बिहार में जनता दल यू और भाजपा का तलाक हुआ है गुजरात में शोक हो रहा है . जंह जंह कदम पड़े संतन के तंह तंह बंटाधार. मोदी को मीडिया रोज प्रधान मंत्री बनता है. मोदी का असर देखिये जिस राज्य में चुनाव प्रचार किया वहीँ से सफाया हो गया .एन डी ए की कमान संभालने भी न पाए थे कि सहयोगी लात मारकर निकल लिए . अब इसमें तीन साम्प्रदायिक पार्टियां बची हैं भाजपा , शिवसेना और अकाली दल . अब इनके गठबंधन को राष्ट्रीय कहना तो राष्ट्रीय भावना का अपमान करना होगा . ये सही मायने में साम्प्रदायिक दलों का गठबंधन है . इसलिए इसका नाम भगवा साम्प्रदायिक गठबंधन होना चाहिए .इसमें कुछ गलत भी नहीं है .साम्प्रदायिक शब्द को जिस अर्थ में सब लोग लेते हैं ये दल उसकी सही व्याख्या करते हुए ये कह सकते हैं कि हम उसी तरह साम्प्रदायिक हैं जिस तरह राम मार्गी और क्रश्नामार्गी बहकती शाखा के भक्त थे या पुराने दार्शनिक सम्प्रदाय और आज के सन्यासियों के सम्प्रदाय हैं . लेकिन साम्प्रदायिक मानसिकता के लोग स्वयं कि ही राष्ट्र समझते हैं और अपने रंग में पूरे राष्ट्र को रंगने के मसूबे रखते हैं इसलिए वे स्वयं को राष्ट्रीय कहते हैं .खैर उनके मानने कहने से राष्ट्र और राष्ट्रीयता के परिभाषा बदलने वाली नहीं है. उनके सिमटने की प्रक्रिया धीमी गति से जारी थी अब उनके मिट जाने की बारी है.
दूसरी और सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस अपने कुशासन के कारण जनता का विश्वास तेजी से खो रही है .आज भारत की राजनीति विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति में पहुँच गयी है जहां दोनों बड़े दलों और गठबन्धनों से जनता का विश्वास उठ गया है .यही कारण है कि अरविन्द केजरीवाल जैसे लोग इस शून्य को भरने का प्रयास करते हैं लेकिन वे ऐसा करने में सखम नहीं है. राजनीतिक शुन्यता का यह समय ही सबसे सुनहरा अवसर है जब वामपंथी मोर्चे को अपनी पूरी ताकत से जनता के सामने स्वयं को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए .इसी के साथ क्षेत्रीय दलों का संघीय मोर्चा भी अपने जन हितेषी एजेंदें के बल पर अपनी ताकत को बाधा सकता है .
थोड़े हौसले और सूझ बूझ की जरूरत है फिर बड़ी आसानी से कांग्रेस और भाजपा को धकियाकर वाम मोर्चा और संघीय मोर्चा उनके स्थान पर काबिज हो सकते हैं .आखिर वो जनता की आकांक्षाओं को स्वर देते हैं उनके हाथों में राष्ट्र की बागडोर होनी ही चाहिए .
हाँ नेतृत्व के सवाल पर उन्हें उलझाने की अटकाने की चौतरफा कौशिश जरूर होगी .जिसके लिए उन्हें एक स्वर से यह कहना होगा के वे सामूहिक नेतृत्व देंगे और उनके सारे निर्णय सामूहिक होंगे और केवल जिसकी सूचना मोर्चे के नामित संयोजक प्रेस को दिया करेंगे .आम चुनाव के बाद निर्वाचित जन प्रतिनिधियों द्वारा नेतृत्व का चुनाव किया जाएगा और सभी दलों के अध्यक्ष और प्रधान महासचिव को मिलाकर बनी समन्वय समिति द्वारा निर्धारित नीतियों को ही लागू किया जाएगा. व्यक्ति विशेष के रिमोट से संचालित राजनीति को समूह संचालित बनाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को परवान चढाने की जरूरत है .
بہار میں جنتا دل یوں اور بی جے پی کا طلاق ہوا ہے گجرات میں غم ہو رہا ہے. جه جه قدم پڑے ستن کے ته ته بٹادھار. مودی کو میڈیا روز وزیر اعظم بنتا ہے. مودی کا اثر دیکھئے جس ریاست میں انتخابی مہم کیا وہیں سے خاتمہ ہو گیا. این ڈی اے کی کمان سنبھالنے بھی نہ پائے تھے کہ اتحادی لات مار کر نکل لئے. اب اس میں تین مذہبی پارٹیاں بچی ہیں بی جے پی، شیو سینا اور اکالی دل. اب ان کے اتحاد کو قومی کہنا تو قومی جذبات کی توہین کرنا ہوگا. یہ صحیح معنوں میں مذہبی جماعتوں کا اتحاد ہے. اس لئے اس کا نام بھگوا فرقہ وارانہ اتحاد ہونا چاہئے. اس میں کچھ غلط بھی نہیں ہے. فرقہ لفظ کو جس کا مطلب میں سب لوگ لیتے ہیں یہ جماعتیں اس کی صحیح تشریح کرتے ہوئے یہ کہہ سکتے ہیں کہ ہم اسی طرح فرقہ پرست ہیں جس طرح رام مارگي اور كرشنامارگي بهكتي شاخ کے پرست تھے یا پرانے فلسفی فرقہ اور آج کے سنياسيو کے فرقہ ہیں. لیکن فرقہ پرست ذہنیت کے لوگ خود ہی کہ قوم سمجھتے ہیں اور اپنے رنگ میں پوری قوم کو رگنے کے مسوبے رکھتے ہیں اس لیے وہ خود کو قومی کہتے ہیں. ویسے ان کے ماننے کہنے سے قوم اور قومیت کے تعریف بدلنے والی نہیں ہے. ان کے سمٹنے کا عمل سست رفتار سے جاری تھی اب ان کے مٹ جانے کی باری ہے.
دوسری اور سب سے بڑی قومی پارٹی کانگریس اپنے اقتدار کے سبب عوام کا اعتماد تیزی سے کھو رہی ہے. آج بھارت کی سیاست وكلپهينتا کی ایسی حالت میں پہنچ گئی ہے جہاں دونوں بڑی پارٹیوں اور گٹھبندھنو سے عوام کا اعتماد اٹھ گیا ہے. یہی وجہ ہے کہ اروند کیجریوال جیسے لوگ صفر کو بھرنے کی کوشش کرتے ہیں لیکن وہ ایسا کرنے میں سكھم نہیں ہے. سیاسی شنيتا کا یہ وقت ہی سب سے سنہری موقع ہے جب بائیں بازو کے محاذ کو اپنی پوری طاقت سے عوام کے سامنے خود کو متبادل کے طور پر پیش کرنا چاہیے. اسی کے ساتھ علاقائی جماعتوں کا وفاقی مورچہ بھی اپنے عوام هتےشي اےجےدے کے بل پر اپنی طاقت کو رکاوٹ سکتا ہے.
تھوڑے حوصلے اور سوجھ بوجھ کی ضرورت ہے پھر بڑی آسانی سے کانگریس اور بی جے پی کو دھكياكر بایاں محاذ اور وفاقی مورچہ ان کی جگہ پر قابض ہو سکتے ہیں. آخر وہ عوام کی خواہشات کو سر دیتے ہیں ان کے ہاتھوں میں ملک کی باگ ڈور ہونی ہی چاہئے.
جی ہاں قیادت کے سوال پر انہیں شامل کرنے کی اٹكانے کی چوطرفہ كوشش ضرور ہوگی. جس کے لئے انہیں ایک سر سے یہ کہنا ہو گا کے وہ اجتماعی قیادت دیں گے اور ان کے تمام فیصلے اجتماعی ہوں گے اور صرف جس کی معلومات محاذ کے نامزد کنوینر پریس کو دیا کریں گے. عام انتخابات کے بعد منتخب عوامی نمائندوں کی طرف سے قیادت کا چناؤ کیا جائے گا اور تمام جماعتوں کے صدر اور وزیر سیکریٹری جنرل کو ملا کر بنی رابطہ کمیٹی کی طرف سے مقرر کی پالیسیوں کو ہی لاگو کیا جائے گا. افراد کے ریموٹ سے چلنے سیاست کو گروپ طاقت بنانے کی جمہوری عمل کو پروان چڈھانے کی ضرورت ہے.
Alpha

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