बुधवार, 18 जून 2014

राज्यपालों की नियुक्ति और पदमुक्ति

   एन डी टी वी पर राज्यपालों की नियुक्ति और पदमुक्ति पर बहस को सुना . एंकर  रवीश कुमार तो काबिल हैं ही लेकिन बहस में अन्य बड़े काबिल लोग भी थे, जो क़ानून और संविधान के बड़े जानकार थे .जैसे विख्यात संविधानविद सुभाष कश्यप  जी. उन्होंने बताया कि राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और उनकी अनुकम्पा रहने तक ही कोई व्यक्ति राज्यपाल के पद पर रह सकता है .अगर अनुकम्पा नहीं है तो उसे हट जाना चाहिए नहीं तो उसे हटाया भी जा सकता है ,यह कार्यवाही पूरी तरह  संविधान सम्मत है.सुप्रीम कोर्ट ने  भी कहा है कि  उन्हें हटाया जा सकता है और हटाने के लिए कारण बताना भी जरुरी नहीं है, यद्यपि कारण होना चाहिए .
 उन्होंने दो बातें जोर देकर कही. पहली यह कि राष्ट्रपति  की अनुकम्पा का अर्थ केंद्रीय मंत्रिमंडल की संस्तुति  है .दूसरी बात ये भी उन्होंने जोर देकर कही कि हटाये जाने वाले राज्यपाल को जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने नवीनतम फैसले में कहा है, कारण बताया जाना जरुरी नहीं है .
  यहाँ एक बात को बड़ी ही चतुराई से छुपाया जा रहा है वो ये कि कोर्ट ने कहा है कि कारण बताना जरुरी नहीं है लेकिन कोर्ट ने  ये कहीं नहीं कहा है कि कारण न बताया जाए .सामान्य तौर पर सार्वजनिक रूप से हटाने का  बताया जाना चाहिए कि किसी को किसी पद से आप क्यों हटा रहें हैं ? हाँ अगर ऐसा कोई गंभीर कारण है जिसे तत्काल सार्वजनिक रूप से बताया जाना जनहित या राष्ट्रहित में नहीं है तो उसे न बताया जाए. लेकिन अगर कोर्ट में हटाये जाने के निर्णय को चुनौती दी  जाए तो कोर्ट को अवश्य ही बताया जाए और ये कोर्ट को तय करना चाहिए उस कारण को सर्व साधारण को बताया जाए या नहीं . आप किसी को अपने अधिकार  से नियुक्त तो कर सकते हैं लेकिन उसके बाद उसे  भी कुछ अधिकार मिल जाते  हैं.उसे भी पद धारण करते ही पद की गरिमा का निर्वाह करना होता है इसलिए किसी को मनमाने तरीके से हटाकर उस पद की गरिमा और उस व्यक्ति के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचाई जा सकती है .
           जहाँ तक राष्ट्रपति की अनुकम्पा का प्रश्न है वह भले ही केंद्रीय सरकार (जो किसी दल विशेष की ही सरकार होती है)की अनुशंसा  होती हो लेकिन वह  उस दल विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. कहा गया है कि राष्ट्रपति का विश्वाश प्राप्त होने तक ही राज्यपाल बना रहा जा सकता है. मतलब कि अगर केंद्र में बी पार्टी की सरकार है तो अगर बी पार्टी को राज्यपाल पर विश्वाश  नहीं है तो राज्यपाल को पद त्याग कर देना चाहिए या अगर उन्हें पद मुक्त कर दिया जाए तो कुछ असवैंधानिक नहीं होगा. इसका मतलब ये हुआ कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के भक्त ही राज्यपाल रहेंगे .संविधान में ऐसा तो कहीं न लिखा होगा और न राज्यपाल का पद इतना तुच्छ है  कि उसकी कोई संवैधानिक मर्यादा ही न हो .
 राज्यपाल केंद्र का राज्य में प्रतिनिधि है सत्तारूढ़ दल का नहीं जैसा कि समझ जा रहा है .वह संघीय ढाँचे को मजबूत और स्थिर रखने के लिए है केंद्र में सत्तारूढ़ दल के हाथों की कठपुतली बनकर कार्य करने के लिए नहीं है, जैसा कि होता आया है . लेकिन जैसा होता आया है वैसा  ही होने वाला है. राजभवनों को वृद्ध राजनेताओं का आरामगाह बना दिया गया है .इसलिए बहुत लोग चाहते हैं कि राज्यपाल पद को  दलगत राजनीति में लिप्त नेताओं से मुक्त किया जाए .यह बहुत अच्छा विचार नहीं है. इसका व्यवहारिक तात्पर्य यही लिया जाता है कि  रिटायर नौकरशाहों ,जजों. या अन्य विशिष्ट या गैर विशिष्ट व्यक्तियों जो फिल्मकार, खिलाड़ी, उद्योगपति या राजनेताओं के हम प्याला हम निवाला दोस्त हो सकते हैं  को राज्यपाल बना दिया जाए .  ऐसी विशिष्ट प्रतिभा वाले लोगों का राज्यपाल बनाना कुछ बहुत बुरा तो नहीं है लेकिन अगर एक राजनेता, संविधानविद ही इस पद पर रहे तो ज्यादा उपयुक्त रहेगा. हाँ ये जरूर है कि पद पर रहते हुए उसे निष्पक्ष रहकर कार्य करना चाहिए.
जहाँ तक केंद्र सरकार के भरोसे में रहने की बात है तो यह उतना जरूरी नहीं है जितना जनता और संविधान के भरोसे में रहना है. केंद्र सरकार अगर इस कारण से किसी को राज्यपाल पद से हटाती है कि वह उसके विरोधी  राजनतिक दल का सदस्य रहा है तो फिर इस आधार पर वह राष्ट्रपति को भी अस्वीकार कर सकती है क्योंकि वह भी उनके विरोधी दल के सदस्य रहे हैं.
 आज की बहस में भाजपा के अमिताभ सिन्हा बहुत ही अच्छे वक्ता रहे .उन्होंने रवीश की बोलती बंद कर दी और जैसा कि रवीश कि आदत है वह उनके चिकोटी नहीं काट पाये. रवीश अच्छा बोलते हैं अच्छा सोचते हैं लेकिन उनकी यह आदत मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं है कि वे स्वयं तो बिना रुके लम्बा वक्तव्य देते हैं फिर लम्बे सवाल करते हैं और जब सामने वाला जबाब देने लगता है तो उससे बीच में ही प्रति प्रश्न करते हैं और उसे अनावश्यक रूप से मजाकिया अंदाज में टोकते भी रहते हैं .वे स्वयं एक गंभीर बहस को अगम्भीर बना देते हैं और हमेशा कुछ ख़ास लोगों को हास्य का पात्र बनाने की कौशिश करते रहते हैं जबकि वो भी इतने मंजे हुए होते हैं कि उन इसका पर रत्ती  भर फर्क नहीं पड़ता है और अगर वो संघ का स्वयंसवेक है तो बिलकुल नहीं विचलित होता है .हाँ बुक्कल नबाब  या शकील अहमद साहब जैसे वक्ता हों तो बात अलग है क्योंकि वो तो स्वयं ही अपनी हरकतों से हँसी के पात्र बने रहते हैं .
 खबरें आ रही हैं कि कुछ बूढ़े भाजपाई नेताओं को राज्यपाल बनाया जाएगा. ये वो नेता हैं जिन्होंने नमो के कहने पर चुनाव न लड़ने  की क़ुरबानी दी है .एक प्रकार से उन्होंने सत्ता के प्रति मोह नहीं दिखाया है .क्या ही अच्छा होता कि वे अब भी राजभवन में जाने से मना कर देते और  नानाजी देशमुख की तरह  संघ के एजेंडें को मूर्तरूप देने का कोई सम्मान जनक मार्ग चुनते. अगर चुनाव न लड़कर पीछे के रास्ते से राजभवन में जाकर बैठ जाते हैं तो वह भी सत्ता सुख का भोग ही कहायेगा न ? उसे आप त्याग तो नहीं कहेंगे ?      
    

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