रविवार, 12 मई 2013

विवादित राष्ट्रवंदना और मातृवंदना



                                              

                     वन्दे मातरम के ताजा विवाद के सन्दर्भ एक दो बातें रखना चाहूँगा .सच्चाई  ये  है  कि  हम  संवैंधानिक   बाध्यता  से  आबद्ध  होकर  केवल  परम्परा  का  निर्वाह  करते  हैं  .वन्दे मातरम रचा भले ही किसी उद्देश्य से गया हो लेकिन वह भारतीय देशभक्त बलिदानियों और जनता जनार्दन का कंठहार रहा है. इसलिए उसके प्रति  स्वत : ही सम्मान का भाव जगता है. हाँ  जन गण मन का ऐसा कोई इतिहास नहीं है,  न ही कोई ऐसा पवित्र  भाव है जिसके लिए उसे राष्ट्रगान का सम्मान दिया जाना उचित कहा जा सके लेकिन जब इसे संविधान में जगह मिली है तो जब तक उसका यह पवित्र मुकाम है, उसे सम्मान देना ही पड़ेगा और देना ही चाहिए .लेकिन राष्ट्रगान या राष्ट्र गीत पर विचार विमर्श को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है .अगर उस पर पुनर्विचार की जरूरत है तो विचार किया जाना चाहिए .खुले दिल से समस्त तर्कों और तथ्यों का संज्ञान लेते हुए संविधान में सशोधन कर नए राष्ट्र गान चुनाव हो सकता है .संविधान कोई कुरआन शरीफ नहीं है. उसमें अनेक सशोधन हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगें. इसलिए इस एक सशोधन से कोई आसमान नहीं टूट पड़ेगा .लेकिन यहाँ मुद्दा ये है ही नहीं .मुद्दा ये है कि मजहबे इस्लाम में इसे गैर इस्लामी काम माना जाता है इसलिए कुछ मुसलमान लोग इसे नहीं गाना  चाहते हैं .अब ऐसे लोगों को क्या  कहा जाए ? किसी को राष्ट्र गीत गाने  के लिए बाध्य  तो किया नहीं जा सकता है .लेकिन किसी को उसके प्रति असम्मान  प्रदर्शित  करने का हक़  भी नहीं दिया जा सकता है .जब इस्लाम ने  अल्लाह  के अलावा  किसी के भी सामने  सजदा  करने के लिए मन  कर दिया है तो फिर वन्दे मातरम हो या या कोई और गीत या वतन की कोई इबादत का कोई और तरीका उसका विरोध होगा .अगर उनके सारे काम  शरई  तौर  तरीके  से बिलकुल दुरुस्त  हों  तो विरोध जरूर  करें वरन  सबसे  अच्छा  ये होगा कि ऐसे  अवसर  से यथा  संभव  बचा  जाए . दीं के ज्यादा पक्के उसूल वालों को ऐसे दुनियावी कामों में नहीं पड़ना चाहिए .
यहाँ मैं अपने  से बात शुरू करता हूँ .मैं कवि  सम्मेलनों   और काव्य  गोष्ठियों  में  जाता हूँ.वहाँ  सरस्वती वंदना से कार्यक्रम  की शुरुआत  होती  है . और जैसा  कि सब  जानते  हैं वामपंथी अपने कार्यक्रमों में  सरस्वती  वंदना नहीं करते हैं . मैं भी नहीं करता हूँ .लेकिन मुझे सरस्वती वंदना की रस्म अदायगी से परहेज नहीं है. जो लोग करते हैं वो करें. मुझे शामिल होने के लिए कहा जाएगा तो मैं भी शामिल हो लूँगा .उससे मेरे कर्म नहीं बिगड़ते हैं .हमें  वंदना में नहीं कर्म में विश्वाश  है. वंदना जबान  हिलाने  का नाम  भर  है. कुछ लोगों को इतना कर लेने ही संतुष्टि मिल जाती है तो मिला करे .हम ऐसा करके भी कर्मरत रहा सकते हैं और खामोश रहकर भी अपना कर्त्तव्य पालन करते हैं .इसमें कोई दुविधा वाली बात नहीं है .ये अलग बात है कि कभी कभी बात समझ से बाहर हो जाती है .जैसे भरी दोपहरी में काव्य गोष्ठी हो रही है .पंखा ए सी चल रहें हैं फिर भी पसीना नहीं सूख रहा है .अब कार्यक्रम कि शुरुआत परम्परानुसार यूँ होती है .मुख्य अतिथि आयेंगें .सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण करेगें,दीपक प्रज्जविल्त किया जाएगा . जो अनेक बार  माचिस  की कई कई  तीलियाँ  फूंकने   पर भी नहीं जलेगा . क्यूंकि  गर्मी  से बचने  के लिए पंखा चल रहा होता है .फिर पंखा बंद  करके दीपक जलाया  जाएगा .उसके बाद  सरस्वती वंदना होगी  .
  अब भले आदमियों  से कोई पूछे  कि भरी दोपहरी में दीपक जलाने  का क्या  औचित्य  है ? मुशायरों  में शमां रौशन  की जाती है .कभी सोचा  है क्यूँ  की जाती है ? मुशायरे  ज्यदातर  रात को होते हैं .पहले रौशनी का साधन ये शमां ही होती थी .इसलिए रौशनी करने के लिए शमां जलाई जाती थी .परंपरा ये भी बनी कि जिस शायर को कलाम पढ़ना होता था शमां उसके आगे रख दी जाती थी .किस लिए ? इसलिए कि अगर वो अपना लिखा हुआ कलाम पढ़ना चाहे तो उसे देखने में आसानी हो और दूसरे सुनने वाले भी उसके हाव भाव रौशनी में अच्छी तरह देखकर उसके कलाम कि अदायगी का आनंद ले सकें .वहाँ शमां के प्रति एक सम्मान का भाव तो है लेकिन देवत्व  श्रद्धा की ऐसी  भावना  नहीं है जैसी  हमारे यहाँ सरस्वती के सम्मुख  दीपक प्रज्ज्वलन  से जुडी  है . एक जरूरत कैसे रूढ़ी और अन्धविश्वाश  में तब्दील हो जाती है यह इसका एक उदाहरण है
इस सन्दर्भ  में मुझे एक और बात या आ  गयी  है उसे भी शेयर  करना  चाहूँगा  . फेस  पर मेरे एक कवि  मित्र हैं .उनसे  मैंने  मित्रवत   कुछ निवेदन  किया .उनहोंने  कहा कि हाँ  हाँ  मैं जानता  हूँ तुम सरस्वती के पुत्र  हो .मैं उनकी बात  कुछ समझ  नहीं .मैंने  कहा हाँ  कुछ लिख  पढ़  लेता  हूँ .उनहोंने  कहा कि तुम सरस्वती की पूजा  करते हो मैंने  एक कार्यक्रम  में देखा  है . मैंने  कहा आपको  कुछ गलतफहमी  हुई  है .मैं मंचीय  कवि  नहीं हूँ .बहुत  कम  आता  जाता हूँ बल्कि  हकीकत  ये है कि बहुत  कम  बुलाया  जाता हूँ इसलिए मेरा  पूजा  का सवाल  ही नहीं उठता  .उन्हॊन्ने  कहा कि मैंने  तुम्हारा  फेसबुक  पर फोटो  देखा  है .मैंने  कहा देखा  होगा इससे  क्या  है ? उनहोंने  कहा कि नहीं ये बताओ  कि तुम सरस्वती के पुत्र  हो शूर्पनखा  के ? मैं शूर्पनखा  का पुत्र  हूँ तुम बताओ  किसके  हो ?
 मेरा   माथा   ठनक   गया. मैं समझ गया कि कट्टर अम्बेडकरवादी  से पाला पड़ा  है .मैं उनकी  प्रतिभा  का कायल  था लेकिन दोस्ती  के ल्लिये  झूठ  बोलना  पसंद  नहीं है .मैंने  स्पष्ट  कहा कि मैं न सरस्वती का पुत्र  हूँ और न शूर्पनखा  का ? मैं माँ  की पूजा  में नहीं सेवा  में यकीन  करता हूँ. पूजने  वालों ने तो सबको पत्थर समझ लिया है.मेरी माँ मेरी भावना को समझती है और मैं उसकी .वो पत्थर नहीं है .  और दूसरे  की माँ  सरस्वती है या शूर्पनखा  इसका  भेद भाव  मैं नहीं करता हूँ . मित्र खुश हुआ और उसने कहा मैं समझ गया  तुम हमारे मित्र हो.
    वो समझ गया लेकिन यहाँ ऐसे समझदारों कि कोई कमी नहीं है जो मुझे फ़ौरन ब्राहमणवादी कम्युनिष्ट घोषित कर देंगे. ये वो लोग हैं जो किसी भी तरह श्रमजीवियों की एकता को भंग करके अपनी सनातन शोषणकारी  व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं .दुर्भाग्य से ऐसे लोग क्षणिक सफल हो रहें हैं लेकिन उन्हें अपना अंजाम अच्छी तरह पता है .वे जमींदोज किये ही जायेंगे. ध्यान रहे अगर जनवादी ताकतें पिछड़ गयीं तो नीले, पीले, लाल, हरे तालिबानी आज नहीं तो कल अपना कब्ज़ा जमा ही लेंगे .कट्टर पंथियों का रंग कोई हो ढंग एक ही है. वो दूर से क्रांतिकारी दिख सकते हैं लेकिन नजदीक आने पर पता लगेगा कि वे आदम खोर हैं .इसलिए बेकार की बहसों में न उलझें और एक वाम लोकतांत्रिक विकल्प के लिए तैयारी करें.  इस काम के लिए .यह उपयुक्त समय है .  

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