गुरुवार, 23 अगस्त 2012

एक बहस भाषा पर





      • नीर  गौतम - सही  कहा  भैया  माँ  माँ  ही  होती  है .


      • श्रद्धान्शु  शेखर - भाषा  को  विचार  और  भावना सम्प्रेषण  का  माध्यम  ही  समझा  जाये  तो  बेहतर . माँ  कह  कर  अलंकारिक  बनाने  का  प्रयास  में  इसे  जबरदस्ती  आस्था  का  विषय  बना  लेना  ठीक  नही.आस्था  आरोपित  (अधिष्ठान ) कर  के  हम  अपनी  बात  को  नैतिक  सांस्कृतिक  कहलवाने  का  प्रयास  क्यू  करें ?माँ  को  माँ , भाषा  को  भाषा  समझना  ही  उचित  और  सम्यक  दृष्टि  है .


      • छाया  थोरात बिलकुल  सहमत .....



      • मोहन  श्रोत्रिय - संकीर्णताओं की ओर सही इशारा किया है.


      • अनूप अवस्थी - किसने कहा कि गैर की माँ को माँ मानो तो अपनी माँ माँ नहीं रहती है ? बिलकुल सहमत है अमर जी आपसे. अच्छी बाते किसी भी भाषा या बोली में कही जा सकती है ।


      • नरेंद्र कुमार पासीभाषा को सीमाओ मे बांधा नही जा सकता ,,यह बहते नीर के सामान है ,यह अलग बात की नदियों पर बांध बना कर कुछ समय के लिए रोका जा सकता है ,पर बारिश आते ही बांध नाकाम हो जाते है ,वैसे ही कानून या फ़तवा जारी कर ज्यादा समय तक भाषा को फैलने से नही रोका जा सकता ,,यह संकेत करती है हमारी इच्छा शक्ति की ओर ,,भारत मे तो नदियों को भी माँ कहकर बुलाते है ,,धरती को भी माँ कहकर बुलाते है ,,फिर ये तो भाषा है ,अगर इसे भी माँ कह दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी


      • चंदन कुमार मिश्र नरेन्द्र जी! एक ही बात इतनी बार! 


      • अश्विनी  कुमार  वर्मा - भाषा  सम्मान  के  लिए  नहीं ...बल्कि  विचार  को  व्यक्त  करने  के  लिए प्रयोग  की  जाती  है ....अप  10 भाषा  जानते  हों ...मगर  अगर  आपको  रोना  होगा , हँसाना  होगा , या  वो  हर  काम  जिसमे  आप   अपने  आप  को  भावना  के  साथ  व्यक्त  करना  होगा  वो  मात्र   भाषा  अपने  आप  मुंह  पे  आ   जाएगी  ........!!!! तो  जब  पढाई  की   बात  आये तो  अगर  मात्र  भाषा  में  हो  तो  आती  उत्तम !!! दूसरे  मात्र  भाषा  में  किसी  भी  भाषा  की  तुलना  में  6 गुना  कम  समय  लगता  है  बोलने  में ....!

      • श्रद्धान्शु  शेखर - मैं  अपनी  बात  दोहराना  नहीं  चाहता , मगर  अन्य  मित्र  मेरे  कमेन्ट  को  एक  बार  देखे  ज़रूर . धन्यवाद् . 

      • गोविन्द  सिंह  परमारऔर माँ भी माँ होती है जो उसे माँ का दर्जा देता है वो भी उसे बेटे जैसा प्यार करती है , सटीक


      • राज्यश्री त्रिपाठी - पिताजी के बचपन के मित्र स्व. निरंजन ज़मींदार, जिन पर सरस्वती की विशेष कृपा थी. उनका अंग्रेज़ी, हिंदी और मराठी तीनो पर समान प्रभुत्व था. म.प्र., खासकर के इंदौर का कोई निवासी उनकी सशक्त लेखनी से अनजान नहीं है. उनकी एक कविता मुझे अत्यन्त प्रिय है, जिसमे उन्होने हिंदी को अपनी मां और मराठी को अपनी मौसी कहा है. मिली तो आपकी पोस्ट को शेयर करके डालूंगी.
        पुनश्च:
        आपने "हिंगलिश" का नाम तक नहीं लिया इसके लिये आभार


      • आशीष देवराड़ी -जिस प्रकार एक माँ दूसरी माँ की जगह नहीं ले सकती उसी प्रकार एक भाषा दूसरी भाषा का विकल्प कभी नहीं हो सकती | (अब अपनी माँ की उपेक्षा कर दुसरे की माँ को अपनी माँ बताने वाले से कुछ नहीं कहना फिलहाल ...)


      • अमरनाथ 'मधुर' - किसने कहा कि गैर की माँ को माँ मानो तो अपनी माँ माँ नहीं रहती है ?


      • आशीष देवराड़ी बात अंग्रेजी -हिंदी सन्दर्भ में कही गई है |


      • अमरनाथ 'मधुर' - मैं भी उसी सन्दर्भ में बात कर रहा हूँ. मैं आप लोगों के इस बात  से सहमत नहीं हूँ कि हिन्दी अंगरेजी की वजह से पिछड़ रही है इसलिए अंगरेजी का विरोध किया जाए.


      • करुणाकान्त  चौबे - बहुत  सुन्दर  और  सार्थक  बात  कही  आपने .


      • राज्यश्री त्रिपाठी - बडी बहन भी मां सरीखी होती है. Joint families मे मां की जगह ताई/चाची/भुआ भी लेती हैं. प्रेम तो धाय और घर की नैकरानी भी करती हैं, और substitue मांये होती हैं. कई घरो में विमाताये भी मां सरीखी ही प्रेम करने वाली होती हैं. मेरी खुद की मौसी ने अपने पेट-से-नहीं-जाये बेटे को अपने ही बेटे जैसा पाला. और उससे प्रेम और सम्मान दोनो हासिल किये. उनकी बीमारी मे उसी ने उनकी सेवा की पूरी लगन से जो अत्यनत स्तुत्य है. कभी मित्रो/सखियो की मांओ को सम्मान देने से हमारी मां के प्रति प्रेम/सम्मान कम नहीं हो जाता.
         जातिवाद, धर्म, संप्रदाय, प्रदेश... और अब भाषा इन्ही संकुचित मनोवृत्तियो ने भारत की लुटिया डुबोई है. भाषा मात्र माध्यम है अभिव्यक्ति का.) मेरी एक सहेली से जो हिंदी जानती है, पर मराठी मे बात करती है उसका मेरा संभाषण अक्सर हिंदी-मराठी मिश्रित होता है. मै 90% हिदी में, वह 100% मराठी में. हम कई सालो से ऐसा कर रहे हैं... बिना किसी दिक्कत के.
         यदि हम लोग विभिन्न भाषाओ का विरोध करके अपना अमूल्य समय नष्ट करने के बजाय यदि यह उर्जा किभी भले कामो मे लगाये तो उत्तम.


      • अमरनाथ 'मधुर' - मैं इस विषय पर लिखने में अपने को सक्षम नहीं समझता हूँ लेकिन इतना जानता हूँ कि भाषाएँ एक दूसरे से लेन देन करके ही सम्रद्ध हुयी हैं. जिन भाषा भाषियों ने अपनी भाषा को शुद्ध और सुरक्षित रखने का प्रयास किया है वे भाषाएँ म्रतप्राय: हैं. और किसी भाषा का मरना मानव संस्कृति की अपूरणीय क्षति है.


      • श्रद्धान्शु  शेखर - आप  लोग  भाषा  को  भाषा  क्यू  नहीं  समझ  रहें  हैं .?आलंकारिक  शब्दावली  का  उपयोग  इतना  ज़रूरी   तो  नहीं  है  कि  भाषा  को  माँ  कहा  ही  जाए !और  किसी  भी   प्रशंसा  या  गाली   के  लिए  मान  या  बहिन  जैसे  शब्द  ही  क्यू  धुन्द्ते  हैं .? बाप  भाई  चाचा  भांजा  भतीजा  का  उपयोग  क्यू  नहीं  ? महिलाओं  के  प्रति  ऐसी   सोच  से  मुक्ति  क्या  ज़रूरी  नहीं  है ?


      • नरेंद्र कुमार पासी अगर हम किसी भाषा का विरोध कर रहे है ,जैसा अंग्रेजी का ,कारण की ,उन्होंने हमें २०० वर्षों तक गुलामी की बेडियो मे जकड़े रखा ,,पर लगभग ६६ वर्ष बीत गए भारत से गए हुए ,,जब आए तो भारत को अंग्रेजी भाषा मे ढालने का पूर्ण प्रयास किया ,,ये उनकी महत्वा कांक्षा थी ,पर वो तो चले गए ,अब क्या परेशानी है की हम अब भी सोये हुए है की हिन्दी को शुध्द रूप से भारत मे नही चला प रहे है ,,जहा देखो स्कूलों मे अंग्रेजी का ही बोल बाला है ,,,और भारत मे एक भाषा न चल पाने का एक कारण या वजह यह भी है की भारत मे संविधान मे लिखित २२ भाषाए और अन्य क्षेत्रीय भाषाए जो की सभी को एक भाषा -सूत्र मे फिरोना काफी कठिन ही नही काफी दुष्कर है


      • राज्यश्री त्रिपाठी - और आपका अंग्रेज़ी विरोध सही नहीं है. दुनिया मे हर प्रतिस्पर्धा मे भारत के बेटे बिना अंग्रेज़ी के क़ामयाब नही हो सकेगे, कुंए के मेंढक की तरह. गिरिजेश तिवारी कहां हैं आप? प्लीज़ बोलिये इस विषय पर. धडाधड अंग्रेज़ी बोलने और बढिया अंग्रेज़ी जानते हुए हिंदी/मातृभाषा मे लिखने वालो की मैं कायल हूं.

      • गिरिजेश तिवारी - आज की दुनिया पर अंग्रेजीदां लोगों का वर्चस्व है. मैं एक छोटी जगह में पिछड़े लोगों के बीच रहता हूँ. यहाँ से नौजवान जब भी बाहर महानगरों में पढ़ने जाते हैं, तो उनके सामने आने वाले संकटों में से भाषा का भी भीषण संकट होता है. अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों के छात्र और हिन्दी माध्यम विद्यालयों के छात्रों के स्तर में अन्तर होता है. उनकी किताबें, फीस, तौर-तरीके, पृष्ठभूमि - सब अलग-अलग हैं. मुझे महान माओ की यह उक्ति समझ में आती है - "खुद को जानो और अपने दुश्मन को भी जानो!" अंग्रेज़ी शासक वर्ग की भाषा है. बिना शत्रु की भाषा जाने हम कैसे उसके बारे में जान सकते हैं? हमारे देश में अभी भी अंग्रेज़ी उच्चशिक्षा की भाषा है. बिना अंग्रेज़ी जाने क्या हम उच्चशिक्षा प्राप्त कर सकते हैं? अंग्रेज़ी सम्पर्क की भाषा है. बिना अंग्रेज़ी जाने क्या हम अपने ही देश के दूसरे प्रान्तों के लोगों से सम्वाद कर सकते है? मेरे दक्षिण भारतीय और विदेशी मित्र अक्सर कहते हैं कि आपका लिखा हम कैसे पढ़ें? मुझे उनको समझाना पड़ता है कि गूगल के सहारे ट्रांसलेट कर लीजिए. खुद मुझे हिन्दी में ही अधिकांशतः लिखना पड़ता है, क्योंकि मेरे इलाके के अधिकतर लोग केवल हिन्दी ही अच्छी तरह से पढ़-समझ सकते हैं. मैं हिन्दी-भाषी होने में गर्व महसूस करता हूँ. मगर अंग्रेज़ी की जानकारी आवश्यक समझता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि आज की दुनिया में अंग्रेजीदां लोगों से टक्कर लेकर अपने लिये बेहतर जगह बनाने में अंग्रेज़ी की जानकारी आजमगढ़ के नौजवानों के लिये सहायक है. अपने देश में आज भाषा के ज्ञान का ही संकट है. नयी पीढ़ी को हिन्दी भी कायदे से नहीं सिखाई जा रही है. एक अलग ही तरह की पौध उगायी जा रही है, जिसे न तो हिन्दी आती है और न ही अंग्रेज़ी. बच्चे हिंग्लिश बोलते हैं. तीन आइसक्रीम नहीं समझते, थ्री आइसक्रीम समझते हैं. पहाड़ा नहीं जानते, टेबल जानते हैं. हिन्दी की गिनती - उनचास, उनहत्तर - नहीं समझते, अंग्रेज़ी में बताना पड़ता है. गुलामी का आलम यह है कि गाँव गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय के नाम पर खुली शिक्षा बेचने वाली छोटी बड़ी दूकानों में धड़ल्ले से चाल्क, टाल्क पढ़ाया जा रहा है. ऐसे में व्यक्तित्व विकास प्रोजेक्ट के कामो में एक महत्वपूर्ण काम नौजवानों को अंग्रेज़ी की जानकारी देना भी है. उनको हिन्दी भी सिखाना ही पड़ता है. हम सब के सामने भाषा की चुनौती एक कठिन चुनौती है.

      • राज्यश्री त्रिपाठी - यहां Zee TV के Newscaster ना तो ढंग की हिन्दी बोल पाते हैं और ना ही अंग्रेज़ी. जैसे "दस थाउज़ंड" 10,000 के लिये


      • अमरनाथ 'मधुर' - आदरणीय मैं आपके कथन में एक विरोधाभास देख रहा हूँ . बिना अंगरेजी जाने हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं. गाँव गाँव में अग्रेंजी माध्यम के स्कूल खुल गए हैं. दोनों कथन सत्य हैं लेकिन एक दूसरे का उत्तर भी हैं. प्रश्न यह है कि क्या हिन्दी का उत्थान अंगरेजी को प्रतिबंधित करके ही किया जा सकता है ? मैं समझता हूँ की एक जमाने में भले ही ऐसा माना जाता हो लेकिन आज कोई भी इसे स्वीकार नहीं करेगा. दूसरी बात ये कि हिन्दी पल्लवित हो या न हो लेकिन अंगरेजी के बहिष्कार से हिन्दी भाषा और हिन्दी भाषी दोनों पिछड़ जायेंगें. तीसरी बात ये कि जो सम्बन्ध हिन्दी और अंगरेजी का है वही हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं का है. क्षेत्रीय भाषाएँ भी हिन्दी से वैसा ही खतरा महसूस करती हैं जैसी हिन्दी अंगरेजी से. अहिन्दी भाषी वैसे भी हिन्दी को अपने और अंगरेजी की बीच का रोड़ा समझते हैं.इसलिए हिन्दी का सरक्षनावाद समझ में आने वाली बात नहीं है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं को आधुनिक ज्ञान विज्ञान की भाषा बनाने के जितने प्रयास किये जाने चाहिए थे वह नहीं किये गए हैं.अनुवाद का काम बड़े पैमाने पर किया जाना चाहिए. मातरभाषा में उच्च और तकनीकी शिक्षा की विशेष व्यवस्था  की जानी चाहिए. मात्रभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में प्रवीणता के लिए विशेष अध्ययन सुविधा होनी चाहिए.बोलियों और मृत प्राय: भाषा के सरक्षण की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए. जिस तरह पर्यावरण की रक्षा के लिए सभी प्राकृतिक उपहारों का सुरक्षित रहना जरूरी है उसी प्रकार मानव की सांस्कृतिक स्वस्थता के लिए सभी बोलियों भाषाओँ का चहचहाना जरूरी है.


      • गिरिजेश तिवारी - सहमत हूँ. राष्ट्र की सभी भाषाओँ का विकास करने के लिये जो भी आवश्यक कदम हैं, उनको हमारे शासकों ने कम से कम दिलचस्पी के साथ शुरू तो किया, मगर उसे उरूज़ तक ले जाने की इच्छाशक्ति उनके वर्गीय उद्देश्य के विपरीत थी. यह काम भी क्रांतिकारियों को ही करना होगा.


      • नरेंद्र कुमार पासी - हमारे देश मे आज भी हिन्दी या अंग्रेजी क्षेत्रीय भाषाओ के साथ मिला कर पढ़ाई जाती है जिस कारण छात्रों को न तो अंग्रेजी का सही ज्ञान हो पाता है न ही हिन्दी का सही ज्ञान हो पता है ,,जैसा की आप ने कहा की गांव-गांव मे अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए है पर वह भाषा पढ़ाने के लिए कोई एक्सपर्ट नही होते ,जो भी है वो काम चलाऊ है ,,पढ़ाने वाले को खुद का विषय भाषा का ज्ञान नही होता ,,,,हमारा देश कई भाषाओं की विविधता लिए हुए है जिस कारण यहाँ एक भाषा का चल पाना काफी दुश्वार है ,,बैंको मे भी प्रति वर्ष हिन्दी समारोह मनाये जाते है की हर काम हिन्दी मे हो ,,पर सारे काम तो अंग्रेजी मे ही होते है ,,,,,,
        स्कूलों मे मात्र किताबे पढ़ा डी जाती है ,पर उनका व्याकरण सही तरीके से पढाया या समझाया नही जाता ,कारण की उन्हें खुद को नही आता ,,हमें दूसरी भाषा का विरोध न करते हुए ,खुद मे सुधार की अवश्यकता है ,खुद हमें अपनी भाषा के लिए आगे बढ़ना पड़ेगा

          •  राम  शंकर  शुक्ल -आपने सही समस्या की और ध्यान आकृष्ट किया है. लेकिन पहले एक बात और तय हो कि जब राष्ट्र एक है तो एक शिक्षा पाठ्यक्रम भी हो. वह पाठ्यक्रम जिस राज्य में पढाया जय वहां की स्थानीय भाषा में उसका अनुवाद पुस्तकों में हो. अंग्रेजी को एक भाषा के रूप मे पढाया जाय, न कि सम्पूर्ण अनिवार्य माध्यम के रूप में. हिंदी को राष्ट्र भाषा में हर नागरिक जाने और समझे. इससे जहाँ भाषिक सद्भावना होगी, वही भारतीय भाषाओं का सम्मान और विकास होगा. कृष्ण-सुदामा साथ पढ़े. शिक्षण संस्थाएं आर्थिक आधार पर छात्र चयन न करें, मेधा आधार पर चयन करें. शिक्षकों की शिक्षण संस्कृति का समय-समय पर निरिक्षण हो. यदि किसी के शिक्षण में कोई कमी हो तो उसे प्रशिक्षण दिया जाय. इससे योग्यता का विस्तार होगा. साथ ही व्यवस्थित शिक्षा का भी. बचपन से ही यदि कृष्ण-सुदामा साथ पढ़ते तो सामंती व्यवस्था खुद मिट जाती.


    • गिरिजेश तिवारी - मित्र, आपकी कामना हम सब की कामना है. मगर बिना इन्कलाब के इसे लागू करना असंभव है, शासक वर्ग भाषा के सहारे ही गुलाम बनाता है, बांटता है और शासन करता है. क्रान्ति ही भाषा के संकट का भी समाधान करने में समर्थ है.


    • अजय सिंह मै भी इन विद्यालयों का विरोध करता हूँ जो बच्चों को सिर्फ गुमराह कर रहे हैं, जो अध्यापक फ्रेश को फरेस और फ्रंट को फारेंट बोलता है उनसे पढ़वाता है , और तो और अब कुछ लोग हिंदी को अंग्रेजी बनाने में मशगूल है उदाहरणार्थ रिजिड में ता जोड़ कर रिजिडत और स्टैंडर्ड को स्टेन्डरतम , दृढ को दृढनेस व् अन्य, क्यूँ कि अभिभावक को ही नहीं पता कि उसके बच्चे को क्या पढाया जा रहा है, क्या आप उन अध्यापकों को माफ करेंगे ? बड़े शहरों में अभिभावक यूनियन है जो इनकी जांच करते है पर छोटे शहरों में ये नहीं हो पता जिसका परिणाम आज का छात्र भुगत रहा है,


    • इंजी० नागेन्द्र  कुमार -  पूर्णतया  सहमत हूँ  सिर्फ  यही  कहूँगा  अच्छा  लगता  है  आपकी  पोस्ट  पढ़  कर .

    • अमरनाथ 'मधुर' - एक और महत्वपूर्ण बात मैं यहाँ कहना उचित समझता हूँ कि हिन्दी की चिंता करने वाले अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति आपराधिक उपेक्षा का रुख अपनाए हुए हैं .खासतौर से उर्दू के प्रति ये हिकारत का भाव रखते हैं जबकि उर्दू और हिन्दी में लिपि के अतिरिक्त और कोई बुनियादी फर्क नहीं है. सही मायने में जो आम भाषा है वही वास्तविक हिन्दी है, उर्दू है. लेकिन जो किताबी भाषा है और जो निश्चय ही आम आदमी की भाषा नहीं है वो एक दूसरे से बहुत फासले पर दिखाई देती है. आजादी के बाद जिस भाषा का सबसे ज्यादा अहित हुआ है वो उर्दू है जिसके लिए हिन्दी के प्रति अतिरिक्त उत्साह भी जिम्मेदार है.विद्यालय स्तर पर हिन्दी और उर्दू एक साथ पढाई जानी चाहियें. साहित्य की पाठ्य पुस्तकें एक और देवनागरी लिपि में और दूसरी और फारसी लिपि में छापी जानी चाहियें ताकि बच्चें भी यह तय कर सकें कि दुष्यंत कुमार की गजलें हमारी भाषा की हैं या बशीर बद्र की गजलें हमारी भाषा की हैं?ये दोनों एक भाषा की हैं ?या बशीर बद्र उर्दू के और दुष्यंत कुमार हिन्दी के शायर हैं ? भाषाई आक्रमणकारियों को आईना दिखाना जरूरी है.


    •  फरीद  अहमद - ‎1000 लाइक्स   फॉर  अमरनाथ  जी 


    • आवारा बादल ‎1 लाइक मेरा भी...


    • Ashok Dogra 
      If the present trend persists and I do not see in near future any reverse then Hindi will follow Urdu infect it is already doing so. Madhurji If you talk about " आजादी के बाद " then your beloved leader Nehru is responsible for this trend. 
      Because Nehru was Indian by birth only he was a Englishman by thought and action and he was never interested in Hindi. If Russians, Japanese and Chinese can study in their own languages and compete the world why not Indians. This Congress party never tried to implement even tribhasha formula.
      9 hours ago ·  · 2

    •  अमरनाथ 'मधुर' -हिन्दी भाषी राज्यों ने त्रिभाषा फार्मूला ईमानदारी से लागू नहीं किया है. उनहोंने तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत को ले लिया जबकि उन्हें किसी अन्य  प्रांत की भाषा  को पढ़ना था.अब अहिन्दी भाषी राष्ट्र भाषा हिन्दी, अंगरेजी और अपने राज्य की भाषा पढते हैं जबकि हिन्दी भाषी प्रदेश अंगरेजी, राष्ट्र भाषा हिन्दी और तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत पढ़कर छुट्टी पा जाते हैं. अहिन्दी भाषा भाषियों में अगर राज्य की भाषा और मात्र भाषा अलग अलग हैं तो एक चौथी भाषा सीखने का दबाव और बढ़ जाता है.चारों भाषाओं के सीखने की वकालत प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही की जाती है ऐसे में बाल्यावस्था पर शिक्षा का कितना बोझ बढ़ जाता है.

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