शनिवार, 1 अगस्त 2015

याकूब मेनन की फॉसी

        

 याकूब मेनन की फॉसी से बहुत से लोग खुश हैं। मुझे उनके खुश होने का कोई कारण समझ में नहीं आता है। क्या याकूब मेनन की फॉंसी से बम विस्फोटों में मारे गये लोग जिन्दा हो जायेंगे ? क्या यतीम बच्चों को उनका बाप मिल जायेगा ? क्या इससे साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने वालों के पाप धुल जायेंगे ? किसी के दोषी या निर्दोष होने पर मतभेद हो सकते हैं, किसी की सजा कम या ज्यादा होने पर भी विवाद हो सकता लेकिन मृत्यु दण्ड और उस दण्ड पर चिढाने वाली हद तक प्रसन्नता का प्रदर्शन सभ्य मनुष्य का काम नहीं है। उदाहरण दिया जा सकता है और सवाल पूछा जा सकता है कि ईसाई पादरी ग्रहम स्टेन्स को मासूम बच्चों समेत जिन्दा जलाने वाले दारा सिंह को मृत्यु दण्ड क्यूॅं नहीं दिया गया ? राजीव गॉंधी और बेअन्त सिंह के हत्यारों को मृत्यु दण्ड क्यूॅं नहीं दिया गया ? हाशिमपुरा के असहाय नागरिकों की हत्या करने वालों को मृत्यु दण्ड क्यूॅं नहीं दिया गया ? माया कोडनानी, बाबू बजरंगी को मृत्यु दण्ड क्यूॅं नहीं दिया गया ? नहीं दिया किसी को मृत्यु दण्ड हालाकि उनके अपराध कुछ कम नहीं थे। चाहे जिस कारण से भी हो लेकिन हमें सन्तोष है कि उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया गया। हम किसी को भी असमय मरते हुये नहीं देखना चाहते हैं। आदमी को अपने पाप पुण्यों का फल अपने जीवन काल में ही मिलना चाहिये। ये संभव है कि कुछ के अपराध इतने भंयकर हों कि उसके लिये आजन्म कारावास की सजा भी मामूली सजा दिखायी दे लेकिन हर छोटी बडी सजा मृत्यु दण्ड से ज्यादा सिद्ध होगी। अगर अपराध की भयानकता की तुलना में किन्हीं कारण से कम सजा मिलती है या वह अदालत से बेदाग छूट जाता है तो उसकी यह खुशी बहुत थोडे दिन रहती है। जैसे चोर जानता है कि उसने चोरी की है यद्यपि उसे चोरी करते हुये किसी ने नहीं देखा है उसी प्रकार हर अपराधी को अपने अपराध का एहसास रहता है। एक दिन ऐसा भी आता है जब वह अपने अपराध की ग्लानी में डूब जाता है। वह पागल हो सकता है वह अपने घर परिवार से दूर भाग सकता है यहॉं तक की आत्म हत्या भी कर सकता है। आप समझ सकते हैं कि जिस मानसिक यन्त्रणा को वो अन्दर ही अन्दर बरसों सहन करेगा, जिस घुटन में उसका दम घुटेगा उसकी तुलना में तुरन्त फॉंसी देकर प्राण लेना अपराधी के लिये एक सजा नहीं वरदान ही कहा जायेगा। क्यूॅंकि इसमें पीडा ही कितनी देर सहनी पडी है ? क्या ये बेहतर ना होगा कि वो अपराधी जिसे कोर्ट में मानवता के प्रति जघन्य अपराध का दोषी सिद्ध किया गया है तिल तिल करके मरे? हर रोज मरे ? चिल्ला चिल्ला कर अपने लिय मौत की भीख मॉंगें और उसे मौत नसीब ना हो। अदालत में फैसले सुनाये जाते हैं इन्साफ नहीं किया जाता है। इन्साफ कुदरत करती है। सोचो साध्वी प्रज्ञा को अगर फॉंसी हो जाती तो फिर कैन्सर की पीडा वो कैसे भुगतती ? सरकार और अदालत तो उसे छोड भी सकती है लेकिन कैन्सर उसे छोडने वाला नहीं है और वो याकूब मेनन की तरह आसान मौत भी नहीं मरने देगा। सही सजा यही है। और मैं तो कहता हूॅं कि वो इस जानलेवा केन्सर से भी बच जाये असल सजा तो उसे ताउम्र मिलती रहेगी जब उसकी आत्मा उसे अपने अपराध के लिये धिक्कारा करेगी। सजा सिर्फ सरकारें ही नहीं देती हैं आदमी स्वयं भी अपने लिये सजा तय करता है। आमरण अनशन कर प्राण त्याग देना या जल समाधि लेना जैसे राम ने ली थी अपने किये की सजा ही तो है। ये अलग बात है कि हमने उसे भी महिमामण्डित कर दिया। इतिहास में ख्याति प्राप्त बहुत सारे हत्यारों की कब्रें मजार बनाकर पूजी जा रहीं हैं कि नही ? ये अलग बात है कि उनमें से बहुत से अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वाकई में दरवेश हो गये थे लेकिन सब नहीं। अब इसका तो कोई पता नहीं है कि कब किसकी जिन्दगी किस मोड पर मुड जाये। जीवन के पूवार्द्ध में वीर क्रान्तिकारी का जीवन जीने वाले जीवन के उत्तरार्द्ध में गुलामों से भी ज्यादा चाटुकारिता के लिये मशहूर हुये हैं। भगत सिंह जैसे हॅंसते हॅंसते फॉंसी पर चढ जाने वाले बिरले ही होते हैं। फॉंसी ने ऐसे शूरवीरों के भी प्राण लिये हैं। उन्हें भी न्याय के लिये फॉंसी देना बताया गया था| क्या आप ऐसे न्याय से सहमत हैं ? क्या आप अपने लिये ऐसा न्याय चाहेंगे ? हमें यह न्याय नहीं चाहिये ।हम मृत्युदण्ड का विरोध करते हैं।

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