शनिवार, 18 जनवरी 2014

ईमानदारी और सचरित्रता

               आज सादगी और ईमानदारी की मिसालें खोज खोज कर लायी जा रही हैं .वामपंथियों ने माणिक सरकार का नाम दिया तो दक्षिणपंथियों ने मनोहर पारिकर का नाम आगे कर दिया .ममता दी तो अपनी साड़ी और हवाई चप्पल के लिए ख्यात थी ही अब केजरीवाल ने भी ईमानदारी और सादगी का झंडा लहरा दिया है . देश जब डी राजा,मधु कोड़ा और येद्दुरप्पा के भ्रष्टाचार की सड़ांध से गंधा रहा हो तब इनका आना सड़ी गर्मी में शीतल सुगन्धित झोकों की तरह लगता है. लेकिन तब भी मन में कुछ शंका पैदा होती है. आज जब देश में मंहगाई के कारण अच्छी खासी तनख्वाह वालों को भी गुजर बसर में परेशानी होती है तब एक मुख्यमंत्री माणिक सरकार किस प्रकार पांच हजार रुपये माहवार में अपने घर का खर्चा चला सकते हैं ?
क्या यह संभव है कि एक मुख्यमंत्री जिससे मिलने के लिए रोज हजारों लोग आते हों वो पाँच हजार रुपये में अपना खर्च चला ले ? पाँच हजार रुपये में तो एक विधायक चाय पिलाने का खर्च भी पूरा नहीं कर सकता है. इसलिए ये तो बिलकुल ही अव्यवहारिक लगता है कि कोई पाँच हजार रुपये में अपना खर्च पूरा कर सकता है .
अब रही बात छोटे आवास में रहने की. अगर बात सिर्फ किसी नेता के अपने या अपने परिवार के सोने मात्र की हो तो वो जरूर दो कमरों में अपना काम चला सकता है लेकिन अगर पार्टी कार्यकर्ताओं और आम जन के लिए भी आवश्यक सुविधाओं की समुचित व्यवस्था की जाए तो कदापि किसी नेता का दो कमरों के मकान में काम नहीं चलने वाला है .फिर किसी मुख्यमंत्री या मंत्री से ये अपेक्षा करना कि वह दो कमरों के मकान में ही रहे खुद उसके लिए ही नहीं आम जनता के लिए भी गैर मुनासिब होगा.
वैसे चिंतन का विषय यह होना चाहिए कि ईमानदारी और सचरित्रता क्या है ? क्या शोषण पर टिकी हुई व्यवस्था की बिना राग द्वेष के सेवा करना ही सचरित्र और ईमानदार होना है या उस व्यवस्था को उलटकर समता और न्याय पर आधारित व्य्वस्था को कायम करने के लिए प्राणप्रण से लड़ना ईमानदारी है? सचरित्रता को नैतिकता और कामाचार के पारम्परिक सामाजिक आईने में देखे जाने से पूर्व और उन आईनों पर जमी धूल को भी साफ़ कर लेना जरुरी है और अगर आईना अँधा हो तो उसे भी बदल लेने में कोई हर्ज नहीं है. अब बाजार में नए आईने आ गए हैं जो पहले से कहीं बेहतर हैं .


           दिल्ली विधान सभा चुनाव के नतीजों को लेकर जहाँ आम आदमी उत्साहित हैं और देश के दोनों बड़े राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस चिंतित हैं वहीँ कुछ बुद्धिजीवी इसे बहुत गम्भीरता से लेना जल्दबाजी करार दे रहें हैं l लेकिन उनका ऐसा सोचना सही नहीं है. इस चुनाव के निहितार्थ बहुत गहरे हैं .सबसे पहले तो इस चुनाव ने ये साबित कर दिया है कि आम जनता देश मुख्य राजनीतिक दलों और गठबंधनों से आजिज आ चुकी है .इसलिए अगर उसके सामने कोई विकल्प प्रस्तुत किया जाता है तो वो उसे सर माथे पर लेगी.
दूसरी बात ये भी स्पष्ट हो गयी है कि देश में तीसरा मोर्चा और चौथा मोर्चा जिसे कुछ दिन पहले संघीय मोर्चा कहा जा रहा था खड़ा किया जा सकता है.
तीसरी बात ये भी स्पष्ट हो गयी है कि मध्यममार्गी और क्षेत्रीय दलों को नेतृतव के जिस संकट का सामना करना पड़ रहा था अरविन्द केजरीवाल उस कमी को पूरा करने में सक्षम हैं. आम आदमी पार्टी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस. किशन पटनायक और अन्य प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं को लेकर एक चौथा मोर्चा जिसे संघीय मोर्चा या पब्लिक फ्रंट कहा जा सकता है, खड़ा किया जा सकता है.
चौथी और महत्वपूर्ण बात ये है कि यदि वामपंथी पार्टियों को अपनी प्रासंगिकता बनाये रखनी है तो उन्हें अपनी अगुवाई में व्यापक वाम महासंघ या धर्मनिरपेक्ष दलों का तीसरा मोर्चा खड़ा करना होगा . इसके लिए उन्हें आत्मविश्वाश और साहस दिखाना होगा तथा अवसरवादी क्षेत्रीय दलों के दबाव को नकारना होगा.अगर वो ऐसा कर सके तो देश की राजनीति भाजपा और कांग्रेस केंद्रित न होकर वाम मोर्चे और संघीय मोर्चे के इर्द गिर्द होगी.
लोगों को ये बातें दिवा स्वप्न लगेगी लेकिन जनता जिस तरह के फैसले सुना रही है अगर ईमानदार नेता साहस से निर्णय लें तो ये सारे सपने सच हो सकते हैं.फैसले करने में हौसले की कमी हमारे राजनीतिक सूरमाओं में है जनता में नहीं है. दिल्ली के चुनाव यही सबक देते हैं .

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