सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

महिषासुर और दुर्गा



 

ये भी जानना जरूरी है :-----------------

१-संजीव कुमार यादव/प्रमोद रंजन 
अक्टूबर, 20111 में प्रेमकुमार मणि ने 'फारवर्ड प्रेस' की कवर स्टोरी 'किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन' में अनेक विचारोत्तेजक सवाल उठाते हुए कहा था कि बंगाल की वेश्याएँ दुर्गा को अपने कुल का बताती हैं। जिस महिषासुर की दुर्गा ने हत्या की, वह भारत के (यादव) बहुजन तबके का था। इस प्रसंग को आदिवासी मामलों के जानकार लेखक अश्विनी कुमार पंकज ने फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2012 अंक में आगे बढाया और महिषासुर को आदिवासी बताया. आज जब उत्तर भारत के कई शहरों में महिषासुर शहादत दिवस मनाए जाने की सूचना आ रही है, तो यह आवश्यक हो जाता है कि इस आयोजन के प्रस्तोताओं के मूल तर्कों को समझा जाए. प्रेमकुमार मणि का उपरोक्त लेख विभिन्न वेबसाइटों पर उपलब्ध है, जिसे आप गुगल करके खोज सकते हैं. अश्विनी कुमार पंकज का यह लेख वेब पर अभी तक उपलब्ध नहीं था. बहरहाल, इस विजयादशमी पर अगर मेले-ठेलों से आपको फुरसत हो, तो यह पूरा लेख पढिए और 'असुर' जनजाति के दर्द को समझने की कोशिश कीजिए :

देखो मुझे, महाप्रतापी महिषासुर की वंशज हूं मैं
-अश्विनी कुमार पंकज
विजयादशमी, दशहरा या नवरात्रि का हिन्दू धार्मिक उत्सव, असुर राजा महिषासुर व उसके अनुयायियों के आर्यों द्वारा वध और सामूहिक नरसंहार का अनुष्ठान है। समूचा वैदिक साहित्य सुर-असुर या देव-दानवों के युद्ध वर्णनों से भरा पड़ा है। लेकिन सच क्या है ? असुर कौन हैं? और भारतीय सभ्यता, संस्कृति और समाज-व्यवस्था के विकास में उनकी क्या भूमिका रही है?

इस दशहरा पर, आइये मैं आपका परिचय असुर वंश की एक युवती से करवाता हूं।

वास्तव में, सदियों से चले आ रहे असुरों के खिलाफ हिंसक रक्तपात के बावजूद आज भी झारखंड और छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में 'असुरों' का अस्तित्व बचा हुआ है। ये असुर कहीं से हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित 'राक्षस' जैसे नहीं हैं। हमारी और आपकी तरह इंसान हैं। परंतु 21 वीं सदी के भारत में भी असुरों के प्रति न तो नजरिया बदला है और न ही उनके खिलाफ हमले बंद हुए हैं। शिक्षा, साहित्य, राजनीति आदि जीवन-समाज के सभी अंगों में 'राक्षसों' के खिलाफ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण का ही वर्चस्व है।

भारत सरकार ने 'असुर' को आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा है। अर्थात् आदिवासियों में भी प्राचीन। घने जंगलों के बीच ऊंचाई पर बसे नेतरहाट पठार पर रहने वाली सुषमा इसी 'आदिम जनजाति' असुर समुदाय से आती है। सुषमा गांव सखुआपानी (डुम्बरपाट), पंचायत गुरदारी, प्रखण्ड बिशुनपुर, जिला गुमला (झारखंड) की रहने वाली है। वह अपने आदिम आदिवासी समुदाय असुर समाज की पहली रचनाकार है। यह साधारण बात नहीं है। क्योंकि वह उस असुर समुदाय से आती है जिसका लिखित अक्षरों से हाल ही में रिश्ता कायम हुआ है। सुषमा इंटर पास है पर अपने समुदाय के अस्तित्व के संकट को वह बखूबी पहचानती है। झारखंड का नेतरहाट, जो एक बेहद खूबसूरत प्राकृतिक रहवास है असुर आदिवासियों का, वह बिड़ला के बाक्साइट दोहन के कारण लगातार बदरंग हो रहा है। आदिम जनजातियों के लिए केन्द्र और झारखंड के राज्य सरकारों द्वारा आदिम जनजाति के लिए चलाए जा रहे विशेष कल्याणकारी कार्यक्रमों और बिड़ला के खनन उद्योग के बावजूद असुर आदिम आदिवासी समुदाय विकास के हाशिए पर है। वे अघोषित और अदृश्य युद्धों में लगातार मारे जा रहे हैं। वर्ष 1981 में झारखंड में असुरों की जनसंख्या 9100 थी जो वर्ष 2003 में घटकर 7793 रह गई है। जबकि आज की तारीख में छत्तीसगढ़ में असुरों की कुल आबादी महज 305 है। वैसे छत्तीसगढ़ के अगरिया आदिवासी समुदाय को वैरयर एल्विन ने असुर ही माना है। क्योंकि असुर और अगरिया दोनों ही समुदाय प्राचीन धातुवैज्ञानिक हैं जिनका परंपरागत पेशा लोहे का शोधन रहा है। आज के भारत का समूचा लोहा और स्टील उद्योग असुरों के ही ज्ञान के आधार पर विकसित हुआ है लेकिन उनकी दुनिया के औद्योगिक विकास की सबसे बड़ी कीमत भी इन्होंने ही चुकायी है। 1872 में जब देश में पहली जनगणना हुई थी, तब जिन 18 जनजातियों को मूल आदिवासी श्रेणी में रखा गया था, उसमें असुर आदिवासी पहले नंबर पर थे, लेकिन पिछले डेढ़ सौ सालों में इस आदिवासी समुदाय को लगातार पीछे ही धकेला गया है।

झारखंड और छत्तीसगढ़ के अलावा पश्चिम बंगाल के तराई इलाके में भी कुछ संख्या में असुर समुदाय रहते हैं। वहां के असुर बच्चे मिट्टी से बने शेर के खिलौनों से खेलते तो हैं, लेकिन उनके सिर काट कर। क्योंकि उनका विश्वास है कि शेर उस दुर्गा की सवारी है, जिसने उनके पुरखों का नरसंहार किया था।

बीबीसी की एक रपट में जलपाईगुड़ी ज़िले में स्थित अलीपुरदुआर के पास माझेरडाबरी चाय बागान में रहने वाले दहारू असुर कहते हैं, महिषासुर दोनों लोकों- यानी स्वर्ग और पृथ्वी, पर सबसे ज्यादा ताकतवर थे। देवताओं को लगता था कि अगर महिषासुर लंबे समय तक जीवित रहा तो लोग देवताओं की पूजा करना छोड़ देंगे। इसलिए उन सबने मिल कर धोखे से उसे मार डाला। महिषासुर के मारे जाने के बाद ही हमारे पूर्वजों ने देवताओं की पूजा बंद कर दी थी। हम अब भी उसी परंपरा का पालन कर रहे हैं।

सुषमा असुर भी झारखंड में यही सवाल उठाती है। वह कहती है, मैंने स्कूल की किताबों में पढ़ा है कि हमलोग राक्षस हैं और हमारे पूर्वज लोगों को सताने, लूटने, मारने का काम करते थे। इसीलिए देवताओं ने असुरों का संहार किया। हमारे पूर्वजों की सामूहिक हत्याएं की। हमारे समुदाय का नरसंहार किया। हमारे नरंसहारों के विजय की स्मृति में ही हिंदू लोग दशहरा जैसे त्योहारों को मनाते हैं। जबकि मैंने बचपन से देखा और महसूसा है कि हमने किसी का कुछ नहीं लूटा। उल्टे वे ही लूट.मार कर रहे हैं। बिड़ला हो, सरकार हो या फिर बाहरी समाज हो, इन सभी लोगों ने हमारे इलाकों में आकर हमारा सबकुछ लूटा और लूट रहे हैं। हमें अपने जल, जंगल, जमीन ही नहीं बल्कि हमारी भाषा-संस्कृति से भी हर रोज विस्थापित किया जा रहा है। तो आपलोग सोचिए राक्षस कौन है।
यहां यह जानना भी प्रासंगिक होगा कि भारत के अधिकांश आदिवासी समुदाय 'रावण' को अपना वंशज मानते हैं। दक्षिण के अनेक द्रविड़ समुदायों में रावण की आराधना का प्रचलन है। बंगाल, उड़ीसा, असम और झारखंड के आदिवासियों में सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय 'संताल' भी स्वयं को रावण वंशज घोषित करता है। झारखंड-बंगाल के सीमावर्ती इलाके में तो बकायदा नवरात्रि या दशहरा के समय ही 'रावणोत्सव' का आयोजन होता है। यही नहीं संताल लोग आज भी अपने बच्चो का नाम 'रावण' रखते हैं। झारखंड में जब 2008 में 'यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस', यूपीए) की सरकार बनी थी संताल आदिवासी समुदाय के शिबू सोरेन जो उस वक्त झारखंड के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने रावण को महान विद्वान और अपना कुलगुरु बताते हुए दशहरे के दौरान रावण का पुतला जलाने से इंकार कर दिया था। मुख्यमंत्री रहते हुए सोरेन ने कहा था कि कोई व्यक्ति अपने कुलगुरु को कैसे जला सकता है, जिसकी वह पूजा करता है, गौरतलब है कि रांची के मोरहाबादी मैदान में पंजाबी और हिंदू बिरादरी संगठन द्वारा आयोजित विजयादशमी त्योहार के दिन मुख्यमंत्री द्वारा ही रावण के पुतले को जलाने की परंपरा है। भारत में आदिवासियों के सबसे बड़े बुद्विजीवी और अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वान स्व. डा. रामदयाल मुण्डा का भी यही मत था।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ आदिवासी समुदाय और दक्षिण भारत के द्रविड़ लोग ही रावण को अपना वंशज मानते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूं के मोहल्ला साहूकारा में भी सालों पुराना रावण का एक मंदिर है, जहां उसकी प्रतिमा भगवान शिव से बड़ी है और जहां दशहरा शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी तरह इंदौर में रावण प्रेमियों का एक संगठन है, लंकेश मित्र मंडल। राजस्थान के जोधपुर में गोधा एवं श्रीमाली समाज वहां के रावण मंदिर में प्रति वर्ष दशानन श्राद्ध कर्म का आयोजन करते हैं और दशहरे पर सूतक मानते हैं। गोधा एवं श्रीमाली समाज का मानना है कि रावण उनके पुरखे थे व उनकी रानी मंदोदरी यहीं के मंडोरकी थीं। पिछले वर्ष जेएनयू में भी दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्ग के छात्रों ने ब्राह्मणवादी दशहरा के विरोध में आयोजन किया था।
सुषमा असुर पिछले वर्ष बंगाल में संताली समुदाय द्वारा आयोजित श्रावणोत्सव्य में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुई थी। अभी बहुत सारे लोग हमारे संगठन झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखडा को अप्रोच करते हैं सुषमा असुर को देखने, बुलाने और जानने के लिए। सुषमा दलित-आदिवासी और पिछड़े समुदायों के इसी सांस्कृतिक संगठन से जुड़ी हुई है। कई जगहों पर जा चुकी और नये निमंत्रणों पर सुषमा कहती है, 'मुझे आश्चर्य होता है कि पढ़ा-लिखा समाज और देश अभी भी हम असुरों को ई सिरों, बड़े-बड़े दांतो-नाखुनों और छल-कपट जादू जानने वाला जैसा ही राक्षस मानता है। लोग मुझमे राक्षस ढूंढते हैं, पर उन्हें निराशा हाथ लगती है। बड़ी मुश्किल से वे स्वीकार कर पाते हैं कि मैं भी उन्हीं की तरह एक इंसान हूं। हमारे प्रति यह भेदभाव और शोषण-उत्पीडऩ का रवैया बंद होना चाहिए। अगर समाज हमें इंसान मानता है तो उसे अपने सारे धार्मिक पूर्वाग्रहों को तत्काल छोडऩा होगा और सार्वजनिक अपमान व नस्लीय संहार के उत्सव विजयादशमी को राष्ट्रीय शर्म के दिन के रूप में बदलना होगा।'

( यह लेख फारवर्ड प्रेस के अक्टूरबर, 2012 अंक में छपा है। फॉरवर्ड प्रेस भारत की पहली संपूर्ण अंग्रेजी–हिंदी मासिक पत्रिका है जो भारत के दलित और पिछड़े वर्ग पर एक नजरिया प्रदान करती है। फारवर्ड प्रेस से संबंधित किसी भी प्रकार की जानकारी प्राप्त करने के लिए अपने फोन नंबर के साथ इस पते पर ईमेल कर सकते हैं :info@forwardpress.in )
                                 ---------प्रमोद रंजन 
2-अवज्ञा  अमरजीत  गुप्ता 
एक देश था.. बड़ा अच्छा सा नाम था.. चलिये भारत रख लेते है/ वहाँ एक जनजाति रहती थी.. सीधी-साधी, मेहनतकश पर कबीलोँ मेँ बँटी हुई.. गाय-भैँस पालते थे... नाम? इनका नाम असुर या राक्षस रख देते है... वैसे असुर और राक्षस मेँ जरा अंतर है। असुर कबीलोँ के आम नागरिक होते थे जबकि राक्षस असुरोँ का वह समुदाय जो रक्षा करता था अर्थात रक्षक दल। यही शब्द अपभ्रंशित होकर राक्षस हो गया.. इसी तरह असुर पहले अहुर... फिर अहीर बना ...और इस जाति के यौध्दा ही यादव कहलाये/

एक बर्बर, हिँसक, कुटिल जाति बाहर से आयी। रंग के गोरे, सुवर्ण अर्थात सवर्ण, सुर ब्राह्मण या आर्य कुछ भी कह लीजिये। इन्होँने एक एक कर कई कबीलोँ पर आक्रमण किया और एक बड़ेँ भूक्षेत्र को अपने कब्जे मेँ ले लिया। ऐसे मेँ असुरोँ के एक कबीले के एक बलशाली और पराक्रमी सरदार.. (नाम मेँ क्या रखा है महिषासुर मान लीजिये..) ने सभी कबीलोँ के रक्षक दलोँ को संगठित कर एक विशाल सेना बनाई जिसे राक्षस सेना कहा गया और सवर्ण जाति पर हमला कर दिया सवर्ण जातियाँ इस संगठित रक्षक दल के सामने टिक नहीँ पायी और बुरी तरह पराजित हुई। एक ओर जहाँ असुरोँ ने महिषासुर के नेतृत्व मेँ अपनी संगठित शक्ति को पहचाना.. वहीँ दूसरी ओर संघर्ष मेँ बड़ी संख्या मेँ मारे गये अपने सगे संबंधियोँ के कारण सवर्णो मेँ श्राध्द व पिण्डदान का कार्य किया जा रहा था.. यही नवरात्रोँ से पूर्व श्राध्द के रिवाज मेँ आज भी जीवित है../

यह भान होने पर कि असुरोँ की संगठित शक्ति को बल से जीतना संभव नहीँ, छल और कुटिलताओँ का सहारा लिया गया। एक सवर्ण और रूपमती स्त्री को इस्तेमाल किया गया, जिसने महिषासुर को अपने प्रेम मेँ आसक्त कर लिया.. जो विषयोँ मेँ आसक्त कर देने वाली स्त्री समुदाय- "विषया" से थी यही शब्द अपभ्रंशित होकर वैश्या बना.. इसी कारण वैश्यालय के आंगन की मिट्टी के बिना देवी की प्रतिमा पूर्ण नहीँ मानी जाती../

वह 9 दिनोँ तक महिषासुर के दुर्ग मेँ रही.. और हर रात उसे मारने का प्रयास करती रही.. जैसे-जैसे रात आती ब्राह्मण, सुर,आर्य, सवर्ण उसकी सफलता की कामना करते और उसके लिये प्रार्थना करते यही नवरात्रोँ का रात्रि-पूजन है/

नौवीँ रात्रि को सवर्णो को स्पष्ट संदेश मिल चुका था कि उस रात महिषासुर की हत्या अवसर मिलते ही कर दी जायेगी.. सोँ सवर्ण सारी रात उसकी सफलता की कामना की प्रार्थना और आक्रमण का इंतजार करते रहे.. यही निशा पूजन का मूल है/

आखिरकार नवेँ दिन की देर रात पराक्रमी और न्यायप्रिय महिषासुर की छलपूर्वक उस स्त्री द्वारा हत्या कर दी गई... महिषासुर की हत्या के समाचार के साथ ही सवर्णोँ ने असुरोँ पर रात्रि मेँ ही आक्रमण कर दिया। नेतृत्व के अभाव मेँ असुर पराजित हुये और सवर्ण विजयी../.

असुरोँ के दुर्ग को फतह करने मेँ निर्णायक भूमिका के कारण उसे स्त्री को दुर्गा कहा गया.. चूंकि इससे पूर्व पार्वती नाम की एक अन्य सवर्ण कन्या ने एक शक्तिशाली असुर सरदार 'शिव' से विवाह कर असुर शक्ति को कमजोर किया था सोँ इसे पार्वती का रूप माना गया../

सवर्णो की बर्बर कार्रवाहियोँ मेँ बड़ी संख्या मेँ असुर बस्तियाँ जला दी गयी.. आम असुर नागरिकोँ को निशाना बनाया गया.. औरतोँ का बलात्कार किया गया और बड़े पैमाने पर बच्चोँ को भी मौत के घाट उतार दिया गया../

इन बर्बर कार्रवाहियोँ से घृणा और आत्मग्लानि से व्यथित, उस स्त्री जिसे दुर्गा कहा गया था.. नदी मेँ कूदकर आत्महत्या कर ली.. 
जिसे विसर्जन का रूप देकर सवर्णो द्वारा महिमामंडित कर दिया गया...
                                ----------अवज्ञा  अमरजीत  गुप्ता 

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