मंगलवार, 21 अगस्त 2012

पुस्तक समीक्षा: सॉंझ सकारे [काव्य संग्रह]

समीक्ष्य पुस्तक: सॉंझ सकारे काव्य संग्रह
लेखक: डॉ0 शिवचरण शर्मा मधुर

प्रकाशक: सुकीर्ति प्रकाशन, करनाल रोड,कैथल हरियाणा
                

     हिन्दी काव्य धारा की दो धारायें हैं . एक है लोकप्रिय कविता जो आज मुख्यत: मंचिय कविता है तथा दूसरी अकादमिक कविता जो मुख्यत: नई कविता के विभिन्न नामों से  जानी पहचानी जाती है। इस धारा के कवि वे हैं जिनका कविता ही ओढना बिछाना है,कमाना, खाना है।ये लोग विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों या पत्र पत्रिकाओं में कार्यरत हैं या विभिन्न शासकीय प्रतिष्ठानों में पदासीन हैं। इनकी रचनायें ही साहित्यिक रचनायें मानी जाती हैं। ये अलग बात है कि इनकी कविता के पाठक, लेखक और समालोचक इन्हीं के वर्ग के होते हैं। इन्होंने अपने अकादमिक अध्ययन मनन से किसी रचना के साहित्यिक या असाहित्यिक होने के नासमझ में आने वाले ऐसे प्रतिमान स्थापित कर लिये हैं जिसकी कसौटी पर जनता को उद्वेलित या आन्दोलित करने वाली  कविता कविता ही नहीं मानी जाती है। ऐसी रचना सतही करार दी जाती हैं । 
       ऐसी सतही कही जानी वाली कविताओं ने जनान्दोलनों और कवि सम्मेलनों में आम आदमी को प्रेरित किया है। आज भले ही काव्य मंचों का स्तर बहुत गिर गया हो और वहॉं चुटकले बाजी,मसखरापन और देश भक्ति के नाम पर साम्प्रदायिक वैमनस्यता फैलाने वाली तुकबन्दी हो रही हो लेकिन अगर कविता केवल विद्यालयों में पढने पढाने या किताबों में छापकर रख दी जाने वाली चीज नहीं है और उसका देशकाल से,  आम आदमी से कोई सम्बन्ध है तो उसे आम जनता तक जाना ही होगा और उसका सर्वोत्तम माध्यम कवि सम्मेलन ही है। शायद इसीलिये हमारे श्रेष्ठ कवियों ने कवि सम्मेलन के मंच का भरपूर इस्तेमाल किया और आज के प्रतिष्ठित कवियों की तरह से उसे उपेक्षित नहीं किया। रामधारी सिंह दिनकर, सोहनलाल द्विवेद्वी, हरिवंशराय बच्चन, बाबा नागार्जुन,काका हाथरसी आदि कई कवि हैं जो मंच के साथ साथ अकादमिक स्तर पर भी प्रतिष्ठित रहे। ऐसे ही कवियों की श्रृखंला में एक नाम डॉ0 शिवचरण शर्मा मधुर का भी है जो विगत पचास वर्षों से साहित्य रचना में कर्मरत हैं।
     डा मधुर ने अनेक पुस्तकों की रचना की है। 'सॉंझ सकारे' उनकी सद्य प्रकाशित काव्य कृति है। जिसमें उन्होंने काव्य की विविध विधाओं में अपने रंग बिखेरे हैं। डॉ0 मधुर धीर गम्भीर व्यक्तित्व के धनी हैं जिसकी झलक उनकी कविताओं में भी यत्र तत्र उपलब्ध है। उनके एक गीत की पक्तियॉं हैं.

 कभी कभी मन के सागर में ऐसी कुछ हलचल मच जाती 
ऐसा  कुछ  मंथन  होता  है, ऐसी  कुछ  लहरें  टकराती 
ऐसा एक ज्वार आता है रत्न  राशि  भी  संग  लाता  है
पलकों के तट पर पल भर में ऑंसू बहुत नजर आते हैं ।

    भावनाओं के समन्दर में जब ज्वार आता है तो पलको के तट पर ऑसू छलक ही आते हैं। ये ऑंसू जब किसी कवि का स्पर्श पाते हैं तो गीत बन जाते हैं और जब किसी कलाकार का स्पर्श पाते हैं तो कलाकृति बन जाते हैं। डॉ0 मधुर कवि हैं उन्होंने कलात्मक शब्दों में अपने मन की पीडा को उकेरा है। एक जगह वे लिखते हैं-

मेरे क्वारे अरमानों की विरह व्यथा से हुई सगाई
और उदासी ने भी आकर मन के ऑंगन धूम मचाई
उम्र सदन के गीत सुनाती, ऑंखें भी मोती बरसाती
जाने ऑंखों में क्या ऐसा पाराबार बन गया ।
     
     ऑंखों में जिस पारावार का उन्होंने सकेंत किया वो हर सवेंदन शाील मन के अन्दर उठता है। लेकिन उसे काव्य के रूप् में डॉ0 मधुर जैसा कवि ही बॉंध पाता है । मूलत प्रेम और सौन्दर्य के कवि डॉ0 मधुर ने जीवन के हर पक्ष को अपनी कविता का विषय बनाया है। उसमें प्रेम और सौन्दर्य के चित्र हैं तो प्रकृति के मनोरम दृश्य भी हैं।दर्शन की गहराई है तो जिन्दगी की तल्ख सच्चाई भी हैं। 
    साहित्य सदियों से अभिजात वर्ग के मनोरंजन की वस्तु रहा है। उसके विषय और नायक भी अभिजात वर्गीय रहे हैं। रूस की जन क्राति और माक्र्सवाद के अभ्युदय ने सारी दुनिया के साहित्यकारों और बुद्विजीवियों को आम आदमी के जीवन को अपने चिन्तन,मनन और लेखन का केन्द्र बनाने के लिये प्रेरित किया। हिन्दी साहित्य में प्रगतिशील लेखक संघ ने ऐसे साहित्य के लेखन को प्रोत्साहित किया जो किसानों,  मजदूरों, स्त्रियों के हक़ में अपनी आवाज बुलंद करे। जन पक्षधरता के इस अभियान ने भाव और भाषा को ऐसे संस्कार दिये जो साहित्य में युगान्तकारी मानदन्ड स्थापित करते थे। प्रगतिवादी कविता से पूर्व साहित्यकारों की भाव भाषा ऐसी थी जैसे पूजा अर्चना की भाषा होती है मधुर, शुद्व तत्सम, अलंकृत जिसके लिखते पढते संगीत सा झरता है। लेकिन प्रगतिशील जनपक्षीय कवियों ने इस सजावट भरे ताम झाम को एक झटके में दूर कर सीधे सीधे अपनी बात कहनी शुरू कर दी और बॉंध के टूटकर बह जाने वाले पानी की तरह अपनी भाषा के प्रवाह के साथ सारे साहित्यिक कूडे कचरे को बहाकर अपने लिये एक ऐसा उपजाउ मैंदान निर्मित किया जिसमें इन्कलाब की फसल लहलहा सके। गैर जनवादी कवियों ने भी इसमें अपने पेड पौधे रोपे। ये अलग बात है कि वक्ती जोश के ठंडा पड जाने पर ऐसे रचनाकार पुन: अपने खोल में सिमट गये।
    डॉ0 मधुर ने भी जनपक्षरता की इसी आवाज में अपने सुर मिलायें हैं। एक जगह वे लोकगीत की शैली में लिखते हैं.

खून पसीना बहा बहा जो लाते हैं
लाते हैं पूजीपति उसको खाते हैं
खाते हैं मजदूर उधारे पैसे पर 
पैसों पर पैसे चढते इन जैसों पर
इन जैसों पर नहीं उतर जब पाते हैं
पाते हैं पूंजीपति जी ले  जाते हैं
ले जाते हैं तवे उठाकर चूल्हों से ।

डा मधुर ने अपनी कविताओं में अनेक छन्दों का प्रयोग किया है। उनके दोहे कबीर की तरह हैं । एक दो बानगी देखिये

मूरत पर चढते रहे, मंहगे मंहगे चीर 
ठिठुर ठिठुर कर मर गया बैठा वहीं फकीर।

रहा अर्थ के फेर में कितने किये अनर्थ
अब तो अर्थी निकट है पछताना भी व्यर्थ ।

   हिन्दी कविता ने उर्दु के भी अनेक छन्दों को अपनाया है जिसमें से गजल प्रमुख है। हिन्दी का मिजाज गजल के अनुकूल नहीं है लेकिन समर्थ कवि अपनी प्रतिभा से इस मिजाज को बदलने में समर्थ हुये हैं। हिन्दी गजल के सम्राट कहे जाने वाले दुष्यन्त ने जब गजले कहीं तो लागों को विश्वास हो गया कि हिन्दी में भी अधिकार पूर्वक गजले कही जा सकती हैं। उनके बाद बहुत सारे कवि गजलकार हुये हैं जिनमें अदम गोंडवी बड़े  लोकप्रिय हुये हैं। डॉ0 मधुर के काव्य संग्रह सॉंझ सकारे में भी अनेक गजलें शामिल हैं जो कहीं कहीं दुष्यन्त की परम्परा को छूती हैं और ये आभास दिलाती हैं कि रचनाकर अच्छी गजलें कहने में समर्थ है और भविष्य मे निश्चय ही वे बेहतरीन गजल लिखेंगें ।
           सॉंझ सकारे काव्य संग्रह कथ्य और शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट है।यह साहित्य के अध्ययनकर्ताओं के लिये एक संग्रहणीय  पुस्तक है।
                                                                              पुस्तक समीक्षा: अमरनाथ 'मधुर'

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