रविवार, 26 अगस्त 2012

जातिवाद का पतनाला साम्प्रदायिकता के गन्दे नाले में गिरता है

         

      भारतीय समाज की दो बडी बुराईयॉं हैं साम्प्रदायिकता और जातिवाद । इनमें से साम्प्रदायिकता को बडी बीमारी माना गया है। प्रेमचन्द ने कहा था साम्प्रदायिकता समाज का कोढ है। समाज के इस कोढ को मिटाने के लिये समाज सुधारकों ने अथक प्रयास किये और समाज को प्रगतिशीलता और आधुनिकता की राह दिखायी है।लेकिन धर्म को छूने वाली एक छोटी सी सच्ची झूठी  घटना होते ही सारी प्रगतिशीलता और आधुनिकता बाढ के पानी की तरह बह जाती है और बर्बर हिंसा जंगल की आग की तरह फैलने लगती है।जब  तक इस आग पर काबू पाया जाता है और इससे हुये नुकसान को ठीक किया  जाता है तब तक कोई दूसरी घटना घट जाती है और फिर सारे सद प्रयास दुबारा शुरू करने पडते हैं।

         प्रश्न यह है कि साम्प्रदायिकता खत्म क्यूँ नहीं होती है ? वह इतनी शक्तिशाली कैसे है? इस पर काफी कुछ कहा जा चुका है लेकिन क्योंकि समस्या अभी भी है इसीलिये इसकी बराबर पडताल करने की जरूरत भी है। अगर हम ध्यान दे तो पायेगें हमारा समाज जातियों में बॅंटा है और ये जातियॉं हिन्दु और मुसलमान के दो धर्मो में संगठित हैं। या यूँ  कहें कि हमारे दो बडे धर्म अनेक जातियों की इकाईयों में विभाजित हैं। हिन्दुओं में ब्राहमण, बनिया, ठाकुर,जाट, यादव हैं तो मुसलमानों में   सैयद,पठान,शेख,सलमानी,रांगड,महेसरे,कसाई,अन्सारी आदि हैं। साम्प्रदायिक सदभावना की दृष्टि से जब पूर्ण शान्ति रहती है तब इन जातियों का पारस्परिक संघर्ष बडे जोरो से चलता रहता है। एक जाति दूसरे पर अपनी श्रेष्ठता दर्शाने का कोई अवसर नहीं चूकती है।

               संघर्ष का मतलब हिन्सा ही नहीं है। इससे तात्पर्य अपने वर्चस्व को मजबूत रखना,अपनी पहचान को सुरक्षित रखना और उसकी अभिवृद्वि के लिये स्व जातिय  लोगों  की मदद करना शामिल है।यह सब इतने सहज भाव से चलता रहता है कि विभिन्न जाति के लोगों को इसमें कुछ असामान्य नहीं लगता है। लेकिन जब इस प्रवाह के विपरीत कुछ होता है तो पूरा समाज तनाव में आ जाता हैं। एक वाल्मिकि जाति की स्त्री द्वारा किसी अन्य का मल अपने सिर पर ढोकर ले जाना उसका पेशा है लेकिन अन्य जाति के सदस्य द्वारा ऐसा कोई कार्य करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। यदि कोई विवशता में ऐसा कर भी रहा है [बहुत से सवर्ण जाति के लोग अन्य  शहरों में जाकर सफाई कर्मचारी  का कार्य कर रहे हैं ]तो वह समाज में चर्चा का विषय  बन जाता हैं। 'जाटव मिष्टान्न भण्डार' के नाम से कोई हलवाई अपना  कारोबार  सफलतापूर्वक नहीं कर सकता लेकिन 'शर्मा शू स्टोर' के नाम से जूतों की दुकान चलाई जा सकती है। शर्माजी के शू स्टोर खोलने पर लोग चर्चा जो जरूर करेंगें  लेकिन  हिकारत की नजर से कोई नहीं देखेगा। लेकिन यही शर्माजी जूते गॉंठने का काम नहीं करेंगें और अगर करेंगें तो समाज में शर्मा बनकर नही रह सकेंगें।

           एक ठाकुर सूअर फार्म खोलकर धनवान होता रहे जिसकी स्व जाति भाईयों द्वारा पीठ पीछे निन्दा  बहुत होगी लेकिन सामाजिक बहिष्कार नहीं होगा|  यही ठाकुर अगर मीट की छोटी दुकान खोलकर बैठ जाये तो इन्हें तुरन्त बिरादरी के बाहर कर दिया जायेगा।  इससे भी बडी बात ये है कि इस स्थिति में भी जाति बहिष्कृत ठाकुर सहाब स्वयं को उच्च जाति के होने के दंभ से मुक्त नहीं करते हैं। कभी कहीं कोई प्रसंग आ जाये तो वह सबसे पहले अपना जाति प्रमाण पत्र हवा में लहराते हुये फर्माते हैं हमें ऐसा वैसा मत समझना हम ठाकुर हैं ठाकुर। 
                   हमारे समाज में यह जातिगत भावना इतनी गहरी व्याप्त है कि लोगों ने महापुरूषों, शहीदों तक को अपनी जाति के बाडे में धेर लिया  है। अम्बेडकर हैं तो दलितों के हैं, राणा प्रताप हैं तो ठाकुरो के हैं, परशुराम हैं तो ब्राहमणों के हैं कृष्ण है तो यादवों के हैं। बाकि किसी को इन्हें पूजना हैं तो पूजता रहे इससे वो उनके थोडा ही हो जायेंगें। महाराज अग्रसेन को वणिक समाज याद ना करे तो कोई ना पूछे। गुरू नानक से लेकर गुरू गोविन्द सिंह तक केवल सरदारों  के साये में हैं । उधम सिंह जिसे सारी दुनिया को यह बताने के लिये की भारत में हिन्दु मुसलमान सिख सब एक हैं| अपना नाम राम मौहम्मद सिंह रख लिया था उसे जाति के पुजारियों ने खोजकर दलित बना दिया। हिन्दी के लोकप्रिय गजलकार जिन्होंने अपने  जाति सूचक नाम का त्याग  कर दिया था उस दुष्यन्त कुमार को उसकी जाति वालों ने अपनी जाति का बताकर अपनी पहचान को बढाने की कौशिश की है जबकि उस जाति ने तो क्या किसी दूसरी ने भी अभी कोई दूसरा दुष्यन्त पैदा नहीं किया है। 
     
               इन सारी जातियों ने इन महापुरूषों के पद चिहनों पर चलने का कोई प्रयास चाहे ना किया हो लेकिन उनके छोटे  बडे बुत बनाकर चौराहे, चबूतरे ,पार्क घेरने का काम खूब किया जाता है। जिन जाति समूहों का सरकार में दखल होता है वो सरकारी खर्च पर ये काम करते हैं। पुराने पौराणिक नायकों राम, कृष्ण,दुर्गा, काली, गणेश, हनुमान के पूजा स्थल  तो पहले से ही बडी संख्या में बने हुये हैं जिनके कारण जब तब विवाद   होता रहता है अब नये युग के नायको के स्मारकों /बुतों की थी वही स्थिति हो गयी है।  इनके भी छेउने /टूटने पर वैसी ही हिंसक प्रतिक्रिया होती है जैसी किसी धार्मिक स्थल के कारण होती आयी है।

       यही प्रतिक्रिया  अन्तरजातिय विवाह सम्बन्धों को लेकर होती है। ऑनर किलिन्ग का भी एक बडा कारण यह जातिगत भेदभाव ही है। लेकिन ऐसे किसी भी कार्य में जब दूसरे धर्म का सदस्य शामिल हो जाता है तो यह तुरन्त साम्प्रदायिक उपद्रव में बदल जाती है। फिर दोनों धर्मों  के लोग अपने अन्दरूनी जातिगत संघर्ष को भूलकर एक बडे गिरोह के रूप् में सामने आते हैं जो अपने समुदाय के सदस्य को बिना गुण दोष के संरक्षण देते हैं और आक्रामक हो जाते हैं। सवर्ण और आर्थिक रूप से सबल जाति वाले कमजोर और निम्न  जाति के लोगों को इस लडाई में आगे कर देते हैं और स्वयं दंगों की योजनायें बनाने और स्वयं के जान माल की सुरक्षा में लग जाते हैं । एक बार झगडा हो जाने पर वह किसलिये हुआ था लडने वालों के लिये ये बात गोण हो जाती है ओर फिर व्यक्तिगत या समुदायगत जान माल के नुकसान पर लडाई स्वत:संचालित होने लगती है।

              शासन/प्रशासन अपनी बदनामी से बचने के लिये सॉंप निकल जाने पर लकीर पीटने की तरह जोर  जबरदस्ती से शान्ति स्थापित कर देता है लेकिन मनों का मेल नहीं होता है। शान्ति तात्कालिक रूप से जरूर स्थापित हो जाती है लेकिन वह कभी भी भंग हो जाने के लिये अभिशप्त है। इस प्रकार प्रशासक और समाज सेवी अपने-अपने तरीके  से साम्प्रदायिकता की समस्या से निपटने का प्रयास करते हैं इसके लिए कोई सर्वधर्म समभाव की बात करता है तो कोई  धर्म  को निशाना बनाता है| लेकिन जाति को छोड दिया जाता है। जबकि समस्यायों  की जड़ में जाति होती है. जातिवाद का पतनाला साम्प्रदायिकता के गन्दे नाले में गिरता है। इन गन्दे नालों को पानी जाति की नालियों और पतनालों से ही मिलता है। मौसमी कारणों से पानी ज्यादा आने पर उफनकर बस्ती में फैलने लगता है और अपने साथ साथ तरह तरह की बीमारियॉं फैलाता है। साम्प्रदायिकता भी इसी तरह फैलती है। जी हॉं साम्प्रदायिकता का भी मौसम होता है। जब शोभायात्रा निकलती है, जब ताजिये निकलते हैं, जब ईद आती है,जब दीवाली होती है। या कुर्सी के भूखे  राजनेता रथयात्रायें निकालने लगते हैं तो भावनायें उफान पर आती हैं। साम्प्रदायिक उपद्रव होने लगते हैं। सामाजिक बीमारियाँ फ़ैलने लगती हैं | लूट करने वाले दिन दहाडे लूटते हैं, यौन कुठित अपने पौरूष के परीक्षण में जुट जाते हैं । और कोई अवसर होता है जब ऐसे धर्मवीर समाज में प्रतिष्ठित होते हों ?लेकिन ये मौसम इनकी शौर्य पूजा का होता है।

           समाज कितना अधार्मिक हो गया है अपने धर्मरक्षकों की परवाह ही नहीं करता है। ये अवसर होता है जब धर्मरक्षक समाज को ये एहसास कराते हैं कि वे ही हैं जो उनकी हिफाजत कर सकते हैं।उस वक्त ऐसी हवा बहती है कि समझदार लोग चुप रहने में ही भलाई समझते हैं। दोनो धर्मो के लोग इन खलनायको के हाथ मे अपनी सुरक्षा का जिम्मा देकर अपने खेल में बैठ जाते हैं। ये खलनायक जिन्हें अब कानून का कोई भय नहीं होता और न ही समाज की कोई शर्म होती है मौका लगते ही अपने ही धर्म जाति वालों को लूटने खसोटने में लग जाते हैंऔर बडी बेशर्मी से इसका दोष दूसरे समुदाय पर मढ देते हैं और शान  से मूछें मरोडते घूमते हैं।

         समाज इनकी असलियत जानता है और ये भी अच्छी तरह समझते हैं कि समाज उन्हें किस निगाह से देखता है। लौग दबी जबान में कहते हैं ये अच्छी बात नहीं है। लेकिन ये लौग तब कहाँ  थे जब दूसरे समुदाय के लोगों के साथ ऐसा बर्ताव हो रहा था? अब आदमखोर राक्षस को बुलाया है तो उसे मांस चाहिये ही उसका जब मन करेगा वो आपका खून पियेगा।
            संभवतः इन सारी बातों को ध्यान में रखकर ही भरत को पंथ निरपेक्ष राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया गया था लेकिन सारी कौशिशें के बाद भी अगर हम सफल नहीं हुये जो इसका कारण यही है कि हमने इसकी जडों के नहीं पहचाना जो जातिय व्यवस्था से खाद पानी लेती है। इसलिये प्रगति शील और आधुनिक समाज बनाने के लिये यह जरूरी है कि हम जातिय व्यवस्था के वटवृक्ष को जड से उखाड फेंके तभी विषैले फल फूल पैदा होने बन्द होंगे।      
                             -अमरनाथ 'मधुर' 


فرقہ پرستی اور ذات پات
      ہندوستانی سماج کی دو بڑی برايي ہیں فرقہ پرستی اور ذات پات. ان میں سے فرقہ پرستی کو بڑی بیماری تسلیم کیا گیا ہے. پرےمچند نے کہا تھا فرقہ پرستی سماج کا كوڈھ ہے. سماج کے اس كوڈھ کو مٹانے کے لئے سماج کی اصلاح کرنے والوں نے مسلسل کوشش کی اور سماج کو پرگتشيلتا اور جدیدیت کی راہ دکھائی ہے. لیکن سچی جھوٹی مذہب کو چھونے والی ایک چھوٹی سی واقعہ ہوتے ہی ساری پرگتشيلتا اور جدیدیت باڈھ کے پانی کی طرح بہہ جاتی ہے اور بربر تشدد جنگل کی آگ کی طرح پھیلنے لگتی ہے. جب تک اس آگ پر قابو پایا جاتا ہے اور اس سے ہوئے نقصان کو ٹھیک کیا جاتا ہے، تب تک کوئی دوسرا واقعہ پیش آیا جاتی ہے اور پھر سارے سد کوشش دوبارہ شروع کرنے پڑتے ہیں.
         سوال یہ ہے کہ فرقہ پرستی ختم کیوں نہیں ہوتی ہے؟ وہ اتنی طاقتور کیسے ہے؟ اس پر کافی کچھ کہا جا چکا ہے لیکن کیونکہ مسئلہ ابھی بھی ہے اسيليے اس کا برابر بلایا گیا تو کرنے کی ضرورت بھی ہے. اگر ہم توجہ دے تو پايےگے ہمارا سماج ذاتوں میں بٹا ہے اور یہ جاتي ہندو اور مسلمان کے دو دھرمو میں متحد ہیں. یا یوں کہیں کہ ہمارے دو بڑے مذہب کئی ذاتوں کی اكاييو میں تقسیم ہیں. ہندوؤں میں براهم، بنيا، ٹھاکر، ہندو، یادو ہیں تو مسلمانوں میں وغیرہ ہیں. فرقہ جن افراد کی نظر سے جب مکمل اطمینان رہتی ہے تب ان ذاتوں کا باہمی جدوجہد بڑے جورو سے چلتا رہتا ہے. ایک ذات دوسرے پر اپنی برتری ظاہر کرنے کا کوئی موقع نہیں چوكتي ہے. جدوجہد کا مجلب هنسا ہی نہیں ہے. اس سے مراد اپنے تسلط کو مضبوط رکھنا، اپنی شناخت کو محفوظ رکھنا اور اس کی ابھوردو کے لئے خود جاتي لاگو کی مدد کرنا شامل ہے. یہ سب اتنے آسان انداز سے چلتا رہتا ہے کہ مختلف ذات کے لوگوں کو اس میں کچھ غیر معمولی نہیں لگتا ہے. لیکن جب اس بہاؤ کے برعکس کچھ ہوتا ہے تو پورا سماج کشیدگی میں آ جاتا ہے. ایک والمك ذات کی بیوی کی طرف سے کسی دوسرے کا مل اپنے سر پر ڈھوكر لے جانا اس کا پیشہ ہے لیکن دوسری ذات کے رکن ایسا کوئی کام کرنے کے بارے میں سوچا بھی نہیں جا سکتا ہے. اگر کوئی مجبوری میں ایسا کر بھی رہا ہے [بہت سے اونچی ذات ذات کے لوگ دوسرے شہروں میں جا کر صفائی كرمكھري کا کام کر رہے ہیں] تو وہ سماج میں بحث کا موضوع بن جاتا ہے. 'جاٹو مشٹانن فرھنگ "کے نام سے کوئی حلوائی اپنا کاروبار کامیابی سے نہیں کر سکتا لیکن' شرما شو سٹور 'کے نام سے جوتوں کی دکان چلائی جا سکتی ہے. شرماجي کے شو سٹور کھولنے پر لوگ بحث جو ضرور کریں گے لیکن سماجی حقارت کی نظر سے کوئی نہیں دیکھے گا.
لیکن یہی شرماجي جوتے گٹھنے کا کام نہیں کریں گے اور اگر کریں گے تو سماج میں شرما بن کر نہیں رہ سكےگے. ایک ٹھاکر سور فارم کھول کر دولتمند ہوتا رہے خود ذات بھائیوں کی طرف سے پیٹھ پیچھے برائی جو بہت ہوگی لیکن سماجی بائیکاٹ نہیں ہوگا | لیکن یہی ٹھاکر اگر گوشت کی چھوٹی دکان کھول کر بیٹھ جائے تو انہیں فوری طور پر برادری کے باہر کر دیا جائے گا. اس سے بھی بڑی بات یہ ہے کہ اس حالت میں بھی ذات کا اخراج ٹھاکر سهاب خود کو اعلی ذات کے ہونے کے دم سے آزاد نہیں کرتے ہیں. کبھی کہیں کوئی ایسا موقع آ جائے تو وہ سب سے پہلے اپنی ذات اسناد ہوا میں لہراتے ہوئے پھرماتے ہیں ہمیں ایسا ویسا مت سمجھنا ہم ٹھاکر ہیں ٹھاکر.
   ہمارے معاشرے میں یہ جاتگت جذبات اتنی گہری ویاپت ہے کہ لوگوں نے مهاپروشو، شہیدوں تک کو اپنی ذات کے باڈے میں دھےر لیا ہے. امبےڈكر ہیں تو دلتوں کے ہیں، رانا پرتاپ ہیں تو ٹھاكرو کے ہیں، پرشرام ہیں تو براهمو کے ہیں کرشن ہے تو یادوئوں کے ہیں. باقی کسی کو انہیں پوجنا ہے تو پوجتا رہے اس سے وہ ان کے تھوڑا ہی ہو جايےگے. مہاراج اگرسےن کو وك سماج یاد نہ کرے تو کوئی نہ پوچھے. گورو نانک سے لے کر گرو گووند سنگھ تک صرف سرداروں کے سائے میں ہیں. ادھم سنگھ جسے ساری دنیا کو یہ بتانے کے لئے کی بھارت میں ہندو مسلمان سکھ سب ایک ہیں | اپنا نام رام محمد سنگھ رکھ لیا تھا اسے ذات کے پجاریوں نے كھوجكر دلت بنا دیا. ہندی کے مشہور گتلكار جنہوں نے اپنی ذات علامت نام کا ترک کر دیا تھا اس دشينت کمار کو اس کی ذات والوں نے اپنی ذات کا بتا کر اپنی شناخت کو بڑھانے کی كوشش کی ہے جب کہ اس ذات نے تو کیا کسی اور نے بھی ابھی کوئی دوسرا دشينت پیدا نہیں کیا ہے.
       
               ان تمام ذاتوں نے ان مهاپروشو کے عہدے چهنو پر چلنے کی کوئی کوشش چاہے نہ کیا ہو لیکن ان کے چھوٹے بڑے بت بنا کر چوراہے، چبوترے، پارک کوگھیرنے کا کام خوب کیا جاتا ہے. جن ذات گروپس کا حکومت میں دخل ہوتا ہے وہ سرکاری خرچ پر یہ کام کرتے ہیں. پرانے پورانیک اداکاروں رام، کرشن، درگا، کالی، گنیش، ہنومان کی پوجا سائٹ تو پہلے سے ہی بڑی تعداد میں بنے ہوئے ہیں جن کے وجہ سے جب اس وقت تنازعہ ہوتا رہتا ہے نئے زمانے کے نايكو کے سماركو / بتوں کی تھی وہی حالت ہو گئی ہے . اب ان کے بھی چھےنے / ٹوٹنے پر ویسی ہی تشدد رد عمل ہوتی ہے جیسی کسی مذہبی مقام کی وجہ سے ہوتی آئی ہے.

       یہی ردعمل انترجاتي شادی تعلقات کو لے کر ہوتی ہے. آنر كلنگ کا بھی ایک بڑا سبب یہ جاتگت تعصب ہی ہے. لیکن ایسے کسی بھی کام میں جب دوسرے مذہب کا رکن شامل ہو جاتا ہے تو یہ فوری طور پر فرقہ وارانہ اپدرو میں بدل جاتی ہے. پھر دونوں مذاہب کے لوگ اپنے اندرونی جاتگت جدوجہد کو بھول کر ایک بڑے گروہ کے روپ میں سامنے آتے ہیں جو اپنے معاشرے کے رکن کو بغیر خصوصیات قصور کے تحفظ دیتے ہیں اور جارحانہ ہو جاتے ہیں. اونچی ذات کے اور اقتصادی طور پر سبل ذات والے کمزور اور مندرجہ ذیل ذات کے لوگوں کو اس جنگ میں آگے کر دیتے ہیں اور خود فسادات کی منصوبے بنانے اور خود کی جان مال کی حفاظت میں لگ جاتے ہیں. ایک بار جھگڑا ہو جانے پر وہ كسليے ہوا تھا لڈنے والوں کے لئے یہ بات گو ہو جاتی ہے اور پھر ذاتی یا سمدايگت جان مال کے نقصان پر جنگ خودکار آپریشن ہونے لگتی ہے.

              حکومت / انتظامیہ اپنی بدنامی سے بچنے کے لئے سپ نکل جانے پر لکیر پیٹنے کی طرح زور زبردستی سے امن قائم کر دیتا ہے لیکن منوں کا میل نہیں ہوتا ہے. امن فوری طور پر ضرور قائم ہو جاتی ہے لیکن وہ کبھی بھی ٹوٹ جانے کے لئے مجبور ہے. اس طرح جات اور سماج سےوي اپنے اپنے طریقے سے سامپردايكتا کے مسئلے سے نمٹنے کی کوشش کرتے ہیں اس کے لئے کوئی سرودھرم ایماندار کی بات کرتا ہے تو کوئی مذہب کو نشانہ بناتا ہے | لیکن ذات کو چھوڑ دیا جاتا ہے. جبکہ سمسيايو کی جڑ میں ذات ہوتی ہے. ذات برادری کا پتنالا فرقہ پرستی کے گندے نالے میں گرتا ہے. ان گندے نالوں کو پانی ذات کی ناليو اور پتنالو سے ہی ملتا ہے. موسمی وجوہات سے پانی زیادہ آنے پر اپھنكر بستی میں پھیلنے لگتا ہے اور اپنے ساتھ ساتھ طرح طرح کی بيماري پھیلاتا ہے. فرقہ پرستی بھی اسی طرح پھیلتی ہے. جی ہاں فرقہ پرستی کا بھی موسم ہوتا ہے. جب شوبھاياترا نکلتی ہے، جب تاجيے نکلتے ہیں، جب عید آتی ہے، جب دیوالی ہوتی ہے. یا کرسی کے بھوکے سیاسی لیڈر رتھياترايے نکالنے لگتے ہیں تو بھاونايے اپھان پر آتی ہیں. فرقہ اپدرو ہونے لگتے ہیں. سماجی بیماریاں پھیلانے لگتی ہیں | لوٹ کرنے والے دن دھاڑیں لوٹتے ہیں، جنسی كٹھت اپنے پوروش کے ٹیسٹ میں لگ جاتے ہیں. اور کوئی موقع ہوتا ہے جب ایسے دھرم ویر سماج میں باوقار ہوتے ہوں؟ لیکن یہ موسم ان کی ہمت پوجا کا ہوتا ہے.

           سماج کتنا ادھارمك ہو گیا ہے اپنے دھرمركشكو کی پرواہ ہی نہیں کرتا ہے. یہ موقع ہوتا ہے جب دھرمركشك سماج کو یہ احساس کرتے ہیں کہ وہ ہی ہیں جو ان کی حفاظت کر سکتے ہیں. اس وقت ایسی ہوا بہتی ہے کہ سمجھدار لوگ چپ رہنے میں ہی عافیت سمجھتے ہیں. دونوں دھرمو کے لوگ انكھلنايكو کے ہاتھ میں اپنی حفاظت کا جمما دے کر اپنے کھیل میں بیٹھ جاتے ہیں. یہ كھلنايك جنہیں اب قانون کا کوئی خوف نہیں ہوتا اور نہ ہی سماج کی کائی شرم ہوتی ہے موقع لگتے ہی اپنے ہی مذہب، ذات والوں کو لوٹنے كھسوٹنے میں لگ جاتے هےور بڑی بیشرمی سے اس کا قصور دوسرے طبقہ پر مڈھ دیتے ہیں اور شام سے موچھے مروڈتے گھومتے ہیں.
         سماج ان کی اصلیت جانتا ہے اور یہ بھی اچھی طرح سمجھتے ہیں کہ سماج انہیں کس نگاہ سے دیکھتا ہے. لوگ دبی زبان میں کہتے ہیں یہ اچھی بات نہیں ہے. لیکن یہ لوگ اس وقت کہاں تھے جب دوسرے طبقہ کے لوگوں کے ساتھ ایسا سلوک ہو رہا تھا؟ اب ادمكھور راکشس کو بلایا ہے تو اسے گوشت چاہیے ہی اس کا جب دل کرے گا وہ آپ کا خون پيےگا.
            ہو سکتا ہے کہ ان تمام باتوں کو ذہن میں رکھ کر ہی بھرت کو مسلک سیکولر ریاست بنانے کا عزم کیا گیا تھا لیکن ساری كوششے کے بعد بھی اگر ہم کامیاب نہیں ہوئے جو اس کی وجہ یہی ہے کہ ہم نے اس کی جڈو کے نہیں پہچانا جو جاتي نظام سے کھاد پانی لیتی ہے. اس لئے ترقی شيل اور جدید سماج بنانے کے لئے یہ ضروری ہے کہ ہم جاتي نظام کے وٹوركش کو جڈ سے اكھاڈ پھینکے تبھی وشےلے پھل پھول پیدا ہونے بند ہوں گے.
     
                             - امرناتھ 'میٹھی'

         
  
            

2 टिप्‍पणियां:

  1. jis samaj me bachche ke paida hote hi jati pati ghutti ke roop me pilayi jati hain vahan ye jahar kabhi khatm nahi ho sakta.nice presentation.तुम मुझको क्या दे पाओगे?

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  2. Aftab Fazil
    1994 में मुंबई में जब किसी ने अम्बेडकर की प्रतिमा के गले में जूते की माला लटका कर उनका अपमान किया था तो चारों ओर एक सांप्रदायिक हिंसा फैल गयी थी.

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