रविवार, 8 दिसंबर 2013

महेन्द्र नेह के पद


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साधों, मिलीजुली ये कुश्ती ।
लोकतंत्र की ढपली ले कर करते धींगामुश्ती ।।

जनता की मेहनत से बनती अरबों-खरबों पूंजी ।
उसे लूट कर बन जाते हैं, चन्द लुटेरे मूँजी ।।

उन्ही लुटेरों की सेवा में रहते हैं ये पंडे ।
जनता को ताबीज बाँटते कभी बाँटते गंडे ।।

इनका काम दलाली करना धर्म न दूजा इनका ।
भले लुटेरा पच्छिम का हो या उत्तर-दक्खिन का ।।

धोखा दे कर वोट मांगते पक्के ठग हैं यारों ।
इनके चक्रव्यूह से निकलो नूतन पंथ विचारो ।।

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० महेन्द्र नेह

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