शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

जाएँ तो जाएँ कहाँ

  

           लो कर लो बात अगला बोलेगा तो बोलेंगें के बोलता है  नहीं बोलेगा  तो बोलेगें  कुछ बोलता क्यूँ नहीं है. मेरी ही सुनो  अव्वल तो बंदा  घर में बोलता नहीं है बोले तो कोई सुनता नहीं है.वैसे भी लड़का जवान हो गया है और वो कड़ी नजर से देखता है .इसलिए बंदा घर में चुप ही रहता है .बाहर मोहल्ले में बोलने पर पिटने का डर रहता है .शहर में सभा समितियों में अपनी बात सुनकर  हैं हैं सब करने लगते  हैं .वो मुझे उल्लू समझते हैं और मुझे  वो  गधे हैं ...हैं... काटजू साहब के शब्दों में  मूर्ख दिखाई देते हैं .इसलिए मैं घर बाहर  के मसलों से दूर रहकर राष्ट्रीय चिंतन किया करता हूँ.जिसे कोई मानने वाला तो है नहीं और उसके करने से मेरी सेहत पर भी कुछ दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है .लेकिन आदमी सामाजिक जीव है वो बिना खुद को अभिव्यक्त किये कैसे रह सकता है? .भला हो मार्क   जुकरबर्ग  भाई का उन्होंने फेस बुक बना दी जिस पर कहने सुनने की सबको सहूलियत है .बस जब से मुझे ये भाग्यवान   नसीब हुई है इसे दिलो   जान   से लगाए   हुए   हूँ .लिख कर कुछ देशसेवा,   समाजसेवा   जैसा   कुछ कर लेता   हूँ.[ ये सबसे आसान जो है ]  लेकिन जब से देश  सेवा  के बिग  बजारिया   आ  गाये  हैं अपना  खोका   हटा  लेने  की रोज  धमकियां  मिल  रहीं  हैं .पहले  अडौस  पडौस  के लोग    ही दिमाग  ठीक  करने  का मौका देखते थे  अब  गुजरात   महाराष्ट्र   तक  के डाक्टर  आकर  देख   लेने  का संदेसा   भेजने  लगे   हैं .सचमुच  देश सेवा बड़ी  हिम्मत का काम है .बड़ी  कठिन  है डगर  पनघट  की .मटकी  कभी  भी फुट  सकती  है .यहाँ  वैसे भी कच्ची मिट्टी के बने हैं . राष्ट्र सेवा पर उतारू राष्ट्र भक्त इस कार सेवा से  दूर ही रखना चाहते हैं .इसलिए तय कर  किया कि अब राष्ट्रीय नहीं अंतर्राष्ट्रीय चिंतन किया जाएगा .वसुधैव कुटुम्बकम . घर में कई नहीं सुनता मोहल्ला अपना नहीं समझता ,नगर बोलने नहीं देता ,देश  में जगह  कम है तो कुनबा परस्ती पूरी दुनिया में चलेगी .जब वसुधा यानी धरती एक कुटुंब है तो मुझे उसकी सेवा क्यूँ नहीं करनी चाहिए .अब तो वैसे भी वैश्वीकरण कि बात गली गली होने लगी है मेरे अन्तराष्ट्रीय चिंतन से भला किसी को क्या परेशानी हो सकती है . लेकिन पहला कदम रखते ही हम एक हैं का दम भरने वाले ही बिदक गए .उन्हें परेशानी थी कि जब हमारी लाल किताब में सब कुछ पहले से लिखा है तो  बाहर का रास्ता अलग से क्यूँ खोज जा रहा है ? किताब भी वैसी ही पढ़नी है  जैसे उन्होंने पढ़ राखी है .अब जिसे श और स का अंतर न पता हो जिसे ष के घुमाव का उच्चारण न आता हो वो किताब में लिखे हुए के सही मायने कैसे समझ सकता है ?  इसलिए जो कुछ उन्होंने समझ लिया है बस उतना समझाना ही काफी है अपनी नजर और दिमाग पर जोर डालने कि जरूरत नहीं है . डर तो यह था कि पाकिस्तान और चीन का एजेंट बताने वाले मुस्करायेंगें लेकिन यहाँ अभी सही क्रांतिकारियों से नो ओब्जेक्शन सर्टिफिकेट ही जारी नहीं हुआ है इसलिए कुछ कहने से पहले बहुत दुगना खतरा उठाना पड़ेगा वरना मंटों के सरहदी कुत्ते के जैसा हाल होते देर नहीं लगेगी .लेकिन अपनी हालत अब भी कौन सा अच्छी है .इसलिए चुप रहने से अच्छा है भौंकना. इसलिए ए मेरे कलम घिस्सु मन जब तक  दिल  में गुबार है दिमाग में गुस्सा है लिख, भोंक. और भोंक  भोंक कर उन सबकी नींद हराम कर दे जो चादर तानकर सोये हैं .अर्र ...र ...र... पत्थर ......आँऊ आँऊ ...  


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