शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

जिन्दा रहने का अधिकार और मृत्यु दण्ड का औचित्य

        आमिर अजमल कसाब की फॉंसी से पूर्व बडे जोर शौर से ये प्रचार किया गया कि भारत सरकार कसाब को जेल में बिरयानी खिला रही है। लगातार यह मॉंग की गई कि कसाब को शीघ्र फॉंसी दी जाये अन्यथा जनता सरकार के खिलाफ सडकों पर उतर आयेगी। जैसी कि उम्मीद थी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार कसाब को फॉंसी पर चढा दिया गया। इस प्रकार मुम्बई धमाके में न्याय किया गया। 
अफजल गुरू के मामले में भी कुछ किन्तु परन्तु के साथ ऐसा ही न्याय किया गया। हमें इस न्याययिक निर्णय पर कुछ नहीं कहना है क्यूॅंकि अब कुछ कहने का कुछ ज्यादा मतलब नहीं है। जिन्हें मृत्यु दण्ड दिया गया वो अब जिन्दा नहीं हो सकते हैं चाहे कैसे भी तथ्य सत्य प्रकाश में आते रहें जो मर गया सो मर गया। कैसा अजब न्याय है जो मार तो सकता है लेकिन किसी को जिन्दा नहीं कर कसता है। कितना अच्छा होता अगर वो बम विस्फोटों में मारे गये लोगों को जिन्दा कर देता और साजिशकर्ताओं को एम्र भर के लिये यातना सहने के लिये कैद रखता। बहरहाल जो नहीं हुआ वो नहीं हुआ लेकिन सवाल उन तर्कों का है जो मृत्यु दण्ड का फैसला करने वालों ने दिये हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण ये है कि उन्होंने कहा कि यह फैसला जनभावनाओं को ध्यान में रखते हुये लिया गया है। मतलब ये कि जनता चाहती है कि अपराधियों की सरकार जेल में खातिरदारी ना करे और उन्हें तुरन्त फॉंसी दे दे।
गौरतलब है कि आमिर कसाब को जेल में बिरयानी खिलाने की बात को बाद में कोरी अफवाह बताया गया लेकिन इस तथ्य का ज्यादा प्रचार प्रसार नहीं हुआ और एक झूठी बात कि कसाब को जेल में बिरयानी खिलायी जा रही है रात दिन फैलायी जाती रही। स्वभाविक बात है कि एक आतंकवादी हत्यारे को बिरयानी खिलाने से जनता की भावनायें भडकनी ही थी फिर इन भडकी हुई भावनाओं को जो राष्ट्रभक्ति का स्व प्रमाणित प्रमाणपत्र है को तुष्ट करने के लिये मृत्यु दण्ड का औचित्य सिद्ध करना कौन मुश्किल काम है? मतलब ये कि पहले आप झूठी अफवाह फैलाकर जन भावनायें भडकाओं और फिर उन भावनाओं का सहारा लेकर फैसले करो तो मान लें कि न्याय हो गया है ? हजूम तो तात्कालिक और अप्रमाणिक कारणों से भी चींख पुकार सकता है लेकिन भीड न्याय नहीं करती है । न्याय उच्च परम्पराओं और आदर्शों को ध्यान में रखकर किया जाता है। मृत्यु दण्ड के फैसले में उच्च आदर्श का अभाव है। दुनिया के एक सौ तीस देशों में मृत्यु दण्ड को समाप्त कर दिया गया है। भारत में भी इसे समाप्त कर देना चाहिये। मृत्यु दण्ड समाप्त करने के कारण बहुत सीधा सादा है मृत्यु के के बाद अपराधी को सबक सिखाने या सुधारने के सभी रास्ते बन्द हो जाते हैं। जहॉं तक बाकि लोगों को सन्देश देने की बात है वो भी सकारात्मक रूप से अपराधी के सजा काटते रहने से ही मिल सकता है मृत्यु के बाद तो अपराधी सारे अनुभवों से मुक्त हो जाता है। आज हमारा विरोध मृत्यु दण्ड के इस क्रूर कानून के प्रति है। न्याय के आसन पर बैठने वाले न्यायधीशों को चाहिये कि वे जहॉं तक संभव हो किसी को मृत्यु दण्ड ना दें और सरकार को, संसद को मृत्यु दण्ड समाप्त करने के लिये प्रेरित करें।


जिन्दा रहने का अधिकार मनुष्य का नैसर्गिक अधिकार है उससे उसे विधि विरूद्ध या विधिसम्मत किसी भी तरह वंचित नहीं किया जाने चाहिये। यह अधिकार आम आदमी का ही नहीं उन विकृत मानसिकता के लोगो का भी है जो किसी भी तरह की हत्या के जुर्म में सजायाप्ता हैं। विधिसम्मत हत्या या विधिविरूद्ध हत्या मानवता के विरूद्ध एक बडा अपराध है। प्रत्येक हत्या एक परिणाम है कारण नहीं है और जब तक कारण का निवारण नहीं होता है तब तक समस्या का समाधान भी नहीं हो सकता है। समस्या अगर आतंकवाद या यौन अपराध है तो उसके मूल में जाना होगा और उस सामाजिक वातावरण को परिवर्तित करना होगा जिसमें ऐसे अपराध के कीटाणु पनपते हैं जिनकी चपेट में आकर कोई मासूम बच्चा नाथूराम गोडसे या अजमल कसाब बनता है। हत्या के पहले या हत्या के बाद छाती पीटने वाले लोग मेरी नजर में दया के पात्र हैं उनकी आहत भावनायें अगर हत्या से सकून पाती हैं तो सबसे पहले उन्हें मनोचिकित्सालय भेजा जाना चाहिये। फॉंसी देकर हत्या के लिये उतावलापन करना जंगली कबीलाई संस्कारों का प्रदर्शन हैं इसका न्याय या राष्टभक्ति से कुछ लेना देना नहीं है।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें