रविवार, 22 मार्च 2015

संविधान,न्याय व्यवस्था और मनुष्य के नैसर्गिक अधिकार


     यूँ तो हर देश का अपना संविधान और न्याय व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत वहाँ के नागरिकों के कुछ मूलभूत अधिकारों प्रदान किये गए है और अगर किसी कारण से किसी नागरिक के अधिकारों पर ऑंच आती है तो वह न्याय व्यवस्था से न्याय की गुहार कर सकता है लेकिन विडम्बना ये है कि कुछ देशों ने कुछ तो वैसे ही बहुत कम अधिकार अपने नागरिकों को दे रखे हैं लेकिन जो दे भी रखें हैं उनकी भी सुरक्षा नहीं है। अदालती फैसले संविधान के प्राविधानों से कम राजनीतिक,और सामाजिक वातावरण से ज्यादा प्रभावित होते हैं। इस वातावरण के बदलते ही अक्सर फैसले बदल जाया करते हैं।वे इस हद तक बदल जाते हैं कि गुनाहगार बेगुनाह होने का प्रमाणपत्र लेकर सीना तानें घूमते हैं और पीडित थर थर कॉंपते इधर से उधर भागते रहते हैं। लेकिन पीड़ित देश और व्यवस्था से आगे कहॉं जा सकते हैं ? इसलिए अन्ततः वे इस लोक में न्याय की आस छोडकर परलौक में न्याय पाने की दिलासा देकर अपने मन को समझा लेते हैं। न्याय की यही अन्तिम सीमा है। लेकिन यदि मानवाधिकारों के प्रति दृढ आस्था हो तो व्यवस्था कुछ ओर भी हो सकती है। एक व्यवस्था ये हो सकती है कि न्यायपालिकाओं का वैश्वीकरण और उदारीकरण किया जाये। जिस प्रकार अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों को सारे विश्व में कहीं भी जाकर अपना कारोबार करने और सेवा देने का अधिकार है उसी प्रकार विधिवेत्ताओं को भी सभी देशों में वादों की पैरवी करने की अनुमति दी जाये।
   .इसके अतिरिक्त एक अन्तर्राष्ट्रीय  न्याय प्राधिकरण की संरचना की जाये जो मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों को ध्यान में रखकर निर्णय करें ना कि किसी देश के सविंधान या परम्परा को ध्यान में रखते हुये निर्णय करे। मानवाचित गरिमा के साथ जिन्दा रहने का अधिकार एक ऐसा अधिकार है जो सारे संसार में मान्य होना चाहिये । अगर किसी देश का सविंधान या न्याय और शासन व्यवस्था के श्रीमान इस मूलअधिकार का सम्मान नहीं करते हैं तो वह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण द्वारा दण्डित किये जाने चाहियें और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था द्वारा नियंत्रित किये जाने चाहिये।

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