रविवार, 25 अक्तूबर 2015

'हम लड़ेंगें कि अब तक लड़े क्यों नहीं ?'





मशहूर शायर मनव्वर राणा के द्वारा साहित्य अकादमी का पुरस्कार वापिस करने के रंग ढंग को लेकर खूब ले दे हो रही है .पहले संघी सोच के लोग ही उनके खिलाफ मुट्ठियाँ तान रहे थे लेकिन उनके द्वारा मोदी के जूते तक उठा लेने के बयान के बाद उनके प्रशंसक  भी बड़ी संख्या में नाक भौं सिकोड़ रहे हैं . कुछ बेसब्र लोगों ने तो तत्काल उनके खिलाफ बयानबाजी शुरू  कर  दी  और  जैसे  सोनिया गांधी पर लिखी गयी उनकी  नज्म के लिए संघी उनसे खफा होकर उन्हें दरबारी बता रहे थे वैसे ही इन लोगों ने भी उन्हें अवसरवादी कहना शुरू कर दिया है .
   मुझे ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस आता है .ये लोग सिर्फ मोदी सरकार के विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं ,मेरी  समझ से इन्हें मुद्दे की समझ नहीं है .असल मुद्दा लेखन की आजादी का है,अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता  का है, स्वतंत्रता का है . जब हम अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता की बात करते हैं तो उसमें केवल भाषण देने या लिखने की स्वतंत्रता ही शामिल नहीं होती है उसमें आपका खान पान ,रहन सहन की स्वतंत्रता भी शामिल है .उसमें आपकी आस्था और अनास्था के दर्शन, प्रदर्शन  की स्वतंत्रता भी शामिल है . इसी कारण से साहित्यकार जहाँ कलबुर्गी जैसे साहित्यकारों ,दाभोलकर जैसे समाज सुधारकों की हत्या के विरोध में सडकों पर आये  हैं वहीं  वे अखलाक जैसे आम नागरिक की हत्या के विरोध में भी आवाज उठा रहे हैं जो सिर्फ धार्मिक आधार पर निराधार अफवाहों के कारण  मारा गया है .
अब सवाल मनव्वर राणा के विरोध का है .सबसे पहले तो हमें किसी व्यक्ति से चाहे वो कितना भी बड़ा क्यों न हो बहुत ज्यादा अपने मन मुताबिक़ आचरण की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. जिसे हमने बड़ा समझदार  और बड़ा अच्छा माना है उस पर भरोसा रखना चाहिए और उसके कार्य और आचरण को अंजाम तक जाने  देना चाहिए . मनव्वर  राणा ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जो उन्हें गरियाने का अवसर किसी  को मिल सके .दूसरी बात ये है कि उनसे भी बड़े अभी बहुत सारे साहित्यकार हर भाषा में हैं जिन्होंने पुरस्कार वापिस नहीं किये हैं.इसका ये मतलब नहीं है कि वे सब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं चाहते हैं या वे संघी सोच के समर्थक हैं .
तीसरी और महत्वपूर्ण बात ये है कि जिस तरह विरोध करने का अधिकार है उसी प्रकार किसी मुद्दे पर सरकार के साथ खड़े होने का भी अधिकार है.अगर कोई सरकार के साथ खड़ा होना चाहता है तो वो ऐसा कर सकता है .इसमें किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए .और इसलिए भी नहीं होनी चाहिए कि पहले विरोध में था अब समर्थन में क्यों आ गया या पहले समर्थन में था अब विरोध में क्यों आ गया है . आखिर लड़ाई अभिव्यक्ति की आजादी की है तो अभिव्यक्ति की ये आजादी रहेगी .आजादी नहीं रहेगी तो तर्क वितर्क कैसे होगा ? बिना तर्क किये किसी की बात मान लेना तो फतवेबाजी है . लोकतंत्र में फतवेबाजी नहीं चलती है .इसलिए विरोध में खड़े लोगों को भी फतवेबाजी से बचना चाहिए.
  ध्यान रहे बड़े कद से आंदोलन खड़े नहीं होते हैं बड़े आंदोलन से लोगों के कद बड़े होते हैं. हर आंदोलन अपना नेता खुद पैदा करता है. किसी खूँटी पर धनुष बाण टांग देने से युद्ध नहीं लड़ा जाता है युद्ध हर सैनिक के हाथ में हथियार उठा लेने पर लड़ा जाता है. अब वक्त आ गया है जब हर छोटे बड़े सैनिक को अपने हथियारों को लेकर रणक्षेत्र  में उतर जाना चाहिए. कहने की आवश्यकता नहीं है कि कलमकारों के लिए कलम ही सबसे  बड़ा अस्त्र है .इसलिए भिव्यक्ति की आजादी के लिए हम अपने हथियार अपनी कलम से लड़ेगें. हम  लड़ेंगें कि अब तक लड़े क्यों नहीं ?

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