मंगलवार, 10 जुलाई 2012

बदरा बैरी आ....


बदरा बैरी आ....

सूखे की है मार
कि बदरा बैरी आ
नैनों में पारावार
कि बदरा बैरी आ।

रूठे सपने रूठी धरती
आँखें भी वीरान हुईं
सबके वादे सबकी आशा
रोने का सामान हुईं
प्रीत करे मनुहार
कि बदरा बैरी आ।

मन दुखियारे खेत कुँआरे
बादल-बादल भटकी आस
धुआँ-धुआँ-सा बंजारों-सा
आसमान में खिला कपास
रहन हुए घर-द्वार
कि बदरा बैरी आ।

बिके दरीचे खुली चूड़ियाँ
आँसू भी नीलाम हुए
इतनी टूटी आस कि हम तो
हर तरह नाकाम हुए
यह जनम हुआ बेकार
कि बदरा बैरी आ। 
                                                                    उत्पल बैनर्जी

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