रविवार, 28 जुलाई 2013

'आओ साथी हम बतियाएं'


बहुत दिनों मुँह रहे फुलाए
थोडा सा भी न मुस्काये
भोहें अब तक तनी हुई हैं
मुट्ठी भी हाँ भिंची हुई है
              अंग अंग अपने  फड़काये
              आओ साथी हम बतियाएं .

क्या थी बात विवाद रहा क्या
अब तक ये भी याद रहा क्या 
आखिर ऐसी क्या मजबूरी
अब तक बनी हुई है दूरी
                किस्सा क्या है जिसे सुनाएँ
                आओ साथी हम बतियाएं .

थी कुछ राजनीति की बातें
बता रहे थे हम औकातें
किस्सा भी कुछ ख़ास नहीं था
ऐसा भी परिहास नहीं था
                 जिसको दिल से रहें लगाएं
                  आओ साथी हम बतियाएं .------अमरनाथ 'मधुर' 

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