बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

जो तटस्थ है


साहित्यकारों ने पुरस्कार क्या वापिस किये भगवा दुष्प्रचारकों ने साहित्यकारों को गरियाने की मुहीम छेड़ दी है. वो ऐसे बोल रहें हैं जैसे हर अपराध के लिए साहित्यकार जिम्मेदार हैं .जब चौरासी में सिख मारे गए तब क्यों नहीं लौटाया? कश्मीर से पंडित भगाए गए तब क्यों नहीं लौटाया ? गोधरा में हिन्दू मारे गए तब क्यों नहीं लौटाया ?मजे की बात ये है कि कुछ कथित राष्ट्रवादी साहित्यकारों ने भी साहित्यकारों के विरोध में गाली और प्रवचन बरसाने शुरू कर दिए हैं .वे ये भूल गए हैं कि उनके इसी अधिकार के लिए ये लड़ाई शुरू हुई है ताकि वो अपनी बात अपने ढंग से कह सकें.
 मुददे की बात ये है कि पुरस्कार इसलिये लौटाये जा रहे हैं कि जिस लेखन के लिये पुरस्कार मिला है उसी लेखन के लिये साहित्यकारों की हत्या की जा रही है और हत्यारे बेखौफ हैं जबकि साहित्यकार सहमे हुये हैं। दाभोलकर या कलबुर्गी किसी व्यक्तिगत रजिंश  के कारण नहीं मारे गये हैं वे मारे इसलिये गये हैं कि कुछ संगठित  लोगों को उनके विचार अपनी सोच के विरूद्ध दिखायी देते हैं और वैचारिक विरोध  की अभिव्यक्ति उन्हें सहन नहीं है। क्या वैचारिक भिन्नता पर प्रतिबन्ध होना चाहिये ?
आज स्थिति यह है कि आप  आतंक की इस स्थिति पर साहित्यकार और आम आदमी तीन तरह से अपनी प्रतिक्रिया दे सकता है। सबसे पहले यह कि वह खामोश रहे क्यूॅंकि अभी उसे कोई हानि नहीं हो रही है। जो साहित्यकार मारे जा रहे हैं वो कुछ नीम पागल हैं, साहित्य के जरिये राजनीति करते हैं जबकि साहित्य का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिये। आम आदमी का भी साहित्य और राजनीति से क्या लेना देना है उसे तो दाल और प्याज का भाव देखना चाहिये या गाय का चाव और भक्तों का ताव देखना चाहिये। कलमकार जिये चाहे मरे।
   दूसरा ये कि जो हुआ ठीक हुआ। पुरस्कार वापिस कर रहे लौग वामपंथियों के बहकावे में वापिस कर रहे हैं। वामपंथ सारी दुनिया से विदा हो गया है। भारत के वामपंथी साहित्य और राजनीति पर हावी रहना चाहते हैं। संघ अब ऐसा नहीं होने देगा। संघ राष्ट्र   राष्टभक्ति की विचारधारा पर चलता है और संघ की ही विचारधारा इस देश में चलेगी। ऐसा कहने का दुस्साहस सबमें नहीं होता है। संघ के कुछ प्रबुद्ध प्रवक्ताओं ने यह साहस दिखाया है। उनका अभिनन्दन किया जाना चाहिये और शीघ्र ही उन्हें शिक्षा और साहित्य के उच्च संस्थानों पर प्रतिष्ठित कर देना चाहिये ताकि वो वामपंथी वैचारिक प्रदूषण से शिक्षा और साहित्य को मुक्त करके भारत में वैदिक स्वर्णयुग ला सकें।
   तीसरा तरीका यह है कि आप इस वैचारिक अहिष्णुता का विरोध करें और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिये बलिदान दें। कुछ साहित्यकारों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी है। अग्नि प्रज्जवलित है। कुछ साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार विसर्जित कर दिये हैं। ये नहीं कहा जा सकता कि सभी ऐसा करें सब कैसे करेंगें? सबको पुरस्कार मिले ही नहीं हैं तो वो लौटायेंगें कैसे ? अगर पता होता कि पुरस्कार पाने से ज्यादा शौहरत लौटाने में मिलती है तो एक ना एक पुरस्कार का जुगाड तो मैं भी कर लेता। लेकिन पुरस्कार पाने और लौटाने की राजनीति के लायक होने में अभी समय है। मेरे पास एक कलम है जो मैं किसी को देने वाला नहीं हूॅं और जब तक मेरे हाथ सलामत है तब तक कोई उसे मुझसे  छीन नहीं सकता है। मैंने तय किया है कि मैं इस कलम से उस लौ को जलाता रहूॅंगा जिसे साहित्यकारों ने प्रज्जवलित किया है। अगर आप साहित्यकारों के इस अभियान से सहमत हैं और आपके पास विरोध का कोई और तरीका है तो आप उसे भी अपना सकते हैं। आपको अपना पक्ष और तरीका स्वयं तय करना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार की रक्षा के लिए लडना होगा.  अभी लडाई की शुरूआत है,लडाई खत्म नहीं हुई है। आपको ये लडाई लडनी ही होगी आप अलग नहीं रह सकते हैं। याद करें दिनकर ने क्या कहा था -
समर शेष है नहीं पाप का दोषी केवल व्याध
जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध।

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