शनिवार, 10 मार्च 2012

लिंग भेद के भाषायी संस्कार


 

       मुझे याद है कि जब मैं प्राईमरी स्कूल में पढता था तो मेरी हिन्दी की किताब में पहला पाठ हुआ एक कविता का हुआ करता था उठो लाल अब ऑंखें खोलो पानी लायी  हूँ  मुह धो लो। सोते हुये बच्चे का एक चित्र छपा रहता था जिसे मॉं लोरी गाकर उठा रही होती थी कि बेटा उठ जा सुबह हो गयी है सूरज निकल आया है मैं तेरे लिये पानी लेकर आयीहूँ  अपना मुँह धो ले। दूसरा पाठ है जिसमें एक छोटी बच्ची खेलती हुई दर्शायी गयी है और मॉं उससे कह रही है विमला उठ गगरी ला पानी भर। ये दो चित्र बचपन से ही मेरे मन मस्तिष्क में अकिंत हैं और बराबर मुझे मथते रहते हैं कि मॉं अपने बेटे को कितने मनुहार से पालती है और बेटी के प्रति कैसा शुष्क व्यवहार करती है। बेटा लाट सहाब हैजो सूरज चड जाने पर भी सोया पडा है। उसे मुँह धुलाने के लिये  मॉं बिस्तर पर ही पानी लेक आ गयी है। वो समय से उठकर अपने मुँह हाथ भी नहीं धो सकता।दूसरी एक छोटी सी बच्ची है जो ऑंगन में गोरैया सी फुदक फुदक  कर खेल कर घर भर में खुशियॉं बिखेर रही है मॉं उसे खुशी से खेजने भी नही दे रही । वो उससे कहती है उठ जा पानी भर ले। अभी से उसेकाम और जिम्मेदारियों के बोझ से दबाया जा रहा है और बेटा जो सोया पडा है जो देर तक सोकर मनहूयित पैदा कर रहा है मॉं उसे प्यार से दुलार रही है उसकी मनुहार कर रही है राजा बेटा उठ जा।
  बडा हुआ तो बडी किताबे पढी। नारी जाति के साथ भेदभाव ही भेदभाव नजर आया। रोटी बना रही है औरत चक्की चला रही है खाना खा रहा है पुरूष औरत धान रोप रही है औरत फसल काट रही है बॅंटवारा कर रहा है आदमी खरीद बेच रहा है आदमी औरत नर्स बनकर बीमार की सेवा कर रही है डॉक्टर और बीमार है आदमी, गारा ईटे ढो रही है औरत मालिक, ठेकदार, इन्जीनियर है पुरूष इज्जत लुट रही है औरत की आदमी की पता नहीं क्यों नहीं लुटती क्या उसके पास नहीं होती  लूट रहा है पुरूष है बलात्कारी,सिपाही,न्यायाधीश।ये आम तस्वीर है जो हमारी पाठय पुस्तकों साहित्य में है।पहली कक्षा में ही जब औ से औरत पढाया जाता था जो तस्वीर में बिन्दी साडी वाली औरत दिखायी जाती थी। बाद में पता नहीं क्या सुधार हुआ हुआ तलवार वाली औरत की तस्वीर छापी जाने लगी। सोचा होगा महिला  महिला सशक्तिकरण का जमाना है रानी लक्ष्मीबाई जैसी तस्वीर ठीक रहेगी सो वो लगा दी गयी। भले आदमियों डॉक्टर या शिक्षक महिला की तस्वीर छापते तलवारवाली महिला की छवि जो देर सवेर उमा भारती  और प्रज्ञा ठाकुर से भी जुड सकती है। सुधार तो चाहिये पर ऐसा भी नहीं। अच्छा मैं अगर भाषा शास्त्री होता तो और भी कई बारीक भेद उजागर करता लेकिन मैं इतना योग्य नहीं हूँ  इसलिये बहुत अच्छे ढंग से इस विषय को नहीं रख सकूगा लेकिन जो भेदभाव चुभता है उसे लेकर प्रश्न तो पूछ ही सकता हूँ । मुहावरों पर बात करें। मुहावरा है हाथों में चूडी पहनना, औरतों की तरह ऑंसू बहाना, औरतों जैसा नाजुक बदन। चूडी पहनना या चूडी भेंट करना लज्जा का परिचायक है। चूडी पहनने में लज्जित होने की कौन सी बात है। औरत का सुहाग उजडना आदमी का नहीं उजडता। उसके घर बसने में देर ही क्या लगेगी।
        कवियों ने और भी कमाल कर दिया है।  कवि कहता है 'अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, ऑंचल में दूध और ऑंखों में पानी।] दिखा दी सहानुभूति और हो गया नारी का  सम्मान। आगे क्या हो कुछ जबाब नही है। इससे तो अच्छा उर्दू शायर मजाज है जो कहता है 'तेरे माथे पे जो ऑंचल बहुत ही खूब है लेकिन तू इस ऑंचल से एक परचम बना लेती जो अच्छा था।' यानि कि बुरा तेरा बनना सॅंवरना भी नहीं है ना मातृत्व बुरा है लेकिन अगर वह नेतृत्व भी संभाल ले बहुत अच्छी बात होगी। आखिर ऑंखों के पानी या सीने के दूध में लज्जित होने की क्या बात है ?वो भी गर्व की चीज है। मातृत्व और भावुकता पुरूषत्व पर भारी हैं क्योंकि ये नारी के पास अतिरिक्त हैं जो कुछ पुरूष के पास ह वो तो है ही ये अलग से हैं। अब जो चीज ज्यादा है उस पर गर्व होना चाहिये।
     भाषा में पोरूष या मर्दानगी का अर्थ है वीरता। खूब लडी मर्दानी वह तो झॉंसी वाली रानी थी सुभद्रा कुमारी चौहान जब ये लिखती हैं तो रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का वर्णन कर रही होती हैं। रानी ने मर्दो वाला काम किया युद्ध लडा इसालिये वो मर्दानी है। पहले तो यही समझ में नहीं आता कि युद्ध लडना वीरता का काम कैसे है? अगर है तो फिर मर्द ही तो युद्ध नहीं लडते वह मर्दानगी का काम क्यों है? आगे सुभद्रकुमारी चौहान लिखती हैं दुर्गा थी या काली थी वह स्वयं वीरता की अवतार देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार। जब दुर्गा और काली का मुकाबला करने वाला कोई मर्द नहीं हुआ तो फिर रणकौशल मर्दानगी क्यों कहा जाये? भाषा में तमाम भाव जो बलसूचक, त्रृद्धिसिद्धी सूचक हैं वे पुरूष वाचक है और जो कोमलता, हीनता के घेतक हैं वो स्त्रीवाचक हैं। निश्चय ये हमारे सामाजिक परिवेश की देन है जो भाषा में भावाभिव्यक्ति का ये रूप मिलता है। इस पर मेरा अध्ययन मनन जारी है लेकिन आजीविका की विवशता के कारण व्यवस्थित  और सतत रूप् में नहीं हो पा रहा है। यह विषय इसलिये उठा लिया है कि शायद कुछ काबिल लोगों की इधर नजर पड जाये और कुछ बेहतर काम हो सके।
جنس بھید کے لسانی رسومات

       
مجھے یاد ہے کہ جب میں پرايمري اسکول میں پڈھتا تھا تو میری ہندی کی کتاب میں پہلا متن ہوا ایک نظم کا ہوا کرتا تھا اٹھو لال اب آنکھیں کھولو پانی لائی ہوں مہ دھو لو.سوتے ہوئے بچے کا ایک تصویر شائع رہتا تھا جسے م لوٹی گاكر اٹھا رہی ہوتی تھی کہ بیٹا اٹھ جا صبح ہو گئی ہے سورج نکل آیا ہے میں تیرے لئے پانی لے کر اييهو اپنا منہ دھو لے. دوسرا متن ہے جس میں ایک چھوٹی بچی کھیلتی ہوئی درشايي گئی ہے اور م اس سے کہہ رہی ہے وملا اٹھ گگري لا پانی بھر. یہ دو تصاویر بچپن سے ہی میرے دل و دماغ میں اكت ہیں اور برابر مجھے متھتے رہتے ہیں کہ م اپنے بیٹے کو کتنے منهار سے پالتي ہے اور بیٹی کے فی کیسا خشک عمل کرتی ہے. بیٹا لاٹ سهاب هےجو سورج چڈ جانے پر بھی سویا پڑا ہے. اسے منہ دھلانے کے لیے م بستر پر ہی پانی لیک آ گئی ہے.وہ وقت سے اٹھ کر اپنے منہ ہاتھ بھی نہیں دھو سکتا. دوسری ایک چھوٹی سی بچی ہے جو آنگن میں گورےيا سی پھدك پھدك کر کھیل کر گھر بھر میں كھشي بکھیر رہی ہے م اسے خوشی سے كھےجنے بھی نہیں دے رہی. وہ اس سے کہتی ہے اٹھ جا پانی بھر لے.ابھی سے اسےكام اور ذمہ داریوں کے بوجھ سے دبایا جا رہا ہے اور بیٹا جو سویا پڑا ہے جو دیر تک سوکر منهويت پیدا کر رہا ہے م اسے پیار سے دلار رہی ہے اس کی منهار کر رہی ہے راجہ بیٹا اٹھ جا.
  
بڑا ہوا تو بڑی کتابیں پڑھی. خاتون ذات کے ساتھ تفریق ہی تعصب نظر آیا. روٹی بنا رہی ہے عورت چکی چلا رہی ہے کھانا کھا رہا ہے مرد عورت دھان روپ رہی ہے عورت فصل کاٹ رہی ہے بٹوارا کر رہا ہے آدمی خرید فروخت رہا ہے آدمی عورت نرس بن کر بیمار کی خدمت کر رہی ہے ڈاکٹر اور بیمار ہے آدمی، گارا يٹے ڈھو رہی ہے عورت مالک، ٹھےكدار، انجینئر ہے مرد عزت لٹ رہی ہے عورت کی آدمی کی پتہ نہیں کیوں نہیں لٹتي کیا اس کے پاس نہیں ہوتی لوٹ رہا ہے مرد ہے بلاتكاري، سپاہی، جج. یہ عام تصویر ہے جو ہماری پاٹھي کتابوں ادب میں ہے. پہلی کلاس میں ہی جب او سے عورت پڑھایا جاتا تھا جو تصویر میں بندي ساڈی والی عورت دکھائی جاتی تھی. بعد میں پتہ نہیں کیا بہتری آئی ہوا تلوار والی عورت کی تصویر شائع کی جانے لگی. سوچا ہوگا خاتون خواتین با اختیار کا زمانہ ہے رانی لکشمی بائی جیسی تصویر ٹھیک رہے گی سو وہ لگا دی گئی.بھلے آدمیوں ڈاکٹر یا استاد خاتون کی تصویر چھاپتے تلواروالي خاتون کی تصویر جو دیر سویر اوما بھارتی اور پرگیہ ٹھاکر سے بھی جڈ سکتی ہے. بہتر تو چاہیے پر ایسا بھی نہیں. اچھا میں اگر زبان شاستری ہوتا تو اور بھی کئی باریک فرق اجاگر کرتا لیکن میں اتنا قابل نہیں ہوں اس لئے بہت اچھے طریقے سے اس موضوع کو نہیں رکھ سكوگا لیکن جو تفریق چبھتا ہے اسے لے کر سوال تو پوچھ ہی سکتا ہوں. محاوروں پر بات کریں. محاورہ ہے ہاتھوں میں چوڈي پہننا، عورتوں کی طرح آنسو بہانا، عورتوں جیسا نازک بدن. چوڈي پہننا یا چوڈي ملاقات کرنا شرم کا پرچايك ہے. چوڈي پہننے میں شرمندہ ہونے کی کون سی بات ہے. عورت کا سہاگ اجڈنا آدمی کا نہیں اجڈتا. اس کے گھر آباد ہونے میں دیر ہی کیا لگے گی. شاعروں نے اور بھی کمال کر دیا ہے. راشٹ کہتا ہے ابلا زندگی ہائے تمہاری یہی کہانی چل میں دودھ اور آنکھوں میں پانی. دکھا دی ہمدردی اور ہو گیا ناری کا احترام. آگے کیا ہو کچھ جواب نہیں ہے. اس سے تو اچھا اردو شاعر مجاج ہے جو کہتا ہے تیرے ماتھے پہ جو چل بہت ہی خوب ہے لیکن تو اس چل سے ایک پرچم بنا لیتی جو اچھا تھا. یعنی کہ برا تیرا بننا سورنا بھی نہیں ہے نا زچگی برا ہے لیکن اگر وہ قیادت بھی سنبھال لے بہت اچھی بات ہوگی. آخر آنکھوں کے پانی یا سینے کے دودھ میں شرمندہ ہونے کی کیا بات ہے وہ بھی فخر کی چیز ہے. زچگی اور جذباتیت پروشتو پر بھاری ہیں کیونکہ یہ خاتون کے پاس اضافی ہیں جو کچھ مرد کے پاس پآ وہ تو ہے ہی یہ الگ سے ہیں. اب جو چیز زیادہ ہے اس پر فخر ہونا چاہیے. زبان میں پوروش یا مردانگی کا مطلب ہے بہادری. خوب لڈي مردانی وہ تو جھسي والی رانی تھی سبودھرا كماري چوہان جب یہ لکھتی ہیں تو رانی لکشمی بائی کی بہادری کا ذکر کر رہی ہوتی ہیں. رانی نے مردو والا کام کیا جنگ لڈا اساليے وہ مردانی ہے. پہلے تو یہی سمجھ میں نہیں آتا کہ جنگ لڈنا بہادری کا کام کیسے ہے؟ اگر ہے تو پھر مرد ہی تو جنگ نہیں لڈتے وہ مردانگی کا کام کیوں ہے؟ آگے سبھدركماري چوہان لکھتی ہیں درگا تھی یا کالی تھی وہ خود بہادری کی اوتار دیکھ مراٹھے باغ باغ ہوتے اس کی تلوارو کے وار. جب درگا اور کالی کا مقابلہ کرنے والا کوئی مرد نہیں ہوا تو پھر ركوشل مردانگی کیوں کہا جائے؟ زبان میں تمام انداز جو بلسوچك، تررددھسددھي علامت ہیں وہ مرد واچك ہے اور جو كوملتا، هينتا کے گھےتك ہیں وہ ستريواچك ہیں. یقینا یہ ہمارے سماجی ماحول کی دین ہے جو زبان میں بھاوابھويكت کا یہ طور ملتا ہے. اس پر میرا مطالعہ منن جاری ہے لیکن زندگی کی بے بسی کی وجہ سے منظم اور مسلسل روپ میں نہیں ہو پا رہا ہے. یہ موضوع اس لیے اٹھا لیا ہے کہ شاید کچھ کابل لوگوں کی ادھر نظر پڑ جائے اور کچھ بہتر کام ہو سکے. 

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