
या तु कन्यां प्रकुर्यात्स्त्राी सा सद्यो मौण्डड्ढमर्हति।
अंगुल्योरेव वा छेदं खरेणोद्वहनं तथा।।
-अष्टम अध्याय, मनुस्मृति
उपरोक्त श्लोक का हिन्दी अनुववाद बहुत अश्लील हो जाएगा ऐसा मेरे मित्रों का कहना है। इसलिए बिना हिन्दी अनुवाद के लिख रहा हूँ, ये वही विख्यात दण्ड-विधान हैं, जो शूद्र को धर्मस्थल में प्रवेश पर बेरहम दण्ड की व्यवस्था देते हैं....जो विधवा के विवाह पर कंटीली सज़ा का प्रावधान करते हैं, जो सती-प्रथा को प्रोत्साहित करते हैं। इनकी इतनी बातों को आधुनिक समाज और विधान मानवता के विरुद्ध, नागफनिया-अपराध मानकर अस्वीकृत कर चुका है। उन क्रूर दण्डों को मानवाधिकार का उल्लंघन माना जाता है, तो यकीनन समलैंगिकता और लैस्बियनिज़्म पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि मुम्बई और बैंगलोर की ‘गे परेड’ में लाखों की तादाद में सड़कों पर आने वाले लोग अचानक चाँद से उतर आए थे। नहीं....वो हमारे बीच का हिस्सा थे...वो किन्हीं कारणों से सामने नहीं आए थे और जब अवसर आया, तो वो लाखों में एकत्र होकर चैराहों और सड़कों पर आ गए। आपको उनका उल्लेख हर युग में मिलता है- वो चाहे कोई भी कालखण्ड और युग क्यों न रहा हो-
तथा नागरकाः केचिदन्योन्यस्य हितैषिणः।
कुर्वन्ति रूढवि श्वासाः परस्परपरिग्रहम्।।
-36 -नवम अध्याय कामसूत्र
दुनिया में होमोसेक्सुअलिटी का सबसे पहला प्रमाणिक उल्लेख 2400 ब.सी के आसपास, मिश्र के दो पुरुष-युगल Khnumhotep and Niankhkhnum के बीच प्राप्त होता है। आधुनिक युग में होमोसेक्सुअलिटी का सबसे पहला प्रकाशित उल्लेख 1869 में एक जर्मन पेम्पफलेट में आस्ट्रिया में जन्में उपन्यासकार कार्ल मारिया कर्टबेनी के द्वारा मिलता है। चीन में 600 ब.सी के आसपास होमोसेक्सुअलिटी के लिए कुछ अलग तरह के शब्दों का प्रयोग मिलता है जैसे pleasures of the bitten peach, the cut sleeve, or the southern custom थायलैंड में राजा के प्रेमियों में ‘कैथोय’ और ‘लेडी ब्वाय’Kathoey, or "Ladyboys का ज़िक्र हर जगह पर है। बायबिल में बाकायदा अमोरा और सोडोम नाम के दो शहरों का ज़िक्र है जहाँ के नागरिक पूरी तरह से ऐसे सम्बन्धें में लिप्त थे। बाद में परमेश्वर ने नाराज़ होकर उन दोनों शहरों को ही नष्ट कर दिया-
‘‘उनके सो जाने से पहले सोडोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन् चारों ओर से सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया, और लूत को पुकारकर कहने लगे कि जो पुरुष आज रात तेरे घर आए हैं, वे कहां हैं ? उनको हमारे पास बाहर ले आ, कि हम उनसे भोग करें।’’(बायबिल उत्पत्ति- 19/4 व 19/5) चिकित्सा विज्ञान का शब्द 'सॉडमी' जो पुरुष-पुरुष के शारीरिक सम्बन्ध् के रूप में प्रयोग किया जाता है, वो इसी सोडोम नगर से लिया गया है। नारी स्वतंत्राता की हिमायती विश्व प्रसिद्ध लेखिका सीमोन द बोउवार अपनी विश्व विख्यात कृति ‘द सेकण्ड सेक्स’ में लिखती हैं-‘‘जो स्त्री अपने स्त्रीत्व को स्त्री की बाँहों में सौंपकर आनन्द प्राप्त करना चाहती है, उसमें यह गर्व होता है कि वह किसी स्वामी की आज्ञा नहीं मानेगी। ........इन प्रेमियों का प्रेम बड़ा ही मार्मिक, निष्कपट व सच्चा होता है, क्योंकि यह प्रेम-बन्ध्न किसी संस्था, रीति-रिवाज या परम्परा द्वारा नहीं बाँध जाता।’’ --सीमोन द बोउवार (द सेकेण्ड सेक्स)
मठाधीशों का तर्क है कि समलैंगिकता एक बीमारी है और आयुर्वेद में इसका इलाज़ मौज़ूद है। इस बात से और कुछ साबित होता हो या न होता हो मगर एक बात ज़रूर साबित हो जाती है कि हिन्दुस्तान में समलैंगिकता का वज़ूद वैदिक काल से है। क्योंकि आयुर्वेद भी चारों वेदों का ही एक भाग माना जाता है। यह भी वेद का एक उपांग ही है। अगर आयुर्वेद में इसका ज़िक्र उन्होंने कहीं पढ़ा है, तो ये पक्का है कि ये स्वभाव सनातनकाल से भारत में उपस्थित रहा है। ये बीमारी है या नहीं इसे साबित करने के लिए, भावुक-हृदय धर्म-शास्त्री की आवश्यकता नहीं है वरन् प्रमाणिक विशेषज्ञ की ज़रूरत है। कोई लक्षण बीमारी हैं या नहीं इसे मान्यता देने के लिए विशेष चिकित्सीय मापदण्डों और शोधसिद्ध तथ्यसंगत कसौटियों की आवश्यकता होती है। ऐसा नहीं है कि आप किसी भी बात को खड़ा होकर कह देंगे की ये ‘बीमारी’ है और वो बीमारी मान ली जाएगी। दुनिया के जाने माने मनोवैज्ञानिक हैवलाक एलिस ने 1896 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘सेक्सुअल इनवर्जन’ में उन सभी बेहूदा मान्यताओं को चुनौती दी, जो ये कहती थीं कि समलैंगिकता एक असामान्य, अप्राकृति व्यवहार है। आस्ट्रेलियन सायक्लोजिकल सोसायटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि- ‘‘समलैंगिक व्यवहार कोई मानसिक बीमारी नहीं है, ऐसा कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है जिसके लिए किसी ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ को ‘हैट्रोसेक्सुअल’ में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाए। ‘‘दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्था ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने 17 मई 1990 को 43 वीं वर्ल्ड हैल्थ असेंबली में आर्टीकल ICD-10 में ये साफ कर दिया कि समलैंगिकता कोई मानसिक बीमारी नहीं है।’’ ये बिल्कुल एक सामान्य व्यवहार है और पूरी तरह से आपसी ‘चयन’ का मामला है। यह बात केवल मनुष्य के व्यवहार तक ही सीमित नहीं है। एनीमल किंगडम के शोधकर्ता ब्रूस बैगमिल ने 1999 में अपनी शोध् रिव्यू में प्रकाशित किया है कि जानवरों की लगभग 1500 प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार देखा गया है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कहीं भी इस व्यवहार को अप्राकृतिक नहीं समझा गया है। अब सवाल उठता है क्या धर्मिक पुरातन कसौटियों पर यह ख़रा उतर पाएगा ? यहाँ कठिनाई ज़्यादा है...धर्म, शाब्दिक और अनुभूतिगत व्याख्या का मामला है। विज्ञान प्रमाण का विषय है, तर्क का विषय है। ब्रह्मचारी मठाधीश का तर्क यह है कि यदि दो समलैंगिकों के माता-पिता भी समलैंगिक होते तो वो लोग कहाँ से आते ? प्रतितर्क यह कहता है कि- यदि ब्रह्मचारी मठाधीश के माता-पिता भी उनकी तरह ब्रह्मचारी होते तो वो कहाँ से आते ? यदि समलैंगिकता अप्राकृतिक है.....ब्रह्मचर्य भी प्राकृतिक कैसे हो सकता है ? वीर्य को देह के नश्वर परकोटे में कैद करना ठीक ऐसे है जैसे कोई व्यक्ति यह कसम खा ले कि वह मूत्रत्याग नहीं करेगा और मूत्र को जिस्म में ही रोके रखेगा क्योंकि ऐसा करने से धर्मिकता आती है...धर्म की प्राप्ति होती है। जैसे कोई यह पाषाण-सौगन्ध् उठा ले कि वह भूख लगने पर भोजन नहीं करेगा.......जैसे कोई व्यक्ति यह लौह-शपथ ले ले कि दुःख होने पर भी वह अपने आँसुओं को अपनी आँखों में ही रोके रखेगा उन्हें बाहर नहीं आने देगा। क्योंकि आँसू आँखों में रोकने से धर्म प्राप्त होता है। हो सकता है कल कोई नई धर्मिकता आकर यह कह दे कि मल-त्याग करना गलत बात है, इसे देह में रोकने से धर्म की प्राप्ति होती है तो हो सकता है ये उसे भी सहमति दे दें। ये धर्मिता नहीं हठधर्मिता है। दोनों में भारी फर्क है। अर्थात, प्रकृति बेवकूफ है जिसने आपकी देह में वीर्य जैसा फालतू द्रव्य उत्पन्न कर दिया, और आप महा बुद्धिमान हैं, जो उसकी व्यर्थता को समझकर उसका प्रयोग नहीं कर रहे।
नैतिकता के कागभगोड़े एक और तोतारटंत रोज़ दोहराते हैं। ये पाश्चात्य संस्कृति है, ये पश्चिमी सभ्यता का व्यवहार है, ये हमारी परम्परा नहीं है। पश्चिम ने सत्यानाश कर दिया......पश्चिम की संस्कृति हम क्यों अपनाएँ ? ऐसे लक्ष्मी-वाहन जिस पश्चिम को दूषित पानी पी-पीकर कोसते हैं.....जिस पाश्चात्य संस्कृति को अछूत मानते हैं उसने जीना सिखा दिया। आप पश्चिम के ईजाद किए गए मोबाईल फोन को अपने काठ-कमण्डल में रखकर घूमते हैं। आप पश्चिम में निर्मित की गई मोटर गाड़ियों में सफर करते हैं। आप पश्चिम में बनाई गई रेल में मधुमक्खियों के छत्ते की तरह भरे रहते हैं। आप पश्चिम में अविष्कृत टी॰ वी॰ पर तमाम तरह की दिलचस्प क्रीड़ाएँ चटखारे ले-लेकर देखते हैं। आप पश्चिम में बनाएँ गए वायुयानों में यात्रा करते हैं....आप पश्चिम में ईजाद किए गए लाउडस्पीकर और आडियो प्लेयर्स को रात-दिन अपने मन्दिरों-मस्जि़दों में प्रयोग करते हैं। आप पश्चिम में ईजाद किए गए मैटलडिटेक्टर्स को अपने धर्म स्थलों के द्वार पर रखते हैं ताकि आप उनके अंदर सुरक्षित उपासना कर सकें। आपकी आँखों पर चढ़ा नज़र का चश्मा उसी निन्दित और तथाकथित अनैतिक पश्चिम की देन है। विश्व एक गाँव बन चुका है। अब खाली इन गलगपोड़ों से काम नहीं चलेगा कि हमारे पास पुष्पक विमान था...हमारी पास आकाशवाणी थी....हमारे पास ब्रह्मास्त्रा था.......हमारे पास दिव्य-दृष्टि थी......................ये ‘‘थी’’ का खटराग बहुत हो चुका। ‘‘अब क्या है’’ ये कहने वाली बात है। अपनी हार को पुरखों की विजय से ढँकने का प्रयास कायरता है। मुझे किसी बुज़ुर्ग शायर की पंक्तियाँ स्मरण होती हैं-
वो अपनी मुफलिसी जब भी छिपाने लगता है।
तो बाप-दादा के किस्से सुनाने लगता है।।
जब भी दो सभ्यताएँ परस्पर सम्पर्क में आती हैं...वो एक-दूसरे से अप्रभावित नहीं रह सकतीं। आप वहाँ चुनाव नहीं कर सकते कि हम ये-ये अपनाएँगे और ये-ये चीज़ नहीं अपनाएँगे। आप ये नहीं कह सकते कि हम केवल तकनीक स्वीकृत करेंगे......उनकी परम्पराएँ नहीं...हम केवल उनसे टैक्नोलाजी प्राप्त करेंगे उनकी मान्यताएँ और सांस्कृतिक मूल्य नहीं। आपको बहुत सारी चीज़ चाहे-अनचाहे स्वीकार करनी ही होती हैं। आप यदि मुगल सभ्यता के सम्पर्क में आए तो आपकी भाषा ने हज़ारों रोज़मर्रा के उर्दू-अरबी के शब्द पीकर पचा लिए। आपको ख़ुद भी नहीं पता कि दिन भर में उर्दू और प़फारसी के कितने आम शब्द आप प्रयोग करते हैं। चाहे वो शिकायत हो या सुहागरात, मकान हो या मुहब्बत, क़लम हो या काग़ज़. ज़िंदगी हो या ज़मीन, दवा हो या दुल्हन। आप इस तरह से उस संस्कृति से विदेह नही रह सकते। बायबिल में लिखा है कि ईश्वर ने छः दिन तक दुनिया बनाई और सातवें दिन आराम किया। यह पवित्र दिन माना गया.......यानी ‘होली-डे’। इस दिन कोई काम नहीं होगा क्योंकि जब ईश्वर ने भी इस दिन आराम किया, तो उसका बनाया आदमी कैसे काम करेगा ? आज सारा विश्व ‘सण्डे’ की छुट्टी मना रहा है। आप उसे भी मना कर दीजिए कि ये तो ईसाई संस्कृति है हम सण्डे का अवकाश नहीं रखेंगे। आप अंग्रेजों के सम्पर्क में आए...तो उन्होंने आपको पेंट-शर्ट पहनना सिखा दिया। आपका पहनावा तो धोती-कुर्ता था। उसे भी मना कर दीजिए कि ये पाश्चात्य परम्परा है हम इसे नहीं पहनेंगे। लेबोरेटरीज़ में.....कारपोरेट मीटिंग्स में......कंस्ट्रक्शन साइट्स पर.....विदेश-यात्रा में....जाइए हर स्थान पर धोती-कुर्ता पहनकर...केवल हठधर्मिता के कनकव्वे उड़ाने से काम नहीं चलेगा। वर्तमान की तथ्यसंगतता को भी आपको देखना ही होगा। विवाहित जीवन जीने वाले ज़्यादातर लोग इस सच्चाई को स्वीकृत करें या न करें मगर उनका अंतःकरण जानता है कि कभी न कभी वो अपने शयनकक्ष में इस अप्राकृतिक कहे जाने वाले तरीके को आजमाने का प्रयास करते हैं। विपरीतलिंगी विवाहित जोड़े भी बड़ी संख्या में, परिवर्तन के तौर पर, या किसी दूसरे कारण से कभी न कभी धरा 377 के अन्र्तगत अपराधी हो जाते हैं। ये दीगर बात है कि अंधेरे कमरों से ये सच बाहर नहीं निकलता। मगर वो ख़ुद तो सच से वाकिफ़ होंगे ही.......स्वीकार करें या न करें ये बड़ी बात नहीं है।
नैतिकता के अलम्बरदार, एक और तर्क को अपनी कंठनलिका के आखिरी छोर से शक्ति एकत्र कर चिल्ला रहे हैं। समलैंगिकता यदि अपनी पंसद का विषय है तो पिफर कल कोई कहने लगेगा कि मुझे तो कुत्ते-बिल्लियों के साथ सम्बन्ध् स्थापित करने हैं। मुझे तो पशु-पक्षियों के साथ समागम करना है। तब क्या उन्हें भी इस बात की अनुमति दे दी जाए कि वो पशु-समागम करें ? मगर मेरी समझ में ये केवल बोलने की जल्दबाजी और उतावलेपन से निकला वक्तव्य है। क़ानून की धारा में लिखा एक शब्द सारा अर्थ परिवर्तित कर सकता है। वहाँ साफ लिखा है Consenting Adult कन्सेंटिंग अडल्ट ऐसा बालिग व्यक्ति जो सहमति दे रहा है। पशु को भारतीय संविधन ने बालिग या नाबालिग की श्रेणी में नहीं रखा है। दूसरी बात पशु सहमति नही दे सकता। आप उसे आग के गोले से कूदना, बाल उठाकर लाना तो सिखा देंगे लेकिन ये नहीं कह सकते कि ये काम वो सहमति से कर रहा है। दूसरी बात यदि वो पशु-क्रूरता के अन्तर्गत आ गया तो आप जेल भी जाएँगे। किसी काम को सीखकर करना और किसी काम के लिए सहमति देना अलग बात हैं। पशु की सहमति के लिए भारतीय विधान में अभी तक तो कोई धारा-उपधारा नहीं है। जब हो जाए तब ये मामला उठाया जाए तो ठीक रहेगा। रही बात ये कि ये विवाह कितने दिन चल पाएँगे ? आप अदालतों में जाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि विपरीतलिंगियों ने जो विवाह अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर किए, उनकी तलाक़ की अर्ज़ियों से कोर्ट भरे हुए हैं। भारतीय तलाक़ की सर्वे रिर्पोटर्स बताती हैं कि केवल दिल्ली में ही वर्ष 2006 के मुकाबले 2008 में तलाक की दर दो गुनी हो गई है। पंजाब और हरियाणा में पिछले एक दशक में तलाक दर 150% बढ़ गई है। भारत के सर्वाधिक शिक्षित राज्य केरल में तलाक की दर पिछले एक दशक में 350% बढ़ गई है। आप किन्हीं भी दो व्यक्तियों को उनकी सहमति के खिलाफ साथ रहने को विवश नहीं कर सकते बेशक वो समलिंगी हों या विपरीतलिंगी। जब विपरीतलिंगी तलाक ले सकते हैं तो केवल समलैंगिकों के तलाक पर ही आदिवासी नृत्य करके हो-हल्ला क्यों ? ज़रूरत चिन्ता की नहीं चिन्तन की है। आवश्यकता बौद्धिक-सोच की है, बौद्धिक-शौच की नहीं। उनके साथ परग्रहवासी जैसा व्यवहार करने की नहीं वरन् समझने की बात है। बाकी काम न्यायालय का है....देर-सबेर फैसला आ जाएगा.....वो पक्ष में हो या विपक्ष में सभी को स्वीकृति देनी ही होगी।
-कुमार पंकज
कल शूद्र का मन्दिर में प्रवेश अपराध् था...........अनैतिक था। शूद्र देवालय में घुसा कि धर्म की चूलें हिलीं। उसको सिरहाना देना...उसको बराबरी का हक देना....उसे राजा बनाना....ये तो कल्पनातीत था। अगर ऐसा हो तो मानो बस प्रलय दो-चार कदम ही दूर है। मगर परिवर्तन की एक मामूली सी करवट। वो आज सम्मान के साथ मन्दिरों में खड़े हंै....वो आज बराबर में बैठे हैं....वो राजा हैं। सम्राट बन चुके हैं...मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री. राष्ट्रपतिहैं....हैं। पीटते रहिए छाती...करते रहिए पुरातन नियमों की लाश पर स्यापा। मगर आप बदलाव को नहीं रोक सकते। वो भी समय था कि शूद्र के कानों में यदि वेद-वाक्य पड़ जाए तो उसके कानों में पिघला हुआ शीशा भर देना चाहिए। अब कोशिश करके देख लीजिए......सारा धर्म और उसकी ठेकेदारी नाक के राह बाहर आ जाएगी। पाप की परिभाषा, अपराध् की परिभाषा हर युग में परिवतर्तित होती है। कल तक आप बाल-विवाह को अपराध् नहीं मानते थे। आज आपको बाल-विवाह की अपराध्-श्रेणी स्वीकृत करनी पड़ी। कोई भी मुल्क के क़ानून और संविधन से ऊपर नहीं है। ये अलग बात है कि आप नदिया भर खारे आँसुओं के साथ उसे मंज़ूर करें या फिर प्रसन्नचित्त होकर....... क्रोध् और आक्रोश का ज्वालामुखी बनकर उसके साथ सहमति दें या फिर शांत समझदारी के साथ। आप गंगा को उसी रास्ते से वापस अब हिमालय नहीं भेज सकते। वो केवल आगे बढ़ सकती है। ज़्यादा से ज़्यादा इतना कर सकते हो कि बाँध् बनाकर उसकी अजस्र धारा को कुछ समय के लिए रोक लो....मगर अधिक कोशिश की तो सब बह जाएँगे। यही बदलाव के साथ है। आप सीखे हुए को अनसीखा नहीं कर सकते। आप जाने हुए को अजाना नहीं कर सकते।
अभी ये सहन करना कठिन है कि दो महिलाएँ या दो पुरुष आपसी सहमति से सम्बन्ध् स्थापित करें। अभी ये अमावस्या सा काला पाप दिखता है....अभी ये परम अनैतिक दिखता है...अभी ये चरम चारित्रिक हनन दृष्टिगत होता है। मगर वक्त की बदलती ज़ाफरानी ख़ुशबूदार हवा के साथ ये परिभाषाएँ बदल जाएँगीं। होमोसेक्सुअलिटी और लैस्बियनिज़्म हमारे समाज के अंधेरे कुएँ की दृष्टिवान सच्चाईयाँ हैं। आज से नहीं सदियों से......शायद मानव सभ्यता के साथ से ये भी हैं और यह केवल भारतीय समाज या किसी धर्म विशेष की बात नहीं है। हर धर्म , हर सभ्यता और प्रत्येक मुल्क के नागरिकों के बीच का रेतीला सच है । दुनिया के ज़्यादातर धर्मों और देशों में होमो और लैस्बियन होते रहे हैं। मनुस्मृति में लैस्बियन सम्बन्धें के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई है। ये दण्ड कहाँ से आया.......? यदि समाज में ये अपराध् ही नहीं था, तो दण्ड भी नहीं होना चाहिए था। ये सज़ा वहाँ थी, जो बताती है कि उस वक्त के समाज में ये प्रकृति विद्यमान थी.....ऐसे लोग उपस्थित थे...बेशक वो दण्डनीय ही थे, मगर वो थे। दण्ड-विधान कहता है कि-
कन्यैव कन्यां या कुर्यात्तस्याः स्याद्दिृशतो दमः।
शुल्कं च द्विगुणं दद्याच्छिपफा श्चैवाप्नुश्याद्दश।।
या तु कन्यां प्रकुर्यात्स्त्राी सा सद्यो मौण्डड्ढमर्हति।
अंगुल्योरेव वा छेदं खरेणोद्वहनं तथा।।
-अष्टम अध्याय, मनुस्मृति
उपरोक्त श्लोक का हिन्दी अनुववाद बहुत अश्लील हो जाएगा ऐसा मेरे मित्रों का कहना है। इसलिए बिना हिन्दी अनुवाद के लिख रहा हूँ, ये वही विख्यात दण्ड-विधान हैं, जो शूद्र को धर्मस्थल में प्रवेश पर बेरहम दण्ड की व्यवस्था देते हैं....जो विधवा के विवाह पर कंटीली सज़ा का प्रावधान करते हैं, जो सती-प्रथा को प्रोत्साहित करते हैं। इनकी इतनी बातों को आधुनिक समाज और विधान मानवता के विरुद्ध, नागफनिया-अपराध मानकर अस्वीकृत कर चुका है। उन क्रूर दण्डों को मानवाधिकार का उल्लंघन माना जाता है, तो यकीनन समलैंगिकता और लैस्बियनिज़्म पर भी पुनर्विचार की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि मुम्बई और बैंगलोर की ‘गे परेड’ में लाखों की तादाद में सड़कों पर आने वाले लोग अचानक चाँद से उतर आए थे। नहीं....वो हमारे बीच का हिस्सा थे...वो किन्हीं कारणों से सामने नहीं आए थे और जब अवसर आया, तो वो लाखों में एकत्र होकर चैराहों और सड़कों पर आ गए। आपको उनका उल्लेख हर युग में मिलता है- वो चाहे कोई भी कालखण्ड और युग क्यों न रहा हो-
तथा नागरकाः केचिदन्योन्यस्य हितैषिणः।
कुर्वन्ति रूढवि श्वासाः परस्परपरिग्रहम्।।
-36 -नवम अध्याय कामसूत्र
दुनिया में होमोसेक्सुअलिटी का सबसे पहला प्रमाणिक उल्लेख 2400 ब.सी के आसपास, मिश्र के दो पुरुष-युगल Khnumhotep and Niankhkhnum के बीच प्राप्त होता है। आधुनिक युग में होमोसेक्सुअलिटी का सबसे पहला प्रकाशित उल्लेख 1869 में एक जर्मन पेम्पफलेट में आस्ट्रिया में जन्में उपन्यासकार कार्ल मारिया कर्टबेनी के द्वारा मिलता है। चीन में 600 ब.सी के आसपास होमोसेक्सुअलिटी के लिए कुछ अलग तरह के शब्दों का प्रयोग मिलता है जैसे pleasures of the bitten peach, the cut sleeve, or the southern custom थायलैंड में राजा के प्रेमियों में ‘कैथोय’ और ‘लेडी ब्वाय’Kathoey, or "Ladyboys का ज़िक्र हर जगह पर है। बायबिल में बाकायदा अमोरा और सोडोम नाम के दो शहरों का ज़िक्र है जहाँ के नागरिक पूरी तरह से ऐसे सम्बन्धें में लिप्त थे। बाद में परमेश्वर ने नाराज़ होकर उन दोनों शहरों को ही नष्ट कर दिया-
‘‘उनके सो जाने से पहले सोडोम नगर के पुरुषों ने, जवानों से लेकर बूढ़ों तक, वरन् चारों ओर से सब लोगों ने आकर उस घर को घेर लिया, और लूत को पुकारकर कहने लगे कि जो पुरुष आज रात तेरे घर आए हैं, वे कहां हैं ? उनको हमारे पास बाहर ले आ, कि हम उनसे भोग करें।’’(बायबिल उत्पत्ति- 19/4 व 19/5) चिकित्सा विज्ञान का शब्द 'सॉडमी' जो पुरुष-पुरुष के शारीरिक सम्बन्ध् के रूप में प्रयोग किया जाता है, वो इसी सोडोम नगर से लिया गया है। नारी स्वतंत्राता की हिमायती विश्व प्रसिद्ध लेखिका सीमोन द बोउवार अपनी विश्व विख्यात कृति ‘द सेकण्ड सेक्स’ में लिखती हैं-‘‘जो स्त्री अपने स्त्रीत्व को स्त्री की बाँहों में सौंपकर आनन्द प्राप्त करना चाहती है, उसमें यह गर्व होता है कि वह किसी स्वामी की आज्ञा नहीं मानेगी। ........इन प्रेमियों का प्रेम बड़ा ही मार्मिक, निष्कपट व सच्चा होता है, क्योंकि यह प्रेम-बन्ध्न किसी संस्था, रीति-रिवाज या परम्परा द्वारा नहीं बाँध जाता।’’ --सीमोन द बोउवार (द सेकेण्ड सेक्स)
मठाधीशों का तर्क है कि समलैंगिकता एक बीमारी है और आयुर्वेद में इसका इलाज़ मौज़ूद है। इस बात से और कुछ साबित होता हो या न होता हो मगर एक बात ज़रूर साबित हो जाती है कि हिन्दुस्तान में समलैंगिकता का वज़ूद वैदिक काल से है। क्योंकि आयुर्वेद भी चारों वेदों का ही एक भाग माना जाता है। यह भी वेद का एक उपांग ही है। अगर आयुर्वेद में इसका ज़िक्र उन्होंने कहीं पढ़ा है, तो ये पक्का है कि ये स्वभाव सनातनकाल से भारत में उपस्थित रहा है। ये बीमारी है या नहीं इसे साबित करने के लिए, भावुक-हृदय धर्म-शास्त्री की आवश्यकता नहीं है वरन् प्रमाणिक विशेषज्ञ की ज़रूरत है। कोई लक्षण बीमारी हैं या नहीं इसे मान्यता देने के लिए विशेष चिकित्सीय मापदण्डों और शोधसिद्ध तथ्यसंगत कसौटियों की आवश्यकता होती है। ऐसा नहीं है कि आप किसी भी बात को खड़ा होकर कह देंगे की ये ‘बीमारी’ है और वो बीमारी मान ली जाएगी। दुनिया के जाने माने मनोवैज्ञानिक हैवलाक एलिस ने 1896 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘सेक्सुअल इनवर्जन’ में उन सभी बेहूदा मान्यताओं को चुनौती दी, जो ये कहती थीं कि समलैंगिकता एक असामान्य, अप्राकृति व्यवहार है। आस्ट्रेलियन सायक्लोजिकल सोसायटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि- ‘‘समलैंगिक व्यवहार कोई मानसिक बीमारी नहीं है, ऐसा कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है जिसके लिए किसी ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ को ‘हैट्रोसेक्सुअल’ में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाए। ‘‘दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्था ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने 17 मई 1990 को 43 वीं वर्ल्ड हैल्थ असेंबली में आर्टीकल ICD-10 में ये साफ कर दिया कि समलैंगिकता कोई मानसिक बीमारी नहीं है।’’ ये बिल्कुल एक सामान्य व्यवहार है और पूरी तरह से आपसी ‘चयन’ का मामला है। यह बात केवल मनुष्य के व्यवहार तक ही सीमित नहीं है। एनीमल किंगडम के शोधकर्ता ब्रूस बैगमिल ने 1999 में अपनी शोध् रिव्यू में प्रकाशित किया है कि जानवरों की लगभग 1500 प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार देखा गया है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कहीं भी इस व्यवहार को अप्राकृतिक नहीं समझा गया है। अब सवाल उठता है क्या धर्मिक पुरातन कसौटियों पर यह ख़रा उतर पाएगा ? यहाँ कठिनाई ज़्यादा है...धर्म, शाब्दिक और अनुभूतिगत व्याख्या का मामला है। विज्ञान प्रमाण का विषय है, तर्क का विषय है। ब्रह्मचारी मठाधीश का तर्क यह है कि यदि दो समलैंगिकों के माता-पिता भी समलैंगिक होते तो वो लोग कहाँ से आते ? प्रतितर्क यह कहता है कि- यदि ब्रह्मचारी मठाधीश के माता-पिता भी उनकी तरह ब्रह्मचारी होते तो वो कहाँ से आते ? यदि समलैंगिकता अप्राकृतिक है.....ब्रह्मचर्य भी प्राकृतिक कैसे हो सकता है ? वीर्य को देह के नश्वर परकोटे में कैद करना ठीक ऐसे है जैसे कोई व्यक्ति यह कसम खा ले कि वह मूत्रत्याग नहीं करेगा और मूत्र को जिस्म में ही रोके रखेगा क्योंकि ऐसा करने से धर्मिकता आती है...धर्म की प्राप्ति होती है। जैसे कोई यह पाषाण-सौगन्ध् उठा ले कि वह भूख लगने पर भोजन नहीं करेगा.......जैसे कोई व्यक्ति यह लौह-शपथ ले ले कि दुःख होने पर भी वह अपने आँसुओं को अपनी आँखों में ही रोके रखेगा उन्हें बाहर नहीं आने देगा। क्योंकि आँसू आँखों में रोकने से धर्म प्राप्त होता है। हो सकता है कल कोई नई धर्मिकता आकर यह कह दे कि मल-त्याग करना गलत बात है, इसे देह में रोकने से धर्म की प्राप्ति होती है तो हो सकता है ये उसे भी सहमति दे दें। ये धर्मिता नहीं हठधर्मिता है। दोनों में भारी फर्क है। अर्थात, प्रकृति बेवकूफ है जिसने आपकी देह में वीर्य जैसा फालतू द्रव्य उत्पन्न कर दिया, और आप महा बुद्धिमान हैं, जो उसकी व्यर्थता को समझकर उसका प्रयोग नहीं कर रहे।
नैतिकता के कागभगोड़े एक और तोतारटंत रोज़ दोहराते हैं। ये पाश्चात्य संस्कृति है, ये पश्चिमी सभ्यता का व्यवहार है, ये हमारी परम्परा नहीं है। पश्चिम ने सत्यानाश कर दिया......पश्चिम की संस्कृति हम क्यों अपनाएँ ? ऐसे लक्ष्मी-वाहन जिस पश्चिम को दूषित पानी पी-पीकर कोसते हैं.....जिस पाश्चात्य संस्कृति को अछूत मानते हैं उसने जीना सिखा दिया। आप पश्चिम के ईजाद किए गए मोबाईल फोन को अपने काठ-कमण्डल में रखकर घूमते हैं। आप पश्चिम में निर्मित की गई मोटर गाड़ियों में सफर करते हैं। आप पश्चिम में बनाई गई रेल में मधुमक्खियों के छत्ते की तरह भरे रहते हैं। आप पश्चिम में अविष्कृत टी॰ वी॰ पर तमाम तरह की दिलचस्प क्रीड़ाएँ चटखारे ले-लेकर देखते हैं। आप पश्चिम में बनाएँ गए वायुयानों में यात्रा करते हैं....आप पश्चिम में ईजाद किए गए लाउडस्पीकर और आडियो प्लेयर्स को रात-दिन अपने मन्दिरों-मस्जि़दों में प्रयोग करते हैं। आप पश्चिम में ईजाद किए गए मैटलडिटेक्टर्स को अपने धर्म स्थलों के द्वार पर रखते हैं ताकि आप उनके अंदर सुरक्षित उपासना कर सकें। आपकी आँखों पर चढ़ा नज़र का चश्मा उसी निन्दित और तथाकथित अनैतिक पश्चिम की देन है। विश्व एक गाँव बन चुका है। अब खाली इन गलगपोड़ों से काम नहीं चलेगा कि हमारे पास पुष्पक विमान था...हमारी पास आकाशवाणी थी....हमारे पास ब्रह्मास्त्रा था.......हमारे पास दिव्य-दृष्टि थी......................ये ‘‘थी’’ का खटराग बहुत हो चुका। ‘‘अब क्या है’’ ये कहने वाली बात है। अपनी हार को पुरखों की विजय से ढँकने का प्रयास कायरता है। मुझे किसी बुज़ुर्ग शायर की पंक्तियाँ स्मरण होती हैं-
वो अपनी मुफलिसी जब भी छिपाने लगता है।
तो बाप-दादा के किस्से सुनाने लगता है।।
जब भी दो सभ्यताएँ परस्पर सम्पर्क में आती हैं...वो एक-दूसरे से अप्रभावित नहीं रह सकतीं। आप वहाँ चुनाव नहीं कर सकते कि हम ये-ये अपनाएँगे और ये-ये चीज़ नहीं अपनाएँगे। आप ये नहीं कह सकते कि हम केवल तकनीक स्वीकृत करेंगे......उनकी परम्पराएँ नहीं...हम केवल उनसे टैक्नोलाजी प्राप्त करेंगे उनकी मान्यताएँ और सांस्कृतिक मूल्य नहीं। आपको बहुत सारी चीज़ चाहे-अनचाहे स्वीकार करनी ही होती हैं। आप यदि मुगल सभ्यता के सम्पर्क में आए तो आपकी भाषा ने हज़ारों रोज़मर्रा के उर्दू-अरबी के शब्द पीकर पचा लिए। आपको ख़ुद भी नहीं पता कि दिन भर में उर्दू और प़फारसी के कितने आम शब्द आप प्रयोग करते हैं। चाहे वो शिकायत हो या सुहागरात, मकान हो या मुहब्बत, क़लम हो या काग़ज़. ज़िंदगी हो या ज़मीन, दवा हो या दुल्हन। आप इस तरह से उस संस्कृति से विदेह नही रह सकते। बायबिल में लिखा है कि ईश्वर ने छः दिन तक दुनिया बनाई और सातवें दिन आराम किया। यह पवित्र दिन माना गया.......यानी ‘होली-डे’। इस दिन कोई काम नहीं होगा क्योंकि जब ईश्वर ने भी इस दिन आराम किया, तो उसका बनाया आदमी कैसे काम करेगा ? आज सारा विश्व ‘सण्डे’ की छुट्टी मना रहा है। आप उसे भी मना कर दीजिए कि ये तो ईसाई संस्कृति है हम सण्डे का अवकाश नहीं रखेंगे। आप अंग्रेजों के सम्पर्क में आए...तो उन्होंने आपको पेंट-शर्ट पहनना सिखा दिया। आपका पहनावा तो धोती-कुर्ता था। उसे भी मना कर दीजिए कि ये पाश्चात्य परम्परा है हम इसे नहीं पहनेंगे। लेबोरेटरीज़ में.....कारपोरेट मीटिंग्स में......कंस्ट्रक्शन साइट्स पर.....विदेश-यात्रा में....जाइए हर स्थान पर धोती-कुर्ता पहनकर...केवल हठधर्मिता के कनकव्वे उड़ाने से काम नहीं चलेगा। वर्तमान की तथ्यसंगतता को भी आपको देखना ही होगा। विवाहित जीवन जीने वाले ज़्यादातर लोग इस सच्चाई को स्वीकृत करें या न करें मगर उनका अंतःकरण जानता है कि कभी न कभी वो अपने शयनकक्ष में इस अप्राकृतिक कहे जाने वाले तरीके को आजमाने का प्रयास करते हैं। विपरीतलिंगी विवाहित जोड़े भी बड़ी संख्या में, परिवर्तन के तौर पर, या किसी दूसरे कारण से कभी न कभी धरा 377 के अन्र्तगत अपराधी हो जाते हैं। ये दीगर बात है कि अंधेरे कमरों से ये सच बाहर नहीं निकलता। मगर वो ख़ुद तो सच से वाकिफ़ होंगे ही.......स्वीकार करें या न करें ये बड़ी बात नहीं है।
नैतिकता के अलम्बरदार, एक और तर्क को अपनी कंठनलिका के आखिरी छोर से शक्ति एकत्र कर चिल्ला रहे हैं। समलैंगिकता यदि अपनी पंसद का विषय है तो पिफर कल कोई कहने लगेगा कि मुझे तो कुत्ते-बिल्लियों के साथ सम्बन्ध् स्थापित करने हैं। मुझे तो पशु-पक्षियों के साथ समागम करना है। तब क्या उन्हें भी इस बात की अनुमति दे दी जाए कि वो पशु-समागम करें ? मगर मेरी समझ में ये केवल बोलने की जल्दबाजी और उतावलेपन से निकला वक्तव्य है। क़ानून की धारा में लिखा एक शब्द सारा अर्थ परिवर्तित कर सकता है। वहाँ साफ लिखा है Consenting Adult कन्सेंटिंग अडल्ट ऐसा बालिग व्यक्ति जो सहमति दे रहा है। पशु को भारतीय संविधन ने बालिग या नाबालिग की श्रेणी में नहीं रखा है। दूसरी बात पशु सहमति नही दे सकता। आप उसे आग के गोले से कूदना, बाल उठाकर लाना तो सिखा देंगे लेकिन ये नहीं कह सकते कि ये काम वो सहमति से कर रहा है। दूसरी बात यदि वो पशु-क्रूरता के अन्तर्गत आ गया तो आप जेल भी जाएँगे। किसी काम को सीखकर करना और किसी काम के लिए सहमति देना अलग बात हैं। पशु की सहमति के लिए भारतीय विधान में अभी तक तो कोई धारा-उपधारा नहीं है। जब हो जाए तब ये मामला उठाया जाए तो ठीक रहेगा। रही बात ये कि ये विवाह कितने दिन चल पाएँगे ? आप अदालतों में जाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि विपरीतलिंगियों ने जो विवाह अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर किए, उनकी तलाक़ की अर्ज़ियों से कोर्ट भरे हुए हैं। भारतीय तलाक़ की सर्वे रिर्पोटर्स बताती हैं कि केवल दिल्ली में ही वर्ष 2006 के मुकाबले 2008 में तलाक की दर दो गुनी हो गई है। पंजाब और हरियाणा में पिछले एक दशक में तलाक दर 150% बढ़ गई है। भारत के सर्वाधिक शिक्षित राज्य केरल में तलाक की दर पिछले एक दशक में 350% बढ़ गई है। आप किन्हीं भी दो व्यक्तियों को उनकी सहमति के खिलाफ साथ रहने को विवश नहीं कर सकते बेशक वो समलिंगी हों या विपरीतलिंगी। जब विपरीतलिंगी तलाक ले सकते हैं तो केवल समलैंगिकों के तलाक पर ही आदिवासी नृत्य करके हो-हल्ला क्यों ? ज़रूरत चिन्ता की नहीं चिन्तन की है। आवश्यकता बौद्धिक-सोच की है, बौद्धिक-शौच की नहीं। उनके साथ परग्रहवासी जैसा व्यवहार करने की नहीं वरन् समझने की बात है। बाकी काम न्यायालय का है....देर-सबेर फैसला आ जाएगा.....वो पक्ष में हो या विपक्ष में सभी को स्वीकृति देनी ही होगी।
-कुमार पंकज
Google Translate for Business:Translator ToolkitWebsite TranslatorGlobal Market Finder
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें